BSEB Bihar Board 12th Sanskrit Important Questions Long Answer Type Part 1 are the best resource for students which helps in revision.
Bihar Board 12th Sanskrit Important Questions Long Answer Type Part 1
प्रश्न 1.
ब्रहाचारी और पार्वती संवादस्य सारांश हिन्दी भाषायां लिखत।
उत्तर:
महाकवि कालिदास विश्व के एक महान कलाकार हैं। उनकी प्रतिभा विलक्षण है। उनके प्रतिभा पराग के कणों से परिपूर्ण उनके काव्यकुसमों में रसिक पाठक के हृदय को आनंदोन्मत कर देने की अपूर्व क्षमता है। उनकी कला रसवादी कला है। कालिदास कोमल रसों के सरस चित्रकार है। महाकवि कालिदास की विशेषता उनकी भाषा की सरलता, तथा बोधगम्यता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रसादं गुण उन्हीं के बँटवारे में पड़ा है। कालिदास अपनी उपमा के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। कुमारसम्भवम् महाकाव्य के पंचम सर्ग में पार्वती की तपस्या से मुग्ध होकर ब्रह्मचारि वेषधारी शिव अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर जब पार्वती का हाथ पकड़ लेते है और कहते हैं।
“अद्यप्रभृत्यवनताकि तवास्मि दासः क्रीतस्तपोभिः”
अर्थात् उस समय अपने प्रियतम को प्रत्यक्ष देखकर तथा साथ ही उनके दुर्लभ करस्पर्श को पाकर उनका हृदय आनन्दातिरेक से विह्वल हो उठता है। पार्वती की इस विह्वलता तथा विमूढता का कितना मार्मिक चित्र कालिदास ने प्रस्तुत किया है।
“तं वीक्ष्य वेपयुमती सरसाङ्गयष्टि
निक्षेपणाय पदमुदधृतमुदवहन्ती।
मार्गाचलव्यतिकराकुलितेव सिन्धुः
शैलाधिराजतुनयो न यर्या न तस्थौ।।”
इस प्रकार कालिदास ने कुमारसंभवम् महाकाव्य के पंचम सर्ग में पार्वती की तपस्या का वर्णन बड़ा ही मनमोहक ढंग से किया है।
पार्वती शंकर को पतिरूप में प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय करती है। परंतु वे अपनी सौन्दर्य से उनको आकृष्ट नहीं कर पाती है तो तपस्या करने लगती है। उनकी कठिन तपस्या को देखकर । शिव ब्रह्मचारी भेष धारण कर उनकी परीक्षा लेने उनके पास आते है। पंचम सर्ग में कालिदास ने इस पार्वती और ब्रह्मचारी भेष शिव के संवाद का बड़ा ही सुंदर और रोचक वर्णन प्रस्तुत किया है।
एक दिन तपस्वी ब्रह्मचारी उनके आश्रम में आया। पार्वती के द्वारा किए गए आतिथ्य को ग्रहण कर उसने उनकी कुशलता पूछी। इसके बाद पार्वती की तपस्या की प्रशंसा करते हुए उसने पूछी। इसके बाद पार्वती की तपस्या की प्रशंसा करते हुए उसने पार्वती की एक अंतरंग सखी ने शिव के प्रति पार्वती के अविचल अनुराग तथा शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए उनके दृढ निश्चय का ब्रह्मचारी से निवेदन किया। ब्रह्मचारी ने पार्वती के प्रेम की सत्यता की परीक्षा करने तथा उनको उनके निश्चय से विचलित करने के लिए शंकर के अनेक दोषों का उद्घाटन किया। उसने बताया कि शिव तो अशुभ वस्तुओं से प्रेम करते हैं, श्मशान में निवास करते हैं, चिता की भस्म शरीर में लगाये रहते हैं, सर्पो का कंकाल तथा हाथी की खाल धारण करते हैं, बैलकी सवारी करते हैं तथा अशुभ रूप बनाए रहते हैं।
दरिद्रता की तो वह साक्षात् मूर्ति ही है। शिव की इन अनेकानेक बुराइयों को सुनकर पार्वती तनिक भी विचलित नहीं हुई। वह पूर्ववत् अपने निश्चय पर अडिग रही। ब्रह्मचारी के द्वारा बताए गए दोषों का प्रतिवाद करते हुए उन्होंने वास्तविकता को नहीं जानते हैं। इस पर ब्रह्मचारी ने फिर कुछ कहना चाहा, किन्तु पार्वती ने वहाँ से हट जाना ही ठीक समझा। जैसे ही वह चलने को उद्यत हुई वैसे हो शिव ने, जो ब्रह्मचारी के वेश में पार्वती की परीक्षा लेने के लिए आये थे, अपना वास्तविक वेश धारण करके पार्वती को पकड़ लिया और कहा कि मैं तुम्हारी तपस्या से खरीदा हुआ तुम्हारा दास हूँ। यह सुनकर पार्वती का सारा क्लेश दूर हो गया।
प्रश्न 2.
‘पर्यावरणसंरक्षणम्’ इत्यस्य पाठस्य सारांश हिन्दी भाषायां लिखत।
उत्तर:
पृथ्वी का आवरण वायु, जल और वनस्पति जो संसार का आधार है, पर्यावरण कहलाता है।
सभी प्राणियों के आधाररूपा जो पृथ्वी दृश्यमान है उसको चारों ओर से घेरकर स्थित जो पदार्थ हैं उसे सम्प्रति पर्यावरण कहा जाता है। प्राचीनकाल में सभी विश्व सभ्यताओं में भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश को पंचभूत मानकर पूजे जाते थे। उन्हें सभी प्राणियों के जीवन साधन के रूप में पुराने लोग मानो या तीफन म समय के सोए प्रसिद्ध पदोग के भुक्तभोगी भी होते थे। धीरे-धीरे वैज्ञानिकों ने सुखमय जीवन के सौविध्य का विकास किया।
‘वैज्ञानिक विकास की गति को प्रकृति बहुत समय तक सहन करती हुई मनुष्य की सहायता ही चाहती रही। तबतक सम्पूर्ण पर्यावरण शोभायुक्त रमणीय और प्राणियों के हितकारक रही। किन्तु अति सर्वत्र वर्जयेत इस न्याय से स्थायी मानव समुदाय ने वृक्ष और वनस्पति को पुनः पुनः नष्ट किया जो आज मानव हित के विपरीत है। वे ही हवा शुद्ध करने में स्वयं लगे थे, आकाश से बरसने वाले वर्षा के वेग को अपने ऊपर धारणकर भूक्षरण को रोकते हैं। किन्तु आज स्वयं में असमर्थ वनस्पति विनाश के मार्ग पर जा रहे हैं। इसका फल है कि पर्यावरण सर्वत्र दूषित हो गया है।
किन्तु मानव निर्मित वैज्ञानिक उपकरण, विविध मशीनें, वस्त्र, अस्त्र-शस्त्र, विद्युत उत्पादक कारखानों के समूह सम्पूर्ण वायुमंडल तथा जलमंडल को प्रदूषित कर रहे हैं जिसका निराकरण आज असंभव सा प्रतीत होता है। विकास रथ की परम्परा तो विकसित देशों में अधिक है। न केवल अमृत बहनेवाली नदियाँ प्रत्युत समुद्र भी प्रदूषण को प्राप्त होकर उसके किनारे रहने वालों के जीवन को विनाश की ओर ले जा रहा है। आज कहाँ स्वच्छ जल, कहाँ निर्मल हवा, कहाँ शुद्ध अन्न, कहाँ प्राणवायु प्रदान करने वाले वृक्ष, कहाँ पेयजल, कहाँ हृदयहारिणी उपवन-इन के बारे में सोचते हुए महानगरों में जीविका के लिए रहने वाले जब कभी पर्वतीय स्थानों में घूमने जाते हैं तो वहाँ भी घूमने की इच्छा से महानगरीय प्रदूषण फैलाते हैं। यह एक अन्यायपूर्ण परम्परा है।
यह समस्या एक दिन में उत्पन्न नहीं हुई और न एक दिन में इसका समाधान ही संभव है। पर्यावरण के प्रति जबतक संतुलन की भावना उत्पन्न नहीं होगी तबतक प्रदूषण की समस्या का समाधान कोई भी मानव नहीं कर सकता है। विज्ञान प्रदत्त साधनों के उपभोग की प्रतिस्पर्धा, घर-घर में, समाज-समाज में और देश-देश में विद्यमान है। इनके संतुलित प्रयोग के विषय में राजनीतिज्ञों को सोचना चाहिए। जनसंख्या नियंत्रण करना सर्वाधिक आवश्यक है जिससे हमारी पृथ्वी अत्यधिक भाराक्रांत नहीं हो। प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग संयमपूर्वक करके उनका संरक्षण करना होगा। वनों का सदा ही संरक्षण करना चाहिए।
इस कार्य में युवाओं को भी अवकाश के समय में प्रयास करना चाहिए। जिस तरह धार्मिक स्थानों की स्वच्छता वांछनीय है उसी तरह नदियों के तटों का, तालाबों का, शिक्षण संस्थानों का और सड़कों को साफ करना चाहिए क्योंकि थोड़ा भर प्रयास कल्याणकारी होता है। सड़कों के दोनों ओर वर्षाकाल के आरंभ में समारोहपूर्वक वृक्षारोपण करना चाहिए। इससे जीवन संरक्षित होगा।
प्रश्न 3.
‘वर्षावर्णनम्’ इत्यस्य पाठस्य सारांश हिन्दी भाषायां लिखत।
उत्तर:
वर्षा ऋतु में धूलि शान्त हो गयी है, हवा में शीतलता आ गयी है, गर्मी का फैलाव शान्त हो गया है, राजाओं की युद्धयात्रा स्थगित हो गई है और प्रवासी लोग अपने घर को जा रहे हैं।
कहीं प्रकाश है तो कहीं अंधकार है, आकाश छितराये मेघों से भरा हुआ है। कहीं-कहीं पर्वत मेघों से घिरा हुआ प्रशान्त महासागर के सदृश प्रतीत हो रहा है।
साल और कदम्ब पुष्पों से मिला हुआ, पर्वतीय धातुओं से मिश्रित ताम्ररंग का पानी मयूर की बोली का अनुकरण करती हुई नदियाँ शीघ्रता से बह रही हैं।
रस से भरे हुए भौंरे के रंग के जामुन के फल पर्याप्त मात्रा में खाए जाते हैं। हवा से हिलता हुआ अनेक रंग के पके हुए आम जमीन पर गिरते रहते हैं।
विद्युतरूपी पताका वाले बगुलों की पंक्ति मालाओं वाले मेघ युद्धभूमि के मदमत्त हाथियों के समान गरज रहे हैं।
वर्षा के जलों से भरे हुए धानों के खेत, नृत्य में प्रवृत्त मोर, वर्षा के बाद खाली हुए बादल दोपहर के पश्चात् देखने में अधिक सुंदर लगते हैं।
जलों के अत्यधिक भार को अच्छी तरह से वहन करते हुए, बगुलों से युक्त होकर, गरजते हुए, जल को धारण करने वाले बादल पर्वतों की बड़ी-बड़ी चोटियों पर बार-बार आराम करके फिर से आगे चले जा रहे हैं।
नदियाँ बह रही हैं, बादल बरस रहे हैं, मस्त हाथी गरज रहे हैं, वन के भाग सुशोभित हो रहे हैं, प्रियाओं से रहित जन प्रियजनों का चिंतन कर रहे हैं तथा मेढक साँस ले रहे हैं।
केतकी फूलों के सुगन्ध का पान कर वन के झरनों में मतवाले हाथी प्रसन्न होकर प्रपात के शब्दों को आकुलित करते हुए हाथी मयूरों के समान बोलते हैं।
वर्षा की धारा से आहत, कदम्ब के पेड़ पर टिके हुए सद्यः प्राप्त किए हुए पुष्प के रस में डूबे हुए भौरे मद को छोड़ रहे हैं।
भौंरों के मधुर गुंजन, बन्दरों के कंठ से निकलने वाली बोली, मृदंग की तरह बादलों की गड़गड़ाहट से जंगल संगीतमय-सा प्रतीत हो रहा है।
वर्षा के नए जल की धारा से आहत कमल के फूल पराग त्याग रहे हैं। सपराग कदम्ब . के फूलों का रस चूसकर भौरें प्रसन्न हो रहे हैं।
प्रश्न 4.
‘न्यायालयदृश्यम्’ इति पाठम् अनुसृत्य न्यायालयस्य स्थितिः वर्णनीया।
उत्तर:
न्यायालयदृश्यम् नामक पाठ शूद्रकरचित मृच्छकटिक नामक प्रकारण के नवम अंक से उद्धृत है।
इस प्रकरण का नायक चारुदत्त और गणिका वसन्तसेना परसपर अनुरक्त है। उधर राजा का साला शकार भी बलात्कार द्वारा सूने उद्यान में वसन्त सेना को मार डालने का प्रयास करता है। बाद में शकार ही न्यायालय में चारुदत्त के विरुद्ध अभियोग लगाता है कि उसने धन के लोभ में वसन्तसेना को मार डाला है। न्यायालय में चारुदत्त की बुलाहट होती है और अधिकरणिक (न्यायाधीश) उससे पूछता है कि क्या गणिका उसकी मित्र रहीं है ? चारुदत्त स्वीकार कर लेता है उसी समय शकार जो न्यायालय में उपस्थित है, न्यायालय के काम में दखल देकर चारुदत्त को सजा दिलाना चाहता है। न्यायालय के न्यायाधीश तथा उसके सहायक को विश्वास है कि चारुदत्त निर्दोष है।
परन्तु शकार उसे वसन्तसेना को हत्यारा बताता है और कहता है कि गहने के लोभ में उसने उसे मार डाला है। चारुदत्त इसका विरोध करता है। न्यायाधीश के पूछने पर चारुदत्त बताता है कि वसन्तसेना अपने घर गयी है। शकार पुनः कहता है कि तुम झूठ बोलते हो तुमने पुष्पकरण्डक नामक मेरे पुराने बगीचे में गला घोंट कर उसे मार डाला है। चारुदत्त इसका भी विरोध करता है। वह शकार से कहता है कि मैं ऐसा गलत काम नहीं कर सकता। इस पर शकार न्यायाध रोश को पक्षपाती बताता है। अधिकरणिक (न्यायाधीश) शकार से पूछता है कि जिसने अपनी सम्पत्ति गरीबों में बाँट दी हो वह चारुदत्त ऐसा नीच कार्य कैसे कर सकता है।
वसन्तसेना की माँ जो न्यायालय में उपस्थित है वह भी चारुदत्त को निर्दोष बताती है। न्यायाधीश चारुदत्त से पूछता है कि वसन्तसेना पैदल गयी थी या किसी सवारी से। चारुदत्त कहता है कि उसे इसकी जानकारी नहीं है। न्यायाधीश वीरक नामक कर्मचारी से पूछता है कि पुष्पकरण्डक उद्यान में कोई मरी हुई स्त्री है या नहीं ? कर्मचारी बताता है कि उसने उस उद्यान में पशुओं द्वारा अधखाये स्त्री शरीर को देखा है। न्यायाधीश कर्मचारी की बात सुनकर दुःखी हो जाता है; क्योंकि अभियुक्त चारुदत्त के विरुद्ध सबूत मिल रहा है।
न्यायाधीश चारुदत्त से सच्ची बात बताने को कहता है। चारुदत्त शकार की बातें मानने के लिए अनुरोध करता है। शकार न्यायाधीश पर लांछन लगाता है कि वह पक्षपात कर रहा है; क्योंकि अभियुक्त होने पर भी चारुदत्त को बैठने के लिए आसन दिया गया है। इसी समय विदूषक न्यायालय में आ जाता है और उसकी काँख के नीचे से गहनों की पिटारी गिर पड़ती है। न्यायाधीश देखता है कि शकार का अभियोग प्रमाणित हो रहा है। वह अफसोस करते हुए कहता है कि धूमकेतु की तरह विदूषक आ गया है जो चारुदत्त के लिए हानिकर है।
प्रश्न 5.
चारु दत्तस्य चरितम् वर्यताम्।
उत्तर:
चारुदत्त शूद्रकरचित मृच्छकटिक प्रकरण का नायक है। वह ब्राह्मण होकर भी व्यापार करता है। धनी होने पर भी वह अत्यन्त उदार है और वह किसी याचक को निराश नहीं करता। परिणाम स्वरूप वह निर्धन हो जाता है।
वसन्तसेना नाम की गणिका-पुत्री उससे प्रेम करती है और वह भी उसे चाहने लगता है। समाज के सभी लोग उसे चाहते हैं।
राजा का साला शकार जब उसपर वसन्तसेना के गहने लूटकर मारने का अभियोग लगाता है, तो न्यायाधीश को विश्वास नहीं होता। वह मन ही मन सोचता है कि यह कैसे सम्भव है ? जिस प्रकार हिमालय को तौलना, समुद्र को तैर कर पार करना, आग को पकड़ना असम्भव सा है वैसे ही चारुदत्त के चरित्र में दोष निकालना है-
तुलनं चाद्रिराजस्य समुद्रस्य च तारणम्।
ग्रहणं चानिलस्येव चारुदत्तस्य दूषणम्॥
शकार द्वारा प्रतिवाद किये जाने पर न्यायाधीश कहता है कि जिस व्यक्ति के बिना कहे अपने धन को लुटा दिया है वह ऐसा नीच कर्म कैसे करेगा। न्यायाधीश ने चारुदत्त के लिए महात्मा शब्द का प्रयोग किया है। दुर्योग से सबूत चारुदत्त को अभियुक्त बना दे रहा है। न्यायाधीश को अभी भी विश्वास नहीं होता। उसे लग रहा है कि चटकीली चाँदनी फैलाने वाला चन्द्रमा राहु के द्वारा. आक्रान्त हो रहा है, नदी का शुद्ध जल किनारे की मिट्टी गिरने से गन्दा हो रहा है।
निर्मलज्योरत्रनो राहुणा ग्रस्यते शशी।
जलं कूलावपातेन प्रसन्नं कलुषायते।।
चारुदत्त दृढ़ विचार वाला है। वह स्वीकार कर लेता है कि वसन्तसेना से उसे प्रेम है तो वह उसके यहाँ आयी हुई थी। अन्त में चारुदत्त इतना ही कहता है कि शकार ऐसे दुष्ट जो दूसरों के गुणों से ईर्ष्या करते हैं दूसरों का अपकार करते हैं तथा झूठ बोलते हैं, उनकी बातों पर विश्वास नहीं किया जाना चाहिए।
प्रश्न 6.
“सोमदत्त प्राप्ति कथा” पाठस्य सारांश: हिन्दीभाषायां लिखत।
उत्तर:
प्रस्तुत पाठ महाकवि दण्डी द्वारा रचित दशकुमार ‘चरित की पूर्वपीठिका के प्रथम उच्छ्वास से संकलित है। इस कथा ग्रंथ में दण्डी ने दस कुमारों के रोचक वृतान्तों का वर्णन किया है। कुछ कुमार राजपुत्र हैं जबकि कुछ अमात्य पुत्र हैं। दशकुमारचरित तीन भागों में विभक्त हैं-पूर्वपीठिका (पाँच उच्छ्वास) मध्य दशकुमार चरित (आठ उच्छ्वास) तथा उत्तरपीठिका। इस पाठ में सोमदत्त नामक आमात्य पुत्र की प्राप्ति की कथा दी गई है. जो अत्यन्त रोमांचक स्थितियों में मगधराज राजहंस के समक्ष आया है। इसमें वाक्यों का लालित्य पूर्ण विन्यास अत्यन्त आकर्षक है।
कथा का आरंभ दूसरे दिन से होता है जिस समय आश्रम में रहने वाले बामदेव के शिष्य देवार्चन के बाद जो कामदेव से भी अधिक सुन्दर फूलों के समान सुकुमार कुमार राजा के समीप जाकर बोला-देव ! तीर्थयात्रा की अभिलाषा से कावेरी के तट पर में गया। वहाँ हिलते हुए केश वाले एक बालक को अपनी गोद में रखकर रोती हुई एक वृद्धा स्त्री को देखकर मैंने कहा-‘वृद्ध तुम कौन हो ? यह बालक किसकी आँखों में आनन्द देने वाला है। किस प्रयोजनवश जंगल में आयी हो; तुम्हारे दुःख का कारण क्या है आदि।
प्रश्न 7.
बिहारस्य प्रमुख संस्कृत मनीषिणः के ? तेषां विषये लिख्यताम्।
उत्तर:
बिहार प्रदेश में संस्कृतं के विद्वानों की प्राचीन परम्परा रही है। दरभंगा तो दर्शन के लिए भारत वर्ष में प्राचीन काल से विख्यात रहा है। न्याय दर्शन के प्रकाण्ड पण्डित वाचस्पति मिश्र तथा उदयनाचार्य मिथिला क्षेत्र के ही थे।
आधुनिक युग में छपरा निवासी पण्डित रामावतार शर्मा पटना कॉलेज में संस्कृत के प्राध्यापक थे। मौलिक दार्शनिक चिन्तन ‘वं विलक्षण स्मरण-शक्ति से सम्पन्न उन्होंने परमार्थदर्शन नामक मौलिक ग्रन्थ लिखा था। बिहार के बहार का विद्वद्वर्ग भी उनकी मेघा का प्रशंसक था। पण्डित मदनमोहन मालवीय उनको बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का स्थायी पद देना चाहते थे; लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए।
छपरा जिले के ही श्रीरामकरण शर्मा, भारत प्रसिद्ध विद्वान् हैं। वे दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय और सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति तथा भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के संस्कृत अनुभाग में संयुक्त शिक्षा परामर्शी रहे। संस्कृत में उन्होंने अनेक काव्य ग्रन्थ तथा उपन्यास लिखे हैं। उन्हें भारत सरकार की भारतीय साहित्य परिषद् ने भी सम्मानित किया है। इसके अतिरिक्त संस्कृत में अपने अवदान के लिए वे राष्ट्रपति के द्वारा भी सम्मान-प्रशस्ति प्राप्त कर चुके हैं।
प्रसिद्ध ऋषि याज्ञवल्क्य एवं ऋषिका गार्गी, जिनका उल्लेख वृहदारयक उपनिषद् में है, बिहार के ही थे। बिहार के ही मीमांसक मण्डनमिश्र के साथ शंकराचार्य में शास्त्रार्थ की चर्चा प्रसिद्ध रही है। बिहार के बाणभंट्ट गद्यकवियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं और उनके हर्षचरित तथा ‘कादम्बरी’ संस्कृत गद्यकाव्य के निकष के रूप में समादृत हैं।
इस प्रकार बिहार की संस्कृत-परंपरा स्पृहणीय है।
प्रश्न 8.
परोपकारस्य महत्त्वं विषये हिन्दी भाषायां लिखत।
उत्तर:
भर्तृहरि ने नीतिशतक में परोपकार के महत्त्व का विवेचना किया है। उन्होंने अनेक उदाहरणों के द्वारा बताया है कि व्यक्ति को परोपकार करने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए।
फल आने पर वृक्ष उसके भार से झुक जाते हैं। मेघ वर्षा ऋतु के आने पर जलसमृद्ध होने के कारण आकाश के नीचे तैरते रहते हैं। इसी प्रकार परोपकार करने वाले व्यक्ति ऐश्वर्य के होने पर भी गर्वोन्नत नहीं होते। जिस प्रकार हाथ कंगन के बदले दान देने से अधिक सुन्दर लगता है वैसे ही परोपकारियों का शरीर चन्दन के बिना भी सुन्दर लगता है।
परोपकारी व्यक्ति स्वयं दूसरों का कल्याण करने में लगा रहता है, जैसे सूर्य बिना कहे कमल को खिलाता है, चन्द्रमा कुमुदिनी को। मेघ बिना माँगे जल बरसाता है। दूध के साथ जब जल का सम्पर्क होता है तो दूध जल जो अपना रूप दे देता है, वह जल दूध की तरह दीखने लगता है। बदले में जब दूध आग पर उबलने लगता है, तो जल ही पहले अपने को जला देता है। इसी प्रकार परोपकारी व्यक्ति कष्ट सह कर भी याचक का, परिचितों की सहायता करता है।
प्रश्न 9.
नृत्य शिक्षकयोर्विवादस्य कारणं लिखत।
उत्तर:
प्रस्तुत पाठ कालिदास रचित ‘मालविकाग्निमित्र’ के प्रथम अंक से लिया गया है। राजा अग्निमित्र और मालिविका की प्रेम-कथा इसमें वर्णित है। रानी धारिणी को दासी के रूप में मालविका अन्तःपुर में रहती है और अन्त में राजा की प्रेमिका बन जाती है। आचार्य गणदास मालविका की नृत्य की शिक्षा देते हैं, उधर हरदत्त रानी धारिणी को। एक बार दोनों आचार्यों में विवाद छिड़ जाता है कि दोनों में अच्छा नृत्य शिक्षक कौन है।
गणदास राजा से शिकायत करता है कि हरदत्त ने उससे कहा है कि वह उसके पैरों की धूलि के बराबर भी नहीं है। राजा के पूछने पर हरदत्त कहता है कि गणदास ने ही पहले मुझे अपमानित किया है। अतः प्रार्थना है कि आप दोनों की शास्त्र-विषय की परीक्षा ले लें। अन्त में । तय होता है कि तापसी कौशिकी के समक्ष दोनों शिष्यों में प्रतियोगिता होगी। कौशिकी का कहना है कि उनके शिष्यों की विशेषता की व्यावहारिक परीक्षा लेकर ही इसका निर्णय करना उचित होगा। ऐसा देखा गया है कि कोई शिक्षक पण्डित होते हुए भी छात्र को शिक्षित करने में पटु नहीं होता। रानी धारिणी इस प्रतियोगिता के पक्ष में नहीं है। क्योंकि उसे शंका है कि मालविका के नृत्य को देखकर राजा का आकर्षण उसके प्रति और गहरा जाएगा। वह इस विवाद में गणदास का हाथ होने की शंका करती है।
इस प्रकार दोनों शिक्षकों के विवाद का कोई ठोस कारण नहीं दीखता।