Bihar Board 12th Sanskrit Important Questions Long Answer Type Part 2

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Bihar Board 12th Sanskrit Important Questions Long Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
‘सर्वधर्म सम्मेलने विवेकानन्दः’ इत्यस्य पाठस्य सारांश हिन्दी भाषायां लिखता . . –
उत्तर:
11 सितम्बर, 1893, सोमवार के दिन सम्मेलन का प्रथम सत्र प्रारंभ हुआ। बीच में कार्डिनल गिबन्स बैठे हुए थे। उनके समीप पश्चिमी देश के प्रतिनिधि, ब्रह्म समाज के प्रमुख प्रतापचन्द, ईश्वरवादी नागरकर, श्रीलंका के बौद्ध प्रतिनिधि धर्मपाल, जैन गाँधी महाभाग, थियोसोफिकल समाज के सदस्य बैठे, थे। उनके बीच में कोई युवक बैठा हुआ था। वह सबों का था किसी सम्प्रदाय विशेष का नहीं। उसने हजारों से अधिक दर्शकों को आकृष्ट किया। उनका सुन्दर मुखमंडल, कुलीन आचरण और भव्य वेशभूषा रहस्यपूर्ण संसार में अवतीर्ण दिव्य व्यक्तित्व का प्रभाव अच्छी तरह लोगों को प्रभावित किया। सभी प्रतिनिधियों ने अपना परिचय देते हुए संक्षेप में अपने धर्म की विशेषता का व्याख्यान किया।

बहुत देर के पश्चात् युवक की बारी आयी। लेकिन जब उसने बोलना प्रारंभ किया। उनकी वाणी प्रदीप्त दिव्य शिखा की तरह प्रज्वलित हो उठी। सभी श्रोता समुदाय को उसने प्रभावित किया। जब वह अपना व्याख्यान अमेरिका देश के भाइयों एवं बहनों के सम्बोधन से प्रारम्भ किया तब सैकड़ों लोग ताली बजाकर उन्हें प्रोत्साहित किया। सम्मेलन की औपचारिकता को असामान्य लोग उनके हृदयगत भाषा को बोलने लगे। पुरातन वैदिक धर्म युवा संन्यासी अमेरिका देश का अभिनन्दन करने लगा। उनके धर्मोपदेश को जिसने समझा स्वीकार कर लिया।

अन्य सभी वक्ताओं ने ईश्वर की चर्चा की लेकिन उसने सर्वव्यापी ईश्वर की चर्चा की। इसके पहले किसी का भी भाषण उदारपूर्ण नहीं था। युवक विवेकानन्द ने दस बार से अधिक भाषण दिया। उनके भाषण में सभी धर्मों का न केवल सार तत्त्व निहित था अपितु विज्ञान का सर्वजनमुखी विवरण भी था जहाँ सम्पूर्ण मानव स्वरूप का आत्मा का आशादीप हुआ।

विवेकानन्द के समन्वयात्मक व्याख्यान का प्रभाव अमेरिका देश में सर्वत्र अनुभव किया गया। मनुष्य में अन्तर्निहित दिव्यता उसके विकास की अनुपम क्षमता है यही उनका एकमात्र सिद्धांत था। इस तरह के मानवधर्म का सभी देश अनुसरण करेंगे। प्राचीन काल में उदार धर्म का जो कोई भी प्रयास किया गया, वह आंशिक था। जैसे अशोक के बौद्ध धर्माश्रित परिषद्, अकबर का दीन-ए-इलाही ये उद्देश्यपूर्ण होते हुए भी कुलीन आश्रित थे। यह सौभाग्य अमेरिका देश का ही है जो सभी धर्मों में ईश्वर के एकत्व का संदेश संसार को दिया।

यह सर्वधर्म सम्मेलन यह स्पष्ट करता है कि धार्मिकता और पवित्रता किसी धर्मविशेष .. का अधिकार नहीं है। धर्मध्वजों में यहाँ लिखा जाना चाहिए कि सहायता करो, युद्ध नहीं करो, विनाश नहीं प्रत्युत समन्वय करो, युद्ध नहीं प्रत्युत मैत्री और शान्ति स्थापित करो। इन ओजस्वी शब्दों का प्रभाव सर्वत्र आश्चर्यजनक रूप से पड़ा। अमेरिका देश के समाचार पत्रों में भारत देश की अतीव प्रशंसा हुई। वस्तुत: स्वामी विवेकानन्द विदेशियों के प्रतिक्रिया स्वरूप युग पुरुष बन गए।

प्रश्न 2.
“उद्भिज्जपरिषद्’ इति पाठस्य सारांशः लिख्यताम्।
उत्तर:
उद्भिज्जपरिषद् नामक पाठ्यांश 19वीं शताब्दी के ऋषिकेश भट्टाचार्य रचित ‘प्रबन्ध ‘मंजरी’ से उद्धृत है। इस पाठ में विभिन्न वनस्पतियों के प्रतीकों के माध्यम से मनुष्यों के विषय में कटूक्ति की गयी है।

कोलकाता के सुन्दर वन में अनेक प्रकार वनस्पति-लतागुल्म आदि पादपों की परिषद् बैठी है जिसमें अश्वत्थ को व्याख्यान देने के लिए मनोनीत किया गया है। अश्वत्थ विभिन्न देशों-प्रदेशों से आए हुए विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों का स्वागत करते हुए कहता है कि आज मानवों के विषय में चर्चा की जाएगी। वह कहता है कि मनुष्य इस सृष्टि में निकृष्टतम प्राणी है। सविता ने विविध पशु-पक्षियों वनस्पतियों की सृष्टि कर अपनी विलक्षण बुद्धि का परिचय दिया है; परन्तु मानवों का निर्माण कर बुद्धिहीनता भी दिखलायी है। मानव सम्पूर्ण सृष्टि के लिए हानिकर है; क्योंकि पानी, वायु, प्राकृतिक अवदानों भूमि आदि का दुरूपयोग कर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसके हाथों सम्पूर्ण सृष्टि का विनाश होकर रहेगा।

प्रश्न 3.
‘व्यायामः’ इत्यस्य पाठस्य सारांश हिन्दी भाषायां लिखत।
उत्तर:
शरीर में थकावट उत्पन्न करने वाला कर्म व्यायाम कहलाता है। व्यायाम करने के अनन्तर सम्पूर्ण शरीर को धीरे-धीरे मलना चाहिए।
व्यायाम करने से शरीर को सम्यक् पुष्टि, काति, अंगों का सुंदर गठन पाचकाग्नि में वृद्धि आलस्य को न होना, स्थिरता, लघुता और शारीरिक शुद्धि होता है।

व्यायाम से श्रम-क्लम (थकान) पिपासा, उष्णता और शीत आदि को सहन करने की शक्ति तथा उत्तम आरोग्य की प्राप्ति होती है। स्थूलता को न्यून करने के लिए व्यायाम के समान दूसरी कोई वस्तु नहीं है। व्यायाम करने वाले व्यक्ति को शत्रु भी भय के कारण पीड़ा नहीं पहुँचाते।

व्यायामशील मनुष्य के ऊपर वृद्धावस्था सहसा आक्रमण नहीं करती। व्यायाम करने वाले की मांसपेशियाँ सुदृढ़ होती है।
व्यायामजन्य श्रम से निकले हुए स्वेद कणों से स्वेदित तथा पैरों की भलीभाँति मालिश करने वाले व्यक्ति के समीप व्याधियाँ उसी प्रकार नहीं पहुँचती जिस प्रकार गरुड़ के सामने साँप नहीं पहुँचते। वायुरूप गुणरहितों को भी सुदर्शन बनाता है।

नित्य व्यायाम करने वाले व्यक्ति का विरुद्ध अम्लपाकयुक्त अथवा अपक्व और अम्ल भोजन भी दोष रहित सम्पूर्ण रूप से पचता है।
बलवान तथा स्निग्ध आहार करने वाले व्यक्ति के लिए व्यायाम सदा हितकर है और उसके लिए शीत एवं वसंत ऋतु में इसका सेवन अत्यन्त लाभदायक बताया गया है।

अथवा हित चाहने वाले मनुष्यों को सभी ऋतुओं में प्रतिदिन आधी शक्ति के अनुकूल व्यायाम करना चाहिए। अन्यथा इसका घातक प्रभाव पड़ता है।

व्यायाम करते हुए मनुष्य को हृदय में स्थित वायु जब मुँह में आने लगे तो बलार्द्ध समझना चाहिए।
वायु, बल, शरीर, देश, काल और आहार का विचार करते हुए व्यायाम करना चाहिए. अन्यथा रोगोत्पत्ति की संभावना रहती है।

प्रश्न 4.
व्यायामस्य महत्त्वम् वर्णनीम्।
उत्तर:
सुस्वास्थ्य की कामना सभी को होती है। सभी की इच्छा होती है कि वे सुन्दर दिखें, रोगग्रस्त न हों तथा उनकी स्फूर्ति बनी रहे। सुश्रुत संहिता में आचार्य सुश्रुत ने व्यायाम के लाभों का वर्णन किया है। व्यायाम करने से शरीर की शान्ति की कान्ति बनी रहती है, आलस्य नहीं होता। मन्दाग्नि व्यक्ति को पीड़ित नहीं करती। भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी को सहने की शक्ति प्राप्त होती है। व्यायाम करने वाले को मोटापा से होने वाले रोग नहीं सताते। उनसे रोग वैसे ही भागते हैं जैसे गरुड़ से साँप।

व्यायाम करने वाला व्यक्ति अगर कहीं कुभोजन कर भी ले तो उसे वह पचा लेता है। व्यायामशील व्यक्ति का सौन्दर्य सदा बना रहता है। व्यक्ति को अवस्था, देश और काल को देखकर उसी के अनुरूप व्यायाम करना चाहिए। बालक, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष सब के लिए अलग-अलग व्यायाम का प्रावधान है। इस बात को ध्यान में रखना चाहिए।

प्रश्न 5.
‘ज्ञान सागरः’ पाठ्यमाश्रित्य पुस्तकालयस्य महत्त्वं लेख्यम्।
उत्तर:
ज्ञान मनुष्यों की बहुत बड़ी शक्ति है। ज्ञानहीन व्यक्ति अन्धे के समान होता है। ज्ञान प्राप्ति का प्रमुख साधन पुस्तकालय है। पुस्तकालय में विविध प्रकार की पुस्तकें रहती हैं। सामान्यतया धनी व्यक्तियों को छोड़कर दूसरों के लिए विविध प्रकार की पुस्तकें खरीदना सम्भव नहीं होता है; क्योंकि अनेक पुस्तकों का मूल्य बहुत अधिक होता है। भारतवर्ष में नालन्दा, तक्षशिला ऐसे प्रसिद्ध पुस्तकालय थे। परन्तु विदेशी आक्रान्ताओं ने इन्हें नष्ट कर डाला। अगर ये पुस्तकालय नष्ट नहीं हुए होते, तो प्राचीन भारतीय साहित्य एवं शास्त्रों के विषय में तिथि आदि बिन्दुओं को लेकर जो समस्याएँ उत्पन्न हो जा रही हैं, नहीं होती।

पुस्तकालय. छात्रों एवं धनहीन जिज्ञासुओं के लिए वरदान ही होते हैं। उन्हें विविध देशों के .. समाचार पत्र भी पढ़ने को मिल जाते हैं। इस प्रकार ज्ञानवर्धन में पुस्तकालयों की महती भूमिका होती है।

इसी कारण कम्प्यूटर के युग में भी पुस्तकालयों का महत्त्व घटा नहीं है। सरकार को चाहिए कि सुदूर देहातों में भी पुस्तकालयों की व्यवस्था करें। ताकि ग्रामीण भी इनके माध्यम से लाभ उठा सकें।

प्रश्न 6.
चाणक्य चन्दनदासयोः संवादः वर्णनीयः।
उत्तर:
‘चाणक्यचन्दनदास संवादः’ विशाखदत्त रचित मुद्राराक्षस से लिया गया है। चाणक्य ने नन्द वंश को नष्ट कर चन्द्रगुप्त को पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठा दिया है। अब वह चाहता है कि नन्द वंश का योग्य मंत्री राक्षस चन्द्रगुप्त का भी मंत्री पद स्वीकार कर ले। परन्तु राक्षस स्वामिभक्त होने के कारण मंत्रिपद स्वीकार नहीं करता है। चाणक्य कूटनीति से काम लेते हुए राक्षस के अनन्य मित्र चन्दनदास को बुलाकर उसे राक्षस के विषय में जानना चाहता है। पहले वह चन्दनद्रास से उसके व्यापार की सफलता के बारे में पूछता है। फिर उससे चन्द्रगुप्त के शासन के बारें में प्रजा की प्रतिक्रिया जानना चाहता है। चन्दनदास चाणक्य की व्यवहार-कुशलता से सशंक हो जाता है।

चाणक्य उससे कहता है कि तुमने चन्द्रगुप्त के विरोधी अमात्य राक्षस के परिवार को क्यों – शरण दी है। चन्दनदास पहले तो इसे स्वीकार नहीं करता, पर चाणक्य उसे धमकाता है कि संभव है कि राक्षस ने अपना परिवार तुम्हारे यहाँ रख दिया हो। चन्दनदास कहता है कि पहले राक्षस का परिवार मेरे यहाँ था, लेकिन पता नहीं अब कहाँ चला गया है। इसपर चाणक्य क्रोध के साथ कहता है कि तुम राक्षस के परिवार को समर्पित कर दो तभी तुम्हारा परिवार सुरक्षित रहेगा। चन्दनदास चाणक्य की कूटनीति को समझ जाता है और चाणक्य उत्तर देता है कि राक्षस का परिवार उसके यहाँ रहता तो भी वह चाणक्य को उसे समर्पित नहीं करता। चाणक्य की कूटनीति को समझ पाता है और चाणक्य उत्तर देता है कि राक्षस का परिवार उसके यहाँ रहता तो भी वह चाणक्य को उसे समर्पित नहीं करता। चाणक्य चन्दनदास की बातें सुनकर मन ही मन चन्दनदास. की प्रशंसा करता है। उसे राजा शिवि के समान त्यागी मानता है।

प्रश्न 7.
दिलीप: कतः प्रजानां पिता ? हिन्दीभाषायां स्पष्टी करु।
अथवा, राज्ञो दिलीपस्य प्रशासनिक गुणानां वर्णने दशवाक्यानि लिखता।
उत्तर:
रघुवंश संस्कृत साहित्य का सर्वाधिक लोकप्रिय महाकाव्य है। भारतवर्ष में ही नहीं अपितु विदेशों में भी इसका विशेष सम्मान है। यह एक अंतरख्याति प्राप्त महाकाव्य है। इसमें महाकाव्य के सभी लक्षण विद्यमान है। इस महाकाव्य के संबंध में एक दंतकथा है कि कुमारसंभव में शिव-पार्वती के विवाह का वर्णन अतिशय शृंगारपूर्ण हो जाने के कारण महाकवि कालिदास को शिव और पार्वती के कोप फलस्वरूप कोढ़ी हो गए। उन्हें खिन्न देखकर सरस्वती ने स्वप्न में कहा कवि ! तुम राम-चरित का वर्णन करो। इस पुण्य से तुम रोगमुक्त हो जाओगे।” सरस्वती के आदेश से ही कालिदास ने रघुवंशम् में राम के पावन वंश तथा उनके पुनीत चरित का वर्णन किया और इस पुण्य के फल से वे रोगमुक्त हो गए। रघुवंश 17 सर्गों का महाकाव्य है जिसमें रघु के कुल का वर्णन किया गया है।

इसके प्रथम सर्ग में कालिदास ने राजा दिलीप के गुणों का बखान किया। इसकी सबसे बड़ी विशेषता उपमालंकार के कारण है। जिस प्रकार वेदों में सर्वप्रथम ॐकार है वैसे ही राजाओं में सबसे पहले सूर्यपुत्र वैवस्वत मनु हुए, जिनका सम्मान बड़े-बड़े विद्वान किया करते थे। उसी प्रकार “सूर्य पुत्र मनु के उज्ज्वल वंश में अत्यंत पावन चरित्र वाले राजाओं में अनुकरणीय राजा दिलीप का जन्म भी उसी प्रकार हुआ, जिस प्रकार झीरसावर में चन्द्रमा उत्पन्न हुआ। जिस प्रकार सुमेरू पर्वत ने अपनी सुदृढ़ती, चमक और ऊँचाई से संसार की समस्त वस्तुओं के गुणों को फीका कर दिया है और अपने विस्तृत रूप से सारी धरती को ढंक दिया है।

उसी प्रकार राजा दिलीप ने अपनी वीरता, तेज और दिव्य रूपी शरीर से सभी को पराजित कर सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने वश में कर लिया था। राजा दिलीप अपने दिव्य रूप एवं तीक्ष्ण बुद्धि से समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। वे अपने सारे काम शास्त्रों के अनुसार ही किया करते थे जिसके कारण उन्हें सफलता प्राप्त होती गई। वे न्यायप्रिय एवं दानी प्रवृत्ति के थे जिसके कारण सारी प्रजा . उनसे डरती थी और उनका सम्मान भी करती थी। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार मगरमच्छादि के … भय से लोग समुद्र से दूर भागते. है, परंतु रत्नों आदि को लाने के लिए उसके निकट भी आते हैं। योग्य सारथी द्वारा चलाए गये रथ के पहिये के समान ही राजा दिलीप की प्रजा मनु के द्वारा चलाए नियमों पर ही अपना सारी काम-काज करती थी।”

जिस प्रकार सूर्य की किरणें पृथ्वी के जल को खींचकर पुनः उन्हें हजार गुनों वर्षा के रूप में प्रदान कर समस्त धरा को हरा-भरा बना देता है, उसी प्रकार राजा दिलीप भी प्रजा के लिये गये ‘कर’ को प्रजा के ही हित में इन्द्रादि देवताओं को प्रसन्न करने में लगा देते थे। उनकी सैन्य शक्ति केवल शोभा के लिए नहीं थी वरन् उनके सैनिकों को शास्त्रों का भी उचित ज्ञान प्राप्त था। यही कारण है कि धनर्विधा में वे धनुष की चढी हुई डोरी के साथ-साथ अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का भी इस्तेमाल करते थे। वे अपने आचार-विचार तथा हृदय की बातों को किसी के समक्ष कार्य पूरा होने के बाद स्पष्ट करते थे।

वे अपनी एवं अपने प्रजा की रक्षा के लिए साहस का परिचय देते थे वहीं धर्म की रक्षा के लिए धैर्य का। दूसरी ओर लोभरहित धन का संचय करते थे और आसक्ति रहित होकर सांसारिक सुखों का उपभोग भी ज्ञान होने पर भी वे मौन धारण कर शत्रुओं को जीतने की क्षमता रहने पर भी उन्हें क्षमा कर देते। दूसरे का उपकार करने पर भी अपनी प्रशंसा सुनने की इच्छा नहीं रखते थे। सभी गुण उनमें जन्म से ही विद्यमान थे।

प्रश्न 8.
भार्गवी वारूणी विद्या पाठभाधृत्य पच्च सरलवाक्येषु अनुच्छेदं लिखत।
उत्तर:
प्रस्तुत पाठ तैत्तिरीयोपनिषद् की तृतीय वल्ली से लिया गया है। यह कृष्ण यजुर्वेद की तैतिरीय शाखा को प्रसिद्ध उपनिषद है। इसमें तीन वल्ली है। शिक्षा वल्ली, ब्रह्मानन्द बल्ली, भृगुवल्ली। यह पांठ भृगुवल्ली से लिया गया है। इस वल्ली में वरूण अपने पुत्र भृगु को ब्रह्मविद्या का उपदेश देते है। यही उपदेश इस पाठ में बताया गया है।

भृगु ऋषि पति वरूण के पास जाकर ब्रह्मविद्या का ज्ञान देने के लिए कहते है। अन्न; प्राण चक्षु, श्रोत्र, मन और वचन (ही ब्रह्म है) जैसे-ये पदार्थ जन्म लेते हैं और जिसमें जन्म लेने वाले जीवित रहते हैं। जिसके ज्ञान से प्राप्त होते ही उसे जानने की जिज्ञासा करो वही ब्रह्म है। तप का आचरण करो। वह तप से ही प्राप्त होगा।

अन्न को ही ब्रह्म जानो। प्राण को ही ब्रह्म जानो। प्राण और अन्न से ही जीव पैदा लेते हैं इसे, जानकर पुनः वरूण पिता के पास जाता है और कहता है भगवन् मुझे ब्रह्म की शिक्षा दे। वह तप से ही प्राप्त होगा। इसी प्रकार मन और ज्ञान प्राण, अन्न इन चारों से ही जीव की उत्पत्ति होती है और तप से ब्रह्म की प्राप्ति। इस प्रकार भृगु की जानी हुई विद्या वरूण के द्वारा बतायी गई जो विस्तृत आकाश में प्रतिष्ठित है। जो इसे जानता है वहीं जीवित है। अन्न का उपभोक्ता आनन्द होता है अपने ब्रह्मचर्य से प्रजा और पशुओं द्वारा उसकी कृति भी महान हो जाती है।

प्रश्न 9.
भोजराजस्य दानशीलता वर्णनीया।
उत्तर:
संस्कृत काव्य संसार में अनेक रस भावज्ञ देखे जाते है जो राजकुल में जन्म लेकर निपुणता के साथ राज्य शासन करते हुए भी विद्यानुरागी और कवित्व प्रिय थे। उनके गुण गौरव विस्तार में अनेक कवियों में काव्यों की रचना की। ऐसे ही महापुरुष 11वीं शताब्दी में धारा नरेश भोजराज थे। उनके विद्यानुराग और कवित्व प्रियता को आधार बनाकर 16वीं शताब्दी में, कवि बल्लालदेव ने भोज प्रबंध नाम काव्य की रचना की। भोजराज बड़े ही प्रतापी दानशील राजा थे। उनके दरवार में बहुत बड़े-बड़े कवि कविता करने आते थे। और राजा भोज उनकी कविता से प्रसन्न होकर उन्हें सहस्रों सिक्के दान में दे देते थे।

एक बार कुछ विद्वान श्रुति-स्मृति में पारंगत राजा भोजराज के कवित्वप्रियता को सुनकर उनके नगर के बाहर कहीं बैठकर कविता करने लगे। उनमें से एक ने कविता का एक चरण पढ़कर कहा “भोजनं देहि राजेन्द्र”। दूसरे ने ‘धृतसूपसमन्वितम्’ ऐसा कहकर बैठे रहे परन्तु इसका उत्तरार्द्ध नहीं पढ़ पाए। इसके उत्तरार्द्ध की खोज करते हुए वे कालिदास के पास आए। और कालिदास को देखकर कहने लगे हम सभी वेदों के ज्ञाता है पर भोजराज हमें कुछ नहीं देते। अतः हमें इसका उत्तरार्द्ध बताए। उनकी बातों को सुनकर कालिदास ने कहा ‘माहिषं च शरच्चंद्र चन्द्रिकाधवलं दधि’ यह सुनकर वे पुनः राजदरबार गये और सभी ने मिलकर कविता पढ़ी। राजा भोज ने सुनकर कहा कि उत्तरार्द्ध कालिदास की रचना है और इस उत्तरार्द्ध के लिए ही एक-एक शब्द के लिए एक-एक लाख रुपए दिये।

इसी प्रकार एक बार राजा भोजराज के नगर में निवास करने की इच्छा से द्रविड़ देश के विद्वानों के लिए राजा ने मंत्री से उनके लिए आवास की व्यवस्था करने को कहा। मंत्री पूरे नगर में घूम आए। पर उन्हें कोई ऐसा मूर्ख व्यक्ति नहीं दिखा जो धन लेकर अपना घर उन पंण्डित को देने के लिए तैयार होता। घूमते-घूमते एक जुलाहे के घर जाकर उसे मूर्ख कहा और घर से निकाल दिया। जुलाहा राजदरबार में जाकर राजा से कहा आपके मंत्री ने मुझे मुर्ख कहकर घर से निकाल दिया। आप ही बताइए कि मैं मूर्ख हूँ या पण्डित। मैं कविता करता हूँ। लेकिन सुन्दर नहीं। परंतु यत्नपूर्वक करता हूँ तो सुंदर करता हूँ। हे महाराज धागों से कपड़े को बुनना ही मेरा व्यवसाय है। मैं रात-दिन परिश्रम कर कमाता हूँ काव्य रचना में महाकवि के समान मेरा अभ्यास नहीं है फिर भी निवेदन करता हूँ। हे राजाओं के मुकटों की मणियों से मुशोभित पैरों की चौकी वाले, हे साहस के चिह्न वाले, मैं कविता करता हूँ, बुनता , हूँ और जीवन निर्वाह करता हूँ।

इस प्रकार राजा भोजराज ने कविता सुन कर जुलाहे की प्रशंसा करते हुए कहा-कैसी सुन्दरतापूर्ण योजना है। कविता करता हूँ, बुनता हूँ और जीवन निर्वाह करता हूँ, तुम धन्य हो, और मैं भी अपने को धन्य मानता हूँ, जिसके राज्य में जुलाहे, कुम्हार, लोहार, शिल्पी और श्रमिक सभी सुंदर काव्य रचना करते हैं।

उसके बाद उसकी प्रशंसा करते हुए राजा ने कहा कविता में माधुर्य सुंदर है। लेकिन कवित्व को विचार कर बोलना चाहिए। यह सुन कर जुलाहा क्रोधित होकर कहा – महाराज उत्तर तो अच्छा है। पर बोलूँगा नहीं। विद्वत धर्म से राजधर्म भिन्न होता है। आप तो कालिदास के सिवा किसी को कवि मानते ही नहीं। कौन है आपकी सभा में कालिदास के अतिरिक्त कविता के तत्व को जानने वाला विद्वान। बचपन में बच्चे, काम क्रीड़ा में स्त्री, स्तुति में कवि, युद्धभूमि में योद्धाओं के अहंकार युक्त वचन प्रशंसनीय होता है। लेकिन हे महाराज बहुत मोह से युक्त आपका कौन है, स्मरण करें।

इसके बाद राजा ने जुलाहे को बहुत सारा धन देकर कहा अपने घर जाओ, पण्डितों को रहने की व्यवस्था मंत्री कहीं और कर लेंगे।
इस प्रकार भोजराज ने अपनी दानशीलता और विद्वता का परिचय दिया।

प्रश्न 10.
संस्कृतस्य महत्त्वं वर्णितम्।
उत्तर:
संस्कृत भारतवर्ष की आत्मा मानी जाती रही है। न केवल प्राचीन काल में अपितु आधुनिक युग में भी संस्कृत के विशाल वैभव उसके साहित्य में सन्निहित आध्यात्मिक-सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, धार्मिक, भाषिक, वैज्ञानिक तत्वों की आलोचना करते हुए समालोचक गण मुक्त कंठ से संस्कृत के महान् गौरव का गान करते हैं। विश्व के प्राचीन भाषा-साहित्य में संस्कृत अन्यतम है। यह साहित्य हिमालय से हिन्द महासाग़र पर्यन्त भारत के सभी भागों को एक सूत्र में बाँधता है। सम्प्रति विज्ञान के महान् प्रभाव सभी क्षेत्रों में देखे जाते हैं। वे वैज्ञानिक भी उन विषयों के मूल स्रोत संस्कृत साहित्य में ही पाते हैं। आयुर्वेद, ज्योतिष, शुल्बसूत्रादि वैज्ञानिक विषयों का अध्ययन कर वैज्ञानिक चमत्कृत होते हैं।

संसार में भाषा विज्ञान की परम्परा का प्रारम्भ पाश्चात्य साहित्य शास्त्रियों ने संस्कृत साहित्य के अध्ययन से किया। इस साहित्य में न केवल भारतीयों का अपितु विश्व कल्याण की भावना निहित है। संस्कृत भाषा ने वेद-वेदाङ्गों की रचना की गई उसे प्रकाशमय बना गया। रामायण महाभारत जैसे महाकाव्य लिखे गये। उनके यश का गुणगान किया गया। राजनीति के ज्ञाता उसे बड़े रूचिकर ढंग से पढ़ते हैं। जो भारतवर्ष को प्रकाशमान किए हुए हैं। जहाँ नदी, गीता, गाय और दुर्गा भगवती की पूजा आस्तिकों की भक्ति और मुक्ति देने वाली है। यहाँ राम, कृष्ण और बुद्ध का अवतार हुआ। उस पृथ्वी पर भारत की महिमा और संस्कृत की वृद्धि हो।