Bihar Board Class 12th Hindi Book Solutions
Bihar Board Class 12th Hindi रचना निबंध लेखन
1. भारत के प्रथम राष्ट्रपति : देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद
अपनी सादगी, पवित्रता, सत्यनिष्ठा, योग्यता और विद्वान से भारतीय ऋषि परम्परा को पुनर्जीवित कर देने वाले, देशरत्न के उच्चतम पद से विभूषित राजेन्द्र बाबू का पूरा नाम डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह है। अपनी सादगी और सरलता के कारण किसान जैसा व्यक्तित्व पाकर भी पहले राष्ट्रपति बनने का गौरव पाने वाले इस महान व्यक्ति का जन्म 3 दिसम्बर सन् 1884 ई. के दिन बिहार राज्य के सरना जिले के एक मान्य एवं संभ्रान्त कायस्थ परिवार में हुआ था। पूर्वज तत्कालीन हथुआ राज्य के दीवान रह चुके थे।
उर्दू भाषा में आरम्भिक शिक्षा पाने के बाद उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता आ गए। आरम्भ से अन्त तक प्रथम श्रेणी में हर परीक्षा पास करने के बाद वकालत करने लगे। कुछ ही दिनों में इनकी गणना उच्च श्रेणी के श्रेष्ठतम वकीलों में होने लगी। लेकिन रौलेट एक्ट से आहत होकर इनका स्वाभिमानी मन देश की स्वतंत्रता के लिए तड़प उठा और गाँधी जी द्वारा चलाए गए असहयोग आन्दोलनों में भाग लेकर देशसेवा में जुट गए।
आरम्भ में राजेन्द्र बाबू राष्ट्रीय नेता गोपाल कृष्ण गोखले से, बाद में महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से सर्वाधिक प्रभावित रहे। इन दोनों का प्रभाव इनके जीवन में स्पष्ट दिखाई देता था। इन दोनों ने ही इन्हें महान बनाया। सन् 1905 ई. में पूना में स्थापित ‘सर्वेण्ट्स आफ इण्डिया’ सोसाइटी की तरफ आकर्षित होते हुए भी राजेन्द्र बाबू अपनी अन्त:प्रेरणा से गाँधी जी के चलाए कार्यक्रमों के प्रति सर्वात्मभाव से समर्पित हो गए और फिर आजीवन उन्हीं के बने भी रहे।
राजेन्द्र बाबू विद्वान और विनम्र तो थे ही, अपूर्व सूझ-बूझ वाले एवं संगठन शक्ति से सम्पन्न व्यक्ति भी थे। इस कारण इन्हें जीवनकाल में और स्वतंत्रता संघर्ष काल में भी अधिकतर इसी प्रकार के कार्य सौंपे जाते रहे। अपनी लगन एवं दृढ़ कार्यशक्ति से शीघ्र ही इन्होंने गाँधीजी के प्रिय पात्रों के साथ-साथ शीर्षस्थ राजनेताओं में भी परम विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया था।
आरम्भ में इनका कार्यक्षेत्र अधिकतर बिहार राज्य ही रहा। असहयोग आन्दोलन में सफलतापूर्वक भाग ले कर और शीर्षस्थ पद पाकर ये बिहार के किसानों को उनके उचित अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष करने लगे। बिहार राज्य में नव जागृति लाकर स्वतंत्रता संघर्ष के लिए खड़ा कर देना भी इन्हीं के कुशल एवं निःस्वार्थ नेतृत्व का कार्य था। सन् 1934 में बिहार राज्य में आने वाले भूकम्प के कारण उत्पन्न विनाशलीला के अवसरल पर राजेन्द्र बाबू ने जिस लगन और कुशलता से पीड़ित जनता को राहत पहुँचाने का कार्य किया, वह एक अमर घटना तो बन ही गया, उसने सारे बिहार राज्य को इनका अनुयायी भी बना दिया।
अपने व्यक्तित्व में पूर्ण, कई बातों में स्वतंत्र विचार रखते हुए भी राजेन्द्र बाबू गाँधीजी का विरोध कभी भूलकर भी नहीं किया करते थे। हर आदेश का पालन और योजना का समर्थन नतमस्तक होकर किया करते थे इसका प्रमाण उस समय भी मिला, जब हिन्दी भाषा का कट्टर अनुयायी एवं समर्थन होते हुए भी इन्होंने गाँधीजी के चलाए हिन्दोस्तानी भाषा के आन्दोलन को चुपचाप स्वीकार कर लिया।
राष्ट्रपति भवन के वैभवपूर्ण वातावरण में रहते हुए भी इन्होंने अपनी सादगी और पवित्रता को कभी भंग नहीं होने दिया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित करने जैसे कुछ प्रश्नों पर इनका प्रधानमंत्री से मतभेद भी बना रहा, पर इन्होंने अपने पद की गरिमा को कभी भंग नहीं होने दिया। दूसरी बार का राष्ट्रपति पद का समय समाप्त होने के बाद ये बिहार के सदाकत आश्रम में जाकर निवास करने लगे। सन् 1962 में उत्तर-पूर्वी सीमांचल पर चीनी आक्रमण का सामना करने का उद्घोष करने के बाद शारीरिक एवं मानसिक अस्वस्थता में रहते हुए इनका स्वर्गवास हो गया। इन्हें मरणोपरान्त ‘भारत रत्न’ के पद से विभूषित किया गया। भारतीय आत्मा इनके सामने हमेशा नतमस्तक रहेगी।
2. यदि मैं प्रधानमंत्री होता
यदि मैं प्रधानमंत्री होता-अरे ! यह मैं क्या सोचने लगा। प्रधानमंत्री बनना कोई बच्चों का काम है क्या? प्रधानमंत्री कितना भारी शब्द है यह, जिसे सुनते ही एक ओर तो कई तरह के दायित्वों का अहसास होता है जबकि दूसरी ओर स्वयं ही एक अनजाने गर्व से उठ कर तनने भी लगता है। भारत जैसे महान लोकतंत्र का प्रधानमंत्री बनना वास्तव में बहुत बड़े गर्व और गौरव की बात है, इस तथ्य से भला कौन इन्कार कर सकता है। प्रधानमंत्री बनने के लिए लम्बे और व्यापक जीवन अनुभवों का, राजनीतिक कार्यों और गतिविधियों का प्रत्यक्ष अनुभव रहना बहुत ही आवश्यक हुआ करता है।
प्रधानमंत्री बनने के लिए जनकार्यों और सेवाओं की पृष्ठभूमि में रहना भी जरूरी है और इस प्रकार के व्यक्ति का अपना जीवन भी त्याग-तपस्या का आदर्श उदाहरण होना चाहिए। एक और महत्वपूर्ण बात भी जरूरी है। वह यह कि आज के युग में छोटे-बड़े प्रत्येक देश और उसके प्रधानमंत्री को कई तरह के राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय दबावों, कूटनीतियों के प्रहारों को झेलते हुए कार्य करना पड़ता है। अतः प्रधानमंत्री बनने के लिए व्यक्ति को चुस्त-चालाक, कूटनीति कुशल और दबाव एवं प्रहार कर सकने योग्य वाला होना भी बहुत। आवश्यक माना जाता है ! निश्चय ही मेरे पास ये सारी योग्यताएँ और कलायें नहीं हैं, फिर भी अक्सर मेरे मन-मस्तिष्क को यह बात मथती रहा करती है, रह-रहकर गंज-गूंज उठा करती है कि यदि मैं प्रधानमंत्री होता, तो?
यदि मैं प्रधानमंत्री होता तो,? सबसे पहले मेरा कर्तव्य स्वतंत्र भारत के नागरिकों के लिए विशेषकर युवा पीढ़ी के लिए, पूरी सख्ती और कर्मठता से काम लेकर एक राष्ट्रीय चरित्र निर्माण करने वाली शिक्षा एवं उपायों पर बल देता। छोटी-बड़ी विकास-योजनाएँ आरम्भ करने से पहले यदि हमारे अभी तक के प्रधानमंत्री राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण की ओर ध्यान देते और उसके बाद विकास-योजनाएँ चालू करते, तो वास्तव में उनका लाभ आम आदमी तक भी पहुँच पाता। आज हमारी योजनायें एवं सभी सरकारी-अर्द्धसरकारी विभाग आकण्ठ निठल्लेपन और भ्रष्टाचार में डूब कर रह गई हैं, एक राष्ट्रीय चरित्र होने पर इस प्रकार की सम्भावनाएँ स्वतः ही समाप्त हो जाती। इस कारण यदि मैं प्रधानमंत्री होता तो प्राथमिक आधार पर यही कार्य करता।
आज स्वतंत्र भारत में जो संविधान लागू है, उसमें बुनियादी कमी यह है कि वह देश का अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, अनुसूचित जाति, जनजाति आदि के खानों में बाँटने वाला तो है, उसने। हरेक के लिए कानून विधान भी अलग-अलग बना रखे हैं जबकि नारा समता और समानता का लगाया जाता है। यदि मैं प्रधानमंत्री होता तो संविधान में रह गई इस तरह की कमियों को दूर करवा कर सभी के लिए एक शब्द ‘भारतीय’ और संविधान कानून लागू करवाता ताकि विलगता की सूचक सारी बातें स्वतः ही खत्म हो जाती भारत केवल भारतीयों का रह जाए न कि अल्पसंख्याक, बहुसंख्यक आदि का।।
3. गंगा प्रदूषण गंगा, भारतीय जन-मानस, बल्कि स्वयं समूची भारतीयता की आस्था का जीवन्त प्रतीक है, मात्र एक नदी नहीं। हिमालय की गोद में पहाड़ी घाटियों से नीचे उतर कल्लोल करते हुए मैदानों की राहों पर प्रवाहित होने वाली गंगा पवित्र तो है ही, वह मोक्षदायिनी के रूप में भारतीय भावनाओं में समाई है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति का विकास गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों विशेषकर गंगा तट के आस-पास ही हुआ है। गंगा जल वर्षों तक बोतलों, डिब्बों आदि में बन्द रहने पर भी कभी खराब नहीं होता और न ही उसमें कोई कीड़े लगते हैं। वही भारतीयता की मातृवत् पूज्या गंगा आज प्रदूषित होकर गन्दे नाले जैसी बनती जा रही है, यह भी एक वैज्ञानिक परीक्षणगत एवं अनुभवसिद्ध तथ्य है।
पतित पावनी गंगा के जल के प्रदूषित होने के बुनियादी कारण क्या हैं, उन पर कई बार विचार एवं दृष्टिपात किया जा चुका है। एक कारण तो यह है कि भारत के प्रायः सभी प्रमुख नगर गंगा तट पर और उसके आस-पास बसे हुए हैं। उन नगरों में आबादी का दबाव बहुत बढ़ गया है। वहाँ से मल-मूत्र और गन्दे पानी की निकासी की कोई सुचारू व्यवस्था न होने के कारण इधर-उधर बनाए गए छोटे-बड़े सभी गन्दे नालों के माध्यम से बहकर वह गंगा नदी में आ मिलता है। परिणामस्वरूप कभी खराब न होने वाला गंगाजल भी बाकी वातावरण के समान आज बुरी तरह से प्रदूषित होकर रह गया है।
एक दूसरा प्रमुख कारण गंगा-प्रदूषण का यह है कि औद्योगीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति ने भी इसे बहुत प्रश्रय दिया है। हावड़ा, कोलकाता, बनारस, कानपुर आदि जाने कितने औद्योगिक नगर गंगा तट पर ही बसे हैं। यहाँ लगे छोटे-बड़े कारखानों से बहने वाला रासायनिक दृष्टि से प्रदूषित पानी, कचरा आदि भी गन्दे नालों तथा अन्य मार्गों से आकर गंगा में ही विसर्जित होता है। इस प्रकार के तत्त्वों ने जैसे बाकी वातावरण को प्रदूषित कर रखा है, वैसे गंगाजल को भी बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है।
वैज्ञानिकों, का यह भी मानना है कि सदियों से आध्यात्मिक भावनाओं से अनुप्रमाणित होकर गंगा की धारा में मृतकों की अस्थियाँ एवं अवशिष्ट राख तो बहाई ही जा रही है, अनेक लावारिस और बच्चों की लाशें भी बहा दी जाती हैं। बाढ़ आदि के समय मरे पशु भी धारा में आ मिलते हैं। इन सबने भी जल-प्रदूषण की स्थितियाँ पैदा कर दी हैं। गंगा के निकास स्थल और आस-पास के वनों-वृक्षों का निरन्तर कटाव, वनस्पतियों औषधीय तत्वों का विनाश भी प्रदूषण का एक बहुत बड़ा कारण है। इसमें सन्देह नहीं कि ऊपर जितने भी कारण बताए गए हैं, गंगा-जल को प्रदूषित करने में न्यूनाधिक उन सभी का हाथ अवश्य है।
4. बाल-मजदूर समस्या
बाल-मन सामान्यतया अपने घर-परिवार तथा आस-पास की स्थितियों से अपरिचित रहा करता है। स्वच्छन्द रूप से खाना-पीना और खेलना ही वह जानता एवं इन्हीं बातों का प्रायः अर्थ भी समझा करता है। कुछ और बड़ा होने पर तख्ती, स्लेट और प्रारम्भिक पाठमाला लेकर पढ़ना-लिखना सीखना शुरू कर देता है। लेकिन आज परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बन गईं और बन रही हैं कि उपर्युक्त कार्यों का अधिकार रखने वाले बालकों के हाथ-पैर दिन-रात मेहनत मजदूरी के लिए विवश होकर धूल-धूसरित तो हो ही चुके हैं, अक्सर कठोर एवं छलनी भी हो चुके होते हैं।
चेहरों पर बालसुलभ मुस्कान के स्थान पर अवसाद की गहरी रेखाएँ स्थायी डेरा डाल चुकी होती हैं। फूल की तरह ताजा गन्ध से महकते रहने योग्य फेफड़ों में धूल, धुआँ, भरकर उसे अस्वस्थ एवं दुर्गन्धित कर चुके होते हैं। गरीबीजन्य बाल मजदूरी करने की विवश्ता ही इसका एकमात्र कारण मानी जाती हैं ऐसे बाल मजदूर कई बार तो डर, भय, बलात कार्य करने जैसी विवशता के बोझ तले दबे-घुटे प्रतीत होते हैं और कई बार बड़े बूढों की तरह दायित्वबोध से दबे हुए भी। कारण कुछ भी हो, बाल मजदूरी न केवल किसी एक स्वतंत्र राष्ट्र बल्कि समूची मानवता के माथे पर कलंक है।
छोटे-छोटे बालक मजदूरी करते हुए घरों, ढाबों, चायघरों, छोटे होटलों आदि में तो अक्सर मिल ही जायेंगे, छोटी-बड़ी फैक्टरियों के अन्दर भी उन्हें मजदूरी का बोझ ढोते हुए देखा जा सकता है। काश्मीर का कालीन-उद्योग, दक्षिण भारत का माचिस एवं पटाखा उद्योग, महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल का बीड़ी उद्योग तो पूरी तरह से बाल-मजदूरों के श्रम पर ही टिका हुआ है। इन स्थानों पर सुकुमार बच्चों से बारह-चौदह घण्टे काम लिया जाता है, पर बदले में वेतन बहुत कम दिया जाता है, अन्य किसी प्रकार की कोई सुविधा नहीं दी जाती। यहाँ तक कि इनके स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रखा जाता।
इतना ही नहीं, यदि ये बीमार पड़ जाये तब भी इन्हें छुट्टी नहीं दी जाती बल्कि काम करते रहना पड़ता है। यदि छुट्टी कर लेते हैं तो उस दिन का वेतन काट लिया जाता है। कई मालिक तो छुट्टी करने पर दुगुना वेतन काट लेते हैं। ढाबों, चायघरों आदि में या फिर हलवाइयों की दुकानों पर काम कर रहे बच्चों की दशा तो और भी दयनीय होती है। कई बार तो उन्हें बचा-खुचा जूठन ही खाने-पीने को बाध्य होना पड़ता है। बेचारे वहीं बैंचों पर या भट्टियों की बुझती आग के पास चौबीस घण्टों में दो-चार घण्टे सोकर गमी-सर्दी काट लेते हैं।
बात-बात पर गालियाँ तो सुननी ही पड़ा करती है, मालिकों के लात-घूसे भी सहने पड़ते हैं। यदि किसी से काँच का गिलास या कप-प्लेट टूट जाता है तो उस समय मार-पीट और गाली-गलौज के साथ जुर्माना तक सहन करना पड़ता है। यही मालिक अपनी गलती से कोई वस्तु इधर-उधर रख देता और न मिलने पर इन बाल मजदूरों पर चोरी करने का इल्जाम लगा दिया जाता है। इस प्रकार बाल मजदूरों का जीवन बड़ा ही दयनीय एवं यातनापूर्ण होता है।
5. शिक्षक दिवस : 5 सितम्बर
समाज को सही दिशा देने में शिक्षक की अहम् भूमिका होती है। वह देश के भावी नागरिकों अर्थात् बच्चों के व्यक्तित्व संवारने के साथ-साथ उन्हें शिक्षित भी करता है। इसलिए शिक्षकों द्वारा किये गये श्रेष्ठ कार्यों का मूल्यांकन कर उन्हें सम्मानित करने का दिन ही शिक्षक दिवस कहलाता है। हालांकि डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् जो कि 1962 से 1967 तक भारत के राष्ट्रपति भी रहे। उनके जन्म दिवस के अवसर पर ही शिक्षक दिवस मनाया जाता है। वे संस्कृतज्ञ, दार्शनिक होने के साथ-साथ शिक्षा शास्त्री भी थे। राष्ट्रपति बनने से पूर्व उनका शिक्षा क्षेत्र ही सम्बद्ध था।
1920 से 1921 तक वे विश्वविख्यात काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद पर रहे। राष्ट्रपति बनने के बाद जब उनका जन्म दिवस सार्वजनिक रूप से आयोजित करना चाहा तो उन्होंने जीवन का अधिकतर समय शिक्षक रहने के नाते इस दिवस को शिक्षकों का सम्मान करने हेतु शिक्षक दिवस मनाने की बात कही। उस समय से प्रतिवर्ष यह दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।
शिक्षकों द्वारा किये गये श्रेष्ठ कार्यों कर मूल्यांकन कर उन्हें सम्मानित करने का भी यही दिन है। इस दिन स्कूलों कालेजों में शिक्षक का कार्य छात्र खुद ही संभालते हैं। इस दिन राज्य सरकारों द्वारा अपने स्तर पर शिक्षण के प्रति समर्पित और छात्र-छात्राओं के प्रति अनुराग रखने वाले शिक्षकों को सम्मानित किया जाता है। शिक्षक राष्ट्रनिर्माण में मददगार साबित होते हैं वहीं वे राष्ट्रीय संस्कृत के संरक्षक भी हैं।
वे बालकों में सुसंस्कार तो डालते ही हैं उनके अज़ानता रूपी अंधकार को दूर कर उन्हें देश का श्रेष्ठ नागरिक बनाने का दायित्व भी वहन करते हैं। शिक्षक राष्ट्र के बालकों को न केवल साक्षर ही बनाते हैं बल्कि अपने उपदेश द्वारा उनके ज्ञान का तीसरा चक्षु भी खोलते हैं। वे बालकों में हित-अहित, भला-बुरा सोचने की शक्ति उत्पन्न करते हैं। इस तरह वे राष्ट्र के समग्र विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
शिक्षक उस दीपक के समान हैं जो अपनी ज्ञान ज्योति से बालकों को प्रकाशमान करते हैं। महर्षि अरविन्द ने अपनी एक पुस्तक जिसका शीर्षक ‘महर्षि अरविन्द के विचार’ में शिक्षक के संबंध में लिखा है अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के माली होते हैं वे संस्कार की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उनहें सींच-सींच कर महाप्राण शक्तियाँ बनाते हैं। इटली के एक उपन्यासकार ने शिक्षक के बारे में कहा है कि शिक्षक उस मोमबत्ती के समान है जो स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देती है। संत कबीर ने तो गुरु को ईश्वर से भी बड़ा माना है। उन्होंने गुरु को ईश्वर से बड़ा मानते हुए कहा है कि
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो मिलाय॥
शिक्षक को आदर देना समाज और राष्ट्र में उनकी कीर्ति को फैलाना केन्द्र व राज्य सरकारों का कर्त्तव्य ही नहीं दायित्व भी है। इस दायित्व को पूरा करने का शिक्षक दिवस एक अच्छा दिन है।
6. स्वतंत्रता दिवस : 15 अगस्त
स्वतंत्रता दिवस को देश की स्वतन्त्रता का जन्म दिवस भी कह सकते हैं। क्योंकि इसी दिन देश को गुलामी से मुक्ति मिली थी। 1947 से पूर्व लगभग दो सौ वर्षों तक अंग्रेजों ने भारत में . राज्य किया। जबकि भारत आदि काल से हिन्दू भूमि रहा है। अंग्रेजों से पूर्व करीब बारह सौ ‘वर्षों तक मुगलों ने भारत पर शासन किया। इसके बाद कूटनीति में माहिर अंग्रेजों ने विलासी, भोगी और सत्ता पाने के लिए पारिवारिक षड़यंत्रों में उलझे रहे। मुगलों को खदेड़ कर अपना शासन भारत में स्थापित किया। इनके काल में वैज्ञानिक उन्नति से देश प्रगति पर अग्रसर हुआ।
उन्होंने अपनी कूटनीति के चलते भारत से श्रीलंका और बर्मा को अलग उन्हें स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित किया। बंगाल को भी दो भागों में विभाजित करने के प्रयास में थे। पर जनमत विरोध के कारण इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। इसी दिन दिल्ली के लालकिले पर पहली बार यूनियन जैक के स्थान पर सत्य और अहिंसा का प्रतीक तिरंगा झंडा लहराया गया था।
यह राष्ट्रीय पर्व प्रतिवर्ष प्रत्येक नगर में बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। विद्यालयों में छात्र अपने इस ऐतिहासिक उत्सव को बड़े उल्लास और उत्साह के साथ आयोजित करते हैं। हमारे स्कूल में भी अन्य वर्षों की भाँति इस वर्ष यह उत्सव बहुत ही उत्साह के साथ मनाया गया। स्कूल के सभी छात्र स्कूल के प्रांगण में एकत्रित हुए। यहाँ अध्यापकों ने उपस्थिति ली, जिससे यह मालूम हो गया कि कौन-कौन नहीं आया है। हालांकि कार्यक्रम शुरू होने के बाद भी विद्यार्थियों का आना जारी था ! उपस्थिति पूर्ण होने के बाद मंच का संचालन कर रहे शिक्षक ने उन छात्रों से आगे आने को कहा जिन्हें कार्यक्रम के लिए चुना गया था। शिक्षक की इस उद्घोषणा के बाद कार्यक्रम के लिए चयनित छात्र अन्य छात्रों से अलग हो चुके थे।
इसके बाद प्रधानाचार्य ने प्रभात फेरी में चलने के लिए विद्यार्थियों को संकेत दिया। स्कूल के छात्र तीन-तीन की पंक्ति बनाकर सड़क पर चलने लगे। सबसे आगे चल रहे विद्यार्थी के हाथ में तिरंगा झण्डा था, उसके पीछे विद्यार्थी तीन-तीन की पंक्तियों में चल रहे थे। सभी छात्र देशभक्ति से ओत-प्रोत गीत गाते हुए जा रहे थे। बीच-बीच में अचानक वे ‘भारत माता की जय’, हिन्दुस्तान जिन्दाबाद-जिन्दाबाद के नारे बुलन्द आवाज में लगा रहे थे। इस प्रकार प्रभात फेरी नगर के प्रमुख चौराहों से होते हुए जिलाधीश के नारे बुलन्द आवाज में लगा रहे थे। इस प्रकार प्रभात फेरी नगर के प्रमुख चौराहों से होते हुए जिलाधीश के आवास के सामने से निकली। अन्त में प्रभात फेरी स्कूल परिसर में आकर रुकी। जहाँ ध्वजारोहण की तैयारियां पूरी हो चुकी थी।
ठीक आठ बजे स्कूल के प्रधानाचार्य के ध्वजारोहण किया और उपस्थित सभी छात्रों ने तिरंगे को सलामी दी। इस अवसर पर राज्य के शिक्षामन्त्री तथा शिक्षा अधिकारी द्वारा भेजे गये संदेश पढ़कर सुनाए गए। इसके बाद शुरू हुए खेल व सांस्कृतिक कार्यक्रम। सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत जलियाँवाला बाग पर आधारित एक नाटक का मंचन किया गया। इसके अलावा कुछ छात्रों ने देश भक्ति से ओत-प्रोत अपनी रचनाएँ सुनाई। कार्यक्रम के अंत में विभिन्न क्षेत्रों में अव्वल रहे छात्रों को क्षेत्र के प्रमुख समाजसेवी व स्वतंत्रता सेनानी श्री जसवंत सिंह ने पुरस्कार देकर सम्मानित किया, और छात्रों के मध्य मिष्ठान वितरण हुआ।
राष्ट्रीय स्तर पर इस पर्व का मुख्य आयोजन दिल्ली के लाल किले में होता है। इस समारोह को देखने के लिए भारी जनसमूह उमड़ पड़ता है। लाल किला मैदान व सड़कें जनता से खचाखच भरी होती हैं। यहाँ प्रधानमंत्री के आगमन के साथ ही समारोह का शुभारम्भ हो जाता है। सेना के तीनों अंगों जल, थल और नौसेना की टुकड़ियाँ तथा एन.सी.सी. के कैडिट सलामी देकर प्रधानमंत्री का स्वागत करते हैं। प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर पर बने मंच पर पहुँच कर जनता का अभिनन्दन स्वीकार करते हैं और राष्ट्रीय ध्वज लहराते हैं।
ध्वजारोहण के समय राष्ट्र ध्वज को सेना द्वारा इक्कत्तीस तोपों की सलामी दी जाती है। इसके बाद प्रधानमंत्री राष्ट्र की जनता को बधाई देने के बाद देश की भावी योजनाओं पर प्रकाश डालते हैं। साथ ही पिछले वर्ष पन्द्रह अगस्त से इस वर्ष तक की काल में घटित प्रमुख घटनाओं पर चर्चा करते हैं। भाषण के अंत में तीन बार वे जय हिन्द का घोष करते हैं। जिसे वहाँ उपस्थित जनसमूह बुलन्द आवाज में दोहराता है। लाल किले पर इस अवसर पर रोशनी की जाती है।
7. भारतीय किसान
त्याग और तपस्या का दूसरा नाम है किसान। वह जीवन भर मिट्टी से सोना उत्पन्न करने की तपस्या करता रहता है। तपती धूप, कड़ाके की ठंड तथा मूसलाधार बारिश भी उसकी इस साधना को तोड़ नहीं पाते। हमारे देश की लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी आज भी गांवों में निवास करती है। जिनका मुख्य व्यवसाय कृषि है। एक कहावत है कि भारत की आत्मा किसान है जो गाँवों में निवास करते हैं। किसान हमें खाद्यान्न देने के अलावा भारतीय संस्कृति और सभ्यता को भी सहेज कर रखे हुए हैं। यही कारण है कि शहरों की अपेक्षा गाँवों में भारतीय संस्कृति और सभ्यता अधिक देखने को मिलती है। किसान की कृषि ही शक्ति है और यही उसकी भक्ति है।
वर्तमान संदर्भ में हमारे देश में किसान आधुनिक विष्णु है वह देशभर को अन्न, फल, साग, सब्जी आदि दे रहा है लेकिन बदले में उसे उसका पारिश्रमिक तक नहीं मिल पा रहा है। प्राचीन काल से लेकर अब तक किसान का जीवन अभावों में ही गुजरा है। किसान मेहनती होने के साथ-साथ सादा जीवन व्यतीत करने वाला होता है। समय अभाव के कारण उसकी आवश्यकतायें भी बहुत सीमित होती हैं। उसकी सबसे बड़ी आवश्यकता पानी है। यदि समय पर वर्षा नहीं होती है तो किसान उदास हो जाता है। इनकी दिनचर्या रोजना लगभग एक सी ही रहती है। किसान ब्रह्ममुहूर्त में सजग प्रहरी की भाँति जाग उठता है। वह घर में नहीं सोकर वहाँ सोता है जहाँ उसका पशुधन होता है। उठते ही पशुधन की सेवा, इसके पश्चात् अपनी कर्मभूमि खेत की ओर उसके पैर खुद-ब-खुद उठ जाता है। उसका स्नान, भोजन तथा विश्राम आदि जो कुछ भी होता है वह एकान्त वनस्थली में होता है।
वह दिनभर कठोर परिश्रम करता है। स्नान भोजन आदि अक्सर वह खेतों पर ही करता है। साँझ ढलते समय वह कंधे पर हल रख बैलों को हाँकता हुआ घर लौटता है। कर्मभूमि में काम करने के दौरान किसान चिलचिलाती धूप में तनिक भी विचलित नहीं होता। इसी तरह मूसलाधार बारिश या फिर कड़ाके की ठंड की परवाह किये बगैर किसान अपने कृषि कार्य में जुटा रहता है।
किसान के जीवन में विश्राम के लिए कोई जगह नहीं है। निरंतर अपने कार्य में लगा रहता है। कैसी भी बाधा उसे अपने कर्तव्यों से डिगा नहीं सकती। अभाव का जीवन व्यतीत करने के बावजूद वह संतोषी प्रवृत्ति का होता है। इतना सब कुछ करने के बाद भी वह अपने जीवन की आवश्यकतायें पूरी नहीं कर पाता। अभाव में उत्पन्न होने वाला किसान अभाव में जीता है और अभाव में इस संसार से विदा ले लेता है। अशिक्षा, अंधविश्वास तथा समाज में व्याप्त कुरीतियाँ उसके साथी हैं। सरकारी कर्मचारी, बड़े जमींदार, बिचौलिया तथा व्यापारी उसके दुश्मन हैं। जो जीवन भर उसका शोषण करते रहते हैं।
आज से पैंतीस वर्ष पहले के किसान और आज के किसान में बहुत अंतर आया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात किसान के चेहरे पर कुछ खुशी देखने को मिली है। अब कभी-कभी उसके मलिन-मुख पर भी ताजगी दिखाई देने लगती है। जमीदारों के शोषण से तो उसे मुक्ति मिल ही चुकी है परन्तु फिर भी वह आज भी पूर्ण रूप से सुखी नहीं है। आज भी 20 या 25 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जिनके पास दो समय का भोजन नहीं है। शरीर ढकने के लिए कपड़े नहीं हैं। टूटे-फूटे मकान और टूटी हुई झोपड़ियाँ आज भी उनके महल बने हुए हैं।
हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से किसान के जीवन में कुछ खुशियाँ लौटी हैं। सरकार ने ही किसानों की ओर ध्यान देना शुरू किया है। उनके अभावों को कम करने के प्रयास में कई योजनाएँ सरकार द्वारा चलाई जा रही हैं। किसानों को समय-समय पर गाँवों में ही कार्यशाला आयोजित कर कृषि विशेषज्ञों द्वारा कृषि क्षेत्र में हुए नये अनुसंधानों की जानकारी दी जा रही है। इसके अलावा उन्हें रियायती दर पर उच्च स्तर के बीज, आधुनिक कृषि यंत्र, खाद आदि उपलब्ध कराये जा रहे हैं। उनकी आर्थिक स्थिति सुधारने व व्यवसायिक खेती करने के लिए सरकार की ओर से बहुत कम ब्याज दर पर ऋण मुहैया कराया जा रहा है। खेतों में सिंचाई के लिए नहरों व नलकूपों का निर्माण कराया जा रहा है। उन्हें शिक्षित करने के लिए गाँवों में रात्रिकालीन स्कूल खोले जा रहे हैं। इन सब कारणों के चलते किसान के जीवन स्तर में काफी सुधार आया है। उसकी आर्थिक स्थिति भी काफी हद तक सुदृढ़ हुई है।
8. होली-रंग और उमंग का त्योहार
त्योहार जीवन की एकरसता को तोड़ने और उत्सव के द्वारा नई रचनात्मक स्फूर्ति हासिल करने के निमित्त हुआ करते हैं। संयोग से मेल-मिलाप का अनूठा त्योहार होने के कारण होली में यह स्फूर्ति हासिल करने और साझेपन की भावना को विस्तार देने के अवसर ज्यादा हैं। देश में मनाये जाने वाले धार्मिक व सामाजिक त्योहारों के पीछे कोई न कोई घटना अवश्य जुड़ी हुई है। शायद ही कोई ऐसी महत्वपूर्ण तिथि हो, जो किसी न किसी त्योहार या पर्व से संबंधित न हो।
दशहरा, रक्षाबन्धन, दीपावली, रामनवमी, वैशाखी, बसंत पंचमी, मकर संक्रांति, बुद्ध पूर्णिमा आदि बड़े धार्मिक त्योहार हैं। इनके अलावा कई क्षेत्रीय त्योहार भी हैं। भारतीय तीज त्योहार साझा संस्कृति के सबसे बड़े प्रतीक रहे हैं। रंगों का त्योहार होली धार्मिक त्योहार होने के साथ-साथ मनोरंजन का उत्सव भी है। यह त्योहार अपने आप में उल्लास, उमंग तथा उत्साह लिए होता है। इसे मेल व एकता का पर्व भी कहा जाता है।
हंसी ठिठोली के प्रतीक होली का त्योहार रंगों का त्योहार कहलाता है। इस त्योहार में लोग पुराने बैरभाव त्याग एक दूसरे को गुलाल लगा बधाई देते हैं और गले मिलते हैं। इसके पहले दिन पूर्णिमा को होलिका दहन और दूसरे दिन के पर्व को धुलेंडी कहा जाता है। होलिका दहन के दिन गली-मौहल्लों में लकड़ी के ढेर लगा होलिका बनाई जाती है। शाम के समय महिलायें-युवतियाँ उसका पूजन करती हैं। इस अवसर पर महिलाएँ शृंगार आदि कर सजधज कर आती हैं। बृज क्षेत्र में इस त्योहार का रंग करीब एक पखवाड़े पूर्व चढ़ना शुरू हो जाता है।
होली भारत का एक ऐसा पर्व है जिसे देश के सभी निवासी सहर्ष मनाते हैं। हमारे तीज त्योहार हमेशा साझा संस्कृति के सबसे बड़े प्रतीक रहे है।। यह साझापन होली में हमेशा दिखता आया है। मुगल बादशाहों की होली की महफिलें इतिहास में दर्ज होने के साथ यह हकीकत भी बयाँ करती हैं कि रंगों के इस अनूठे जश्न में हिन्दुओं के साथ मुसलमान भी बढ़-चढ़कर शामिल होते हैं। मीर, जफर और नजीर की शायरी में होली की जिस धूम का वर्णन है, वह दरअसल लोक परंपरा और सामाजिक बहुलता का ही रंग है। होली के पीछे एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है।
इस संबंध में कहा जाता है कि दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने अपनी प्रजा को भगवान का नाम न लेने का आदेश दे रखा था। किन्तु उसके पुत्र प्रहलाद ने अपने पिता के इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया। उसके पिता द्वारा बार-बार समझाने पर भी जब वह नहीं माना तो दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने उसे मारने के अनेक प्रयास किए किन्तु उसका वह बाल भी बांका न कर सका।
प्रहलाद जनता में काफी लोकप्रिय भी था। इसलिए दैत्यराज हिरण्यकश्यप को यह डर था कि अगर उसने स्वयं प्रत्यक्ष रूप से प्रहलाद का वध किया तो जनता उससे नाराज हो जाएगी। इसलिए वह प्रह्लाद को इस तरह मारना चाहता था कि उसकी मृत्यु एक दुर्घटना जैसी लगे। ‘ दैत्यराज हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में जलेगी नहीं। मान्यता है कि होलिका नित्य प्रति कुछ समय के लिए अग्नि पर बैठती थी और अग्नि का पान करती थी। हिरण्यकश्यप ने होलिका की मदद से प्रहलाद को मारने की ठानी।
उसने योजना बनाई कि होलिका प्रह्लाद को लेकर आग में बैठ जाए तो प्रह्लाद मारा जाएगा और होलिका वरदान के कारण बच जाएगी। उसने अपनी उस योजना से होलिका को अवगत कराया। पहले तो होलिका ने इसका विरोध किया लेकिन बाद में दबाव के कारण उसे हिरण्यकश्यप की बात माननी पड़ी।
योजना के अनुसार होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर लकड़ियों के ढेर पर बैठ गई और लकड़ियों में आग लगा दी गई। प्रभु की कृपा से वरदान अभिशाप बन गया। होलिका जल गई, मगर प्रहलाद को आँच तक न पहुँची। तब से लेकर हिन्दू होली के एक दिन पहले होलिका जलाते हैं। इस त्यौहार को ऋतुओं से संबंधित भी बताया जाता है। इस अवसर पर किसानों द्वारा अपने खेतों में उगाई फसलें पककर तैयार हो जाती हैं। जिसे देखकर वे झूम उठते हैं। खेतों में खड़ी पकी फसल की बालियों को भूनकर उनके दाने मित्रों व सगे-संबंधियों में बाँटते हैं।
होलिका दहन के अगले दिन धुलेंडी होती है। इस दिन सुबह आठ बजे के बाद से गली-गली में बच्चे एक-दूसरे पर रंग व पानी डाल होली की शुरूआत करते हैं। इसके बाद तो धीरे-धीरे बड़ों में भी होली का रंग चढ़ाना शुष्क हो जाता है और शुरू हो जाता है होली का हुड़दंग। अधेड़ भी इस अवसर पर उत्साहित हो उठते हैं। दस बजते-बजते युवक-युवतियों की टोलियाँ गली-मौहल्लों से निकल पड़ती हैं। घर-घर जाकर वे एक दूसरे को गुलाल लगा व गले मिल होली की बधाई देते हैं। गलियों व सड़कों से गुजर रही टोलियों पर मकानों की छतों पर खड़े लोगों द्वारा रंग मिले पानी की बाल्टियाँ उड़ेल दी जाती है। बच्चे पिचकारी से रंगीन पानी फेंककर गुब्बारे मारकर होली का आनन्द लेते हैं ! चारों ओर चहल-पहल दिखाई देती है।
जगह-जगह लोग टोलियों में एकत्र हो ढोल की थाप पर होली है भई होली है की तर्ज पर गाने गाते हैं। वृद्ध लोग भी इस त्योहार पर जवान हो उठते हैं। उनके मन में भी उमंग व उत्सव का रंग चढ़ जाता है। वे आपस में बैठ गप-शप व ठिठोली में मस्त हो जाते हैं और ठहाके लगाकर हंसते हैं। अपराहन दो बजे तक रंगों का खेल समाप्त हो जाता है। घर से होली खेलने बाहर निकले लोग घर लौट आते हैं। नहा-धोकर शाम को फिर बाजार में लगे मेला देखने चल पड़ते हैं।
9. विजयादशमी : दशहरा (दुर्गापूजा)
हिन्दुओं द्वारा मनाये जाने वाले त्यौहारों का किसी न किसी रूप में कोई विशेष महत्व जरूर है। इन पर्वो से हमें जीवन में उत्साह के साथ-साथ विशेष आनन्द की प्राप्ति होती है। हम इनसे परस्पर प्रेम औरी भाईचारे की भावना ग्रहण कर अपने जीवन-रथ को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाते हैं। साथ ही इन त्यौहारों से हमें सच्चाई, आदर्श और नैतिकता की शिक्षा भी मिलती है। हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक त्यौहारों में होली, रक्षा-बन्धन, दीपावली तथा जन्माष्टमी की तरह दशहरा (विजयादशमी) भी है।
दशहरा मनाने का कारण यह है कि इस दिन महान पराक्रमी और मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान राम ने महाप्रतापी व अभिमानी लंका नरेश रावण को पराजित ही नहीं किया अपितु उसका अन्त करके उसके राज्य पर भी विजय प्राप्त की थी। इस खुशी और उल्लास में यह त्यौहार प्रति वर्ष आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की दशमी को बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। शक्ति की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा के नव स्वरूपों की नवरात्र पूजन के पश्चात् अश्विन शुक्ल दशमी को इसका समापन कर यह त्यौहार मनाया जाता है। एक अन्य कथा के अनुसार महिषासुर नामक एक राक्षस था। राज्य की जनता उसके अत्याचार से भयभीत थी। दुर्गा माँ ने उसके साथ युद्ध किया। युद्ध के दसवों दिन आखिरकार महिषासुर का माँ दुर्गा ने वध कर डाला। इस खुशी में यह पर्व विजय के रूप में मनाया जाता है। बंगाल के लोग इसीलिए इस पर्व को दुर्गा पूजा के रूप में मनाते हैं।
हिन्दी भाषी क्षेत्रों में नवरात्रों के दौरान भगवान राम पर आधारित लीला के मंचन की प्रथा प्रचलित है। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से रामलीला मंचन का आरम्भ होकर दशमी के दिन रावण वध की लीला मंचित कर विजय पर्व विजयादशमी मनाया जाता है। रावण वध से पहले भगवान राम से संबंधित झांकियाँ निकाली जाती हैं।
बंगाल में यह पर्व दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है। वहाँ के लोगों में यह धारणा है कि इस दिन ही महाशक्ति दुर्गा ने कैलाश पर्वत को प्रस्थान किया था। इसके लिए दुर्गा की याद में लोग दुर्गा पूजा उत्सव मनाते हैं। इसके तहत अश्विन शुक्ल सप्तमी से दशमी (विजयादशमी) तक यह उत्सव मनाया जाता है। इसके लिए एक माह पूर्व से ही तैयारियाँ शुरू कर दी जाती हैं। बंगाल में इन दिनों विवाहित पुत्रियों को माता-पिता द्वारा अपने घर बुलाने की भी प्रथा है। रात भर पूजा, उपासना और अखण्ड पाठ एवं जाप करते है।।
दुर्गा माता की मूर्तियाँ सजा-धजा कर बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ उनकी झांकियां निकाली जाती है। बाद में माँ दुर्गा की मूर्तियों को पवित्र जलाशयों, नदी तथा तालाबों में विसर्जित कर दिया जाता है। दशहरा का त्यौहार मुख्य रूप से राम-रावण युद्ध प्रसंग से ही जुड़ा है। इसको प्रदर्शित करने के लिए प्रतिपदा से दशमी तक रामलीलाएं मंचित की जाती हैं। दशमी के दिन राम रावण के परस्पर युद्ध के प्रसंगों को दिखाया जाता है। इन लीलाओं को देखकर भक्तजनों के अन्दर जहाँ भक्ति भावना उत्पन्न होती है, वहीं दुष्ट रावण के प्रति क्रोध भी उत्पन्न होता है।
इस दिन बाजारों में मेला सा लगा रहता है। शहर ही नहीं छोटे-छोटे गाँवों में इस दिन मेले लगते हैं। किसानों के लिए इस त्यौहार का विशेष महत्व है। वे इस समय खरीफ की फसल काटते हैं। इस दिन सत्य के प्रतीक शस्त्रों का शास्त्रीय विधि से पूजन भी किया जाता है। प्राचीन काल में वर्षाकाल के दौरान युद्ध करना प्रतिबंधित था। विजयादशमी पर शस्त्रागारों से शस्त्र निकालकर उनका शास्त्रीय विधि से पूजन किया जाता था। शस्त्र पूजन के पश्चात् ही शत्रु पर आक्रमण और युद्ध किया जाता था।
10. विज्ञान अभिशाप या वरदान
अंधविश्वास के अंधकार से निकलकर मानव बुद्धि और तर्क की शरण ली। इस तरह विज्ञान का विस्तार होने लगा। विज्ञान धर्म ग्रन्थों या उपदेशकों में कही बातों को तब तक सत्य नहीं मानता जबतक कि वह तर्क द्वारा या आँखों के प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा तर्क सिद्ध न हो जाय। इस प्रकार धर्म और विज्ञान दो विरोधी धाराएँ हो गयी। धर्म की आड़ में जो लोग अपनी स्वार्थ सिद्धि कर रहे थे उनके हितों को विज्ञान से काफी धक्का पहुँचाया।
विज्ञान ने मनुष्य को असीमित शक्तियाँ प्रदान की हैं। विज्ञान के कारण ही समय व स्थान की दूरी बाधायें खत्म हो गयी है और कई गम्भीर रोगों पर विजय प्राप्त करने में सफलता मिली है। आज विश्व विज्ञान रूपी स्तम्भ पर टिका हुआ है। यही कारण है कि वर्तमान युग विज्ञान युग कहलाता है। विज्ञान इस आशा की सफलता व उन्नति का श्रेय विश्व के कुछ देशों को जाता है। इनमें जापान, अमेरिका, जर्मनी, रूस, इंग्लैंड आदि देश शामिल हैं। इन देशों में एक से बढ़कर एक आविष्कार कर विज्ञान को चरम सीमा तक पहुंचा दिया है। विज्ञान से अभिप्राय प्राकृतिक शक्तियों के विशेष ज्ञान से है। विज्ञान से हम किसी भी चीज का ऊपरी अध्ययन न करके उसकी तह तक पहुंचने का प्रयत्न करते हैं।
विज्ञान भौतिक जगत की घटनाओं जैसे सूर्य, चन्द्र, ग्रह नक्षत्र आदि, चिकित्सा जीव, वनस्पति, पशु-पक्षी तथा मनुष्य जगत का सब प्रकार से गंभीर अध्ययन करता है। पृथ्वी के गर्भ में स्थित तरह-तरह की धातुओं, मिट्टी के विभिन्न प्रकार, वातावरण, समुद्र की गहराई व पर्यावरण का अध्ययन भी करता है। विज्ञान में चिन्तन, तर्क, प्रयोग तथा परीक्षण के बिना किसी बात को ठीक नहीं माना जाता। विज्ञान प्रत्यक्ष में विश्वास रखता है परोक्ष में नहीं। आज ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है जिसमें विज्ञान की पहुँच न हो। हमारे जीवन को सुख-सुविधा सम्पन्न बनाने में भी विज्ञान का ही हाथ है। आज विज्ञान द्वारा रेलवे, मोटर, ट्राम, मेट्रो रेल, जलयान, वायुयान, राकेट आदि बनाये जा चुके हैं। जिनके द्वारा स्थान की दूरी में भारी कमी आयी है। यातायात के इन साधनों से मानव को पहुँचने में जहाँ वर्षों या महीनों लग जाते थे, अब उन स्थानों पर विज्ञान के कारण वह कुछ ही दिनों में या घंटों में पहुँच जाता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण चाँद की यात्रा है।
विज्ञान के साधन द्वारा हम केवल दूर से दूर स्थान पर ही नहीं पहुँच सकते अपितु सैकड़ों किलोमीटर की दूरी पर रखी वस्तुओं को देखने में भी हम समर्थ हो गये हैं। आज टेलीविजन द्वारा न केवल हजारों किलोमीटर दूर स्थित किसी नगर में घटी घटना को देख सकते हैं बल्कि उसका आँखों देखा हाल भी सुन सकते हैं। विज्ञान ने सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में कम आश्चर्यजनक चमत्कार नहीं किया है। तार, टेलीफोन, सेलुलर फोन, इंटरनेट, कम्प्यूटर आदि यंत्रों द्वारा समाचारों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर संचार किया जा रहा है। एक समय था जब किसी को संदेश भेजने में हफ्ते से माह भर तक का समय लग जाता था लेकिन आज स्थिति कुछ और है।
विज्ञान द्वारा की गई नई-नई खोजों से जहाँ हमें लाभ हुआ है वहीं कई हानियाँ भी हुई हैं। स्वचालित हथियारों, पनडुब्बी, विमान भेदी तोपें, विषैली गैस, परमाणु बम आदि भी विज्ञान की ही देन है। नवीनतम उपकरणों व यंत्रों का प्रयोग करते समय जरा सी भी भूल मानव जीवन को नष्ट कर सकती है। आकाश में उड़ता विमान थोड़ी सी खराबी आने पर उसमें सवार सैकड़ों यात्रियों को परलोक पहुँचा सकता है। जिनका प्रयोग मानव हित में नहीं है। इसलिए यह कहना बड़ा मुश्किल है कि विज्ञान मानव का शत्रु है या मित्र। हालांकि इन सब चीजों का उपयोग और दुरुपयोग करना मानव के हाथ में ही है। वैज्ञानिक अनुसंधानों तथा यंत्रों का प्रयोग मानव हित में ही किया जाना चाहिए।
11. दूरदर्शन से लाभ व हानियाँ दूरदर्शन मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान प्रसार एवं सामान्य प्रचार का महत्वपूर्ण, सशक्त तथा प्रभावशाली साधन है। इसका मुख्य कारण है कि दूरदर्शन में श्रव्य एवं दृश्य दोनों ही साधनों की विशेषताओं का समावेश है। विज्ञान के सर्वश्रेष्ठतम अविष्कारों में से दूरदर्शन एक है। विश्व के सभी विकसित या विकासशील देशों में दूरदर्शन ने अपनी लोकप्रियता में वृद्धि की है। महाभारत काल में संजय ने दिव्यदृष्टि द्वारा धृतराष्ट्र को युद्ध का आँखों देखा हाल बताया था पर आज के इस युग में जे. आर. बेयर्ड द्वारा अविष्कृत दूरदर्शन का अविष्कार समस्त विश्व के लिए महत्वपूर्ण हो गया है। सारे विश्व में घटित होने वाली घटनाएँ चाहे वे जल में हो या फिर भूमि या आकाश में अपने घर बैठ कर आज का मनुष्य सरलता से देख सकता है और उसका आनन्द प्राप्त कर सकता है।
दूरदर्शन का अविष्कार उन्नीसवीं शताब्दी के आस-पास होना माना जा सकता है। उसके बाद से अब तक इस क्षेत्र में काफी प्रगति हो चुकी है। दूरदर्शन को अंग्रेजी में टेलीविजन कहा जाता है। इसका आविष्कार महान् वैज्ञानिक बेयर्ड ने किया था। टेलीविजन सर्वप्रथम लंदन में 1925 में देखा गया। इसके बाद से इसका प्रचार-प्रसार इतना बढ़ गया कि आज यह विश्व के हर कोने में लोकप्रिय हो गया है। हमारे देश भारत में टेलीविजन का आरम्भ 15 सितम्बर 1959 को हुआ।
दूरदर्शन का शाब्दिक अर्थ है दूर की वस्तुओं या घटनाओं को उसी रूप में देखना जैसा कि वे हैं। एक समय था जब रेडियो घर-घर में देखने को मिल जाता था। उसी तरह अब टेलीविजन का प्रवेश घर-घर हो चुका है। इसकी लोकप्रियता के कई कारणों में से एक कारण यह भी है कि इसे बड़ी आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सकता है। आजकल मनोरंजन के साधनों में दूरदर्शन सबसे सक्षम साधन है। इतना अच्छा साधन जो कि घर बैठे ही सभी प्रकार के कार्यक्रम दिखा दे। सारे विश्व की झांकी प्रस्तुत कर दे और क्या हो सकता है।
यही कारण है कि यह जन-जन में लोकप्रिय हो गया है। दूरदर्शन पर हिन्दी, अंग्रेजी सहित कई अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में समाचार, लोक संगीत, फिल्म आदि कार्यक्रम देखे जा सकते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी के बाद से तो दूरदर्शन का और विस्तार हो गया। पहले इस पर सिर्फ सरकार का ही नियंत्रण था। अब निजी क्षेत्र के भी इसमें उतर जाने से अधिक लोकप्रिय होने के साथ-साथ इसके क्षेत्र का विस्तार भी हो गया है। निजी चैनलों के आ जाने से अब इसके द्वारा बच्चे से लेकर वृद्ध व्यक्ति तक अपना मनोरंजन कर सकता है।
वर्तमान दूरदर्शन मात्र मनोरंजन का ही साधन नहीं है। इसके द्वारा विश्व के किसी कोने में क्या अनुसंधान हो रहा है, किसी बड़े हादसे का घटना स्थल से सीधा प्रसारण आदि को भी देखा जा सकता है। पहले दूरदर्शन पर हर एक घंटे बाद ही समाचार आते थे लेकिन अब निजी चैनलों के 24 घंटे के समाचार चैनल आ गये हैं। इनमें समाचार तो प्राप्त होते ही हैं साथ ही घटना स्थल को भी देखा जा सकता है।
दूरदर्शन के दुष्प्रभाव भी हैं। एक ओर दूरदर्शन जहाँ हमें देश-विदेश के इतिहास व उनकी संस्कृति, नृत्य, कला-संगीत संबंधी ज्ञान व खेल क्षेत्र की उपलब्धियाँ, उद्योग धंधों से सम्बन्धि त जानकारी आदि प्रदान कर समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है। वहीं उसके द्वारा कुछ कार्यक्रमों के प्रसारण द्वारा समाज के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। निजी चैनलों द्वारा दिखाये जा रहे धारावाहिकों में हिंसा, दुराचार, भ्रष्टाचार, नशाखोरी आदि दिखाकर वह बच्चों व युवा वर्ग पर बुरा असर डाल रहा है। समाचार पत्रों में कई बार पढ़ने को मिलता है कि फलां किशोर ने अपराध फलां धारावाहिक को देख कर किया। तस्करी, डकैती, चोरी की अभिनव गतिविधियों की जानकारी भी प्रदान करता है। अतः प्रत्यक्ष रूप से अवांछनीय कार्यों के प्रति उन्हें प्रोत्साहित भी करता है। सिनेमा की फिल्में दिखाने में काफी समय दिया जाता है। इस कारण बच्चे अपनी पढ़ाई तथा गृहणियाँ गृह कार्य की उपेक्षा करने लगी हैं।
12. कम्यूटर : आज की आवश्यकता
20वीं सदी में कम्यूटर क्षेत्र में आयी क्रान्ति के कारण सूचनाओं की प्राप्ति और इनके संसाधन में काफी तेजी आयी है। इस क्रांति के कारण ही हर किसी क्षेत्र का कम्यूटरीकरण संभव हो पाया है। स्थिति यह है कि माइक्रो प्रोसेसर के बिना अब किसी मशीन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पिछले चार दशकों में कम्प्यूटर की पहली चार पीढ़ियाँ क्रमश: वैक्यूम ट्यूब तकनीकी, ट्रांजिस्टर और प्रिंटेड सर्किट तकनीकी, इंटिग्रेटेड सर्किट तकनीकी और वैरी लार्ज स्केल इंटिग्रेटेड तकनीकी पर आधारित थी। चौथी पीढ़ी की तकनीकी में माइक्रो प्रोसेसरों का वजन केवल कुछ ग्राम तक ही रह गया।
आज पाँचवीं पीढ़ी के कम्प्यूटर तो कृत्रिम बुद्धि वाले बन गये हैं। वास्तव में कम्प्यूटर एनालॉग या डिजिटल मशीनें ही हैं। अंकों को एक सीमा में परस्पर भिन्न भैतिक मात्राओं में परिवर्तित करने वाले कम्प्यूटर एनालॉग कहलाते हैं। जबकि अंकों का इस्तेमाल करने वाले ‘कम्प्यूटर डिजिटल कहलाते हैं। एक तीसरी तरह के कम्प्यूटर भी हैं जो हाइब्रिड कहलाते हैं। इनमें अंकों का संचय और परिवर्तन डिजिटल रूप में होता है लेकिन गणना एनालांग रूप में होती है।
विज्ञान क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी का आयाम जुड़ने से हुई प्रगति ने हमें अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की हैं। इनमें मोबाइल फोन, कम्प्यूटर तथा इंटरनेट का विशिष्ट स्थान है। कम्प्यूटर का विकास गणना करने के लिए विकसित किये यंत्र केलकुलेटर से जुड़ा है। इससे जहाँ कार्य करने में समय कम लगता है वहीं मानव श्रम में भी कमी आई है। यही कारण है कि दिन-प्रतिदिन इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। पहले ये कुछ सरकारी संस्थानों तक ही सीमित थे लेकिन आज इनका प्रसार घर-घर में होने लगा है।
जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ समस्यायें भी तीव्र गति से बढ़ती जा रही है। इन समस्याओं से जूझना व उनका समुचित हल निकालना मानव के लिए चुनौती रहा है। इन समस्याओं में एक समस्या थी गणित की। इस विषय की जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यकता पड़ती है। प्रारंभ में आदि मानव उंगलियों की सहायता से गणना करता था। विकास के अनुक्रम में फिर उसने कंकड़; रस्सी में गाँठ बाँधकर तथा छड़ी पर निशान लगाकर गणना करना आरम्भ किया। करीब दस हजार वर्ष पहले अबेकस नामक मशीन का आविष्कार हुआ। इसका प्रयोग गिनती करने तथा संक्रियायें हल करने के लिए किया जाता था।
वर्तमान में कम्प्यूटर संचार का भी एक महत्वपूर्ण साधन बन गया है। कम्प्यूटर नेटवर्क के माध्यम से देश के प्रमुख नगरों को एक दूसरे के साथ जोड़े जाने की प्रक्रिया जारी है। भवनों, मोटर-गाड़ियों, हवाई जहाजों आदि के डिजाइन तैयार करने में कम्प्यूटर का व्यापक प्रयोग हो रहा है। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में तो कम्प्यूटर ने अद्भुत कमाल कर दिखाया है। इसके माध्यम से करोड़ों मील दूर अंतरिक्ष के चित्र लिए जा रहे हैं। मजे की बात यह है कि इन चित्रों का विश्लेषण भी कम्प्यूटर द्वारा ही किया जा रहा है।
कम्प्यूटर नेटवर्क द्वारा देश विदेश को जोड़ने को ही इंटरनेट कहा जाता है। नेटवर्क केवल एक ही कम्प्यूटर से नहीं जुड़ा होता अपितु कई सारे कम्प्यूटर जो देश-विदेश में हैं को इंटरनेट नेटवर्क द्वारा आपस में जोड़ता है। इंटरनरेट की शुरूआत 1969 में अमेरिका के रक्षा विभाग ने शुरू की थी। 1990 में इसका व्यक्तिगत व व्यापारिक सेवाओं में भी प्रयोग किया जाने लगा। वर्तमान में इसके प्रयोगकर्ता पच्चीस प्रतिशत की दर से प्रति माह बढ़ रहे हैं। इंटरनेट द्वारा हम एक कम्प्यूटर से दूसरे कम्प्यूटर पर उपस्थित व्यक्ति को संदेश भेज सकते हैं।
13. विद्यार्थी और अनुशासन : अनुशासन का महत्त्व
अनुशासन की दृष्टि से प्रथम चरण हमारा नौनिहाल विद्यार्थी हो सकता है। प्रारंभ से ही .. यदि हमारा जीवन अनुशासित होगा तो हम तमाम समस्याओं का समाधान एक स्वस्थ और निरपेक्ष तथ्यों पर हम भविष्य में कर सकते हैं। अन्यथा समस्याएँ ज्यों की त्यों बनी रहेंगी चाहे कितनी सरकारें क्यों न बदल जाएँ, चाहे कितनी पीढ़ियों क्यों न गुजर जाएँ। यदि देश की विभिन्न समस्याओं की गहराई में जाकर देखें तो उसमें से कुछ ऐसी बातें मिलती हैं जो देश की विभिन्न समस्याओं को जन्म देती हैं।
जिनमें आर्थिक और राजनीतिक महत्त्व के साथ ही साथ देश की राष्ट्र भाषा, धर्म, संस्कृति और खानपान के आधार पर ही लोगों में अनुशासन तोड़ने अथवा समस्याएँ खड़ी करने के लिए प्रेरित होने के प्रसंग मिलते हैं। देश में व्याप्त इन समस्याओं के निराकरण के लिए देश के प्रत्येक नागरिक को अनुशासन प्रिय होना चाहिए। अनुशासन प्रिय होने के लिए हमें स्वप्रेरणा के आधार पर कार्य करना होगा। वैलेंटाइन के अनुसार-अनुशासन बालक की चेतना का परिष्करण है। बालक की उत्तम प्रवृत्तियों और इच्छाओं को सुसत्कृत करके हम अनुशासन के उद्देश्य को पूरा कर सकते हैं।
अनुशासन से अभिप्राय नियम, सिद्धान्त तथा आदेशों का पालन करना है। जीवन को आदर्श तरीके से जीने के लिए अनुशासन में रहना आवश्यक है। अनुशासन का अर्थ है खुद को वश में रखना। अनुशासन के बिना व्यक्ति पशु समान है। विद्यार्थी का जीवन अनुशासित व्यक्ति का जीवन कहलाता है। इसे विद्यालयों के नियमों पर चलना होता है। शिक्षक का आदेश मानना पड़ता है। ऐसा करने पर वह बाद में योग्य, चरित्रवान व आदर्श नागरिक कहलाता है। विद्यार्थी जीवन में ही बच्चे में शारीरिक व मानसिक आदि गुणों का विकास होता है।
उसे अपना भविष्य सुखमय बनाने के लिए अनुशासन में रहना जरूरी है। यदि हम किसी काम को व्यवस्था के साथ-साथ अनुशासित होकर करते हैं तो हमें उस कार्य को करने में कोई परेशानी नहीं होती। इसके अलावा हमें कार्य करते समय भय, शंका अथवा गलती होने का कोई डर नहीं होता। यदि हम अनुशासनहीनता, बिना नियम तथा उचित विचार किए किसी कार्य को करते हैं तो हमें उस कार्य में गलती होने का डर लगा रहता है। इससे जहाँ व्यवस्था भंग होती वहीं कार्य भी बिगड़ जाता है परेशानी बढ़ने के साथ-साथ उन्नति का मार्ग भी बंद हो जाता है। इसलिए सफलता प्राप्त करने के लिए अनुशासन में रहना आवश्यक है।
जीवन के हर क्षेत्र में अनुशासन की आवश्यकता होती है। अनुशासित व्यक्ति निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर होता जाता है। यह प्रगति चाहे व्यक्तिगत हो या फिर मानसिक दोनों के लिए अनुशासन जरूरी है। वर्तमान में विद्यार्थी अनुशासन हीनता का पर्याय हो गया है। विद्यालय से लेकर घर तक ऐसी कोई जगह नहीं बची है जहाँ विद्यार्थी की उदंडता न देखने को मिलती हो। प्राचीन काल से चली आ रही गुरुकुल प्रणाली के समाप्त होने को आधुनिक शिक्षा पद्धति से ऐसा हुआ माना जाता है। हालांकि इसके लिए हमारा सामाजिक वातावरण भी कम दोषी नहीं है। आज हर विद्यार्थी स्वतंत्र रहना चाहता है। विद्यालय या कालेज उसे जेल नजर आते हैं। वह एक तरह से स्वतंत्र रहना चाहता है।
14. पुस्तकालय
मानव शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए जिस प्रकार हमें पौष्टिक तथा संतुलित भोजन की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार मानसिक स्वास्थ्य के लिए ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है।
मस्तिष्क को बिना गतिशील बनाये ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। ज्ञान प्राप्ति के लिए विद्यालय जाकर गुरु की शरण लेनी पड़ती है। इसी तरह ज्ञान अर्जित करने के लिए पुस्तकालय की सहायता लेनी पड़ती है। लोगों को शिक्षित करने तथा ज्ञान देने के लिए एक बड़ी राशि व्यय करनी पड़ती है। इसलिए स्कूल कालेज खोले जाते हैं और उनमें पुस्तकालय स्थापित किये जाते हैं। जिससे कि ज्ञान चाहने वाला व्यक्ति सरलता से ज्ञान प्राप्त कर सके।
पुस्तकालय के दो भाग होते हैं। वाचनालय तथा पुस्तकालय। वाचनालय में देशभर से प्रकाशित दैनिक अखबार के अलावा साप्ताहिक, पाक्षिक तथा मासिक पत्र-पत्रिकाओं का पठन केन्द्र है। यहाँ से हमें दिन प्रतिदिन की घटनाओं की जानकारी मिलती है। पुस्तकालय विविध विषयों और इनकी विविध पुस्तकों का भण्डारगृह होता है। पुस्तकालय में दुर्लभ से दुर्लभ पुस्तक भी मिल जाती है।
भारत में पुस्तकालयों की परम्परा प्राचीनकाल से ही रही है। नालन्दा, तक्षशिला के पुस्तकालय विश्वभर में प्रसिद्ध थे। मुद्रणकला के साथ ही भारत में पुस्तकालयों की लोकप्रियता बढ़ती चली गई। दिल्ली में दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी की सैकड़ों शाखाएँ हैं। इसके अलावा दिल्ली में एक नेशनल लाइब्रेरी भी है।
पुस्तकें मनुष्य की मित्र होती हैं। एक ओर जहाँ वे हमारा मनोरंजन करती हैं वहीं वह हमारा ज्ञान भी बढ़ाती हैं। हमें सभ्यता की जानकारी भी पुस्तकों से ही प्राप्त होती है। पुस्तकें ही हमें प्राचीनकाल से लेकर वर्तमानकाल के विचारों से अवगत कराती है। इसके अलावा पुस्तकें संसार के कई रहस्यों से परिचित कराती हैं। कोई भी व्यक्ति एक सीमा तक ही पुस्तक खरीद सकता हैं। सभी प्रकाशित पुस्तकें खरीदना सबके बस की बात नहीं है। इसलिए पुस्तकालयों की स्थापना की गई। पुस्तकालय का अर्थ है पुस्तकों का घर। यहाँ हर विषय की पुस्तकें उपलब्ध होती हैं इनमें विदेशी पुस्तकें भी शामिल होती हैं। विद्यालय की तरह पुस्तकालय भी ज्ञान का मंदिर है। पुस्तकालय कई प्रकार के होते हैं।
इनमें पहले पुस्तकालय वे हैं जो स्कूल, कालेज तथा विश्वविद्यालय के होते हैं। दूसरी प्रकार के पुस्तकालय निजि होतें हैं। ज्ञान प्राप्ति के शौकीन व्यक्ति अपने-अपने कार्यालयों या घरों में पुस्तकालय बनाकर अपना तथा अपने परिचितों का ज्ञान अर्जन करते हैं। तीसरे प्रकार के पुस्तकालय राजकीय पुस्तकालय होते हैं। इनका संचालन सरकार द्वारा किया जाता है। इन पुस्तकों का लाभ सभी लोग उठा सकते हैं। चौथी प्रकार के पुस्तकालय . सार्वजनिक होते हैं। इनसे भी सरकारी पुस्तकालयों की तरह लाभ उठा सकते हैं। इनके अतिरिक्त स्वयंसेवी संगठनों व सरकार द्वारा चल पुस्तकालय चलाये जा रहे हैं। यह पुस्तकालय एक वाहन पर होते हैं। हमारा युग ज्ञान का युग है। वर्तमान मे ज्ञान ही ईश्वर है व शक्ति है। पुस्तकालय से ज्ञान वृद्धि में जो सहायता मिलती है वह और कहीं से सम्भव नहीं है। विद्यालय में विद्यार्थी केवल विषय से संबंधित ज्ञान प्राप्त कर सकता है लेकिन पुस्तकालय ज्ञान का खजाना है।
15. आतंकवाद
आतंकवाद विश्व के लिए एक गम्भीर समस्या है। इस समस्या का वास्तविक. व अंतिम समाधान अहिंसा द्वारा ही संभव है। आतंकवाद को परिभाषित करना सरल नहीं है। क्योंकि यदि कोई पराजित देश स्वतंत्रता के लिए शस्त्र उठाता है तो वह विजेता के लिए आतंकवाद होता है। स्वतंत्रता के लिए भारतीय क्रांतिकारी प्रयास अंग्रेजों की दृष्टि में आतंकवाद था। देश के अंदर आतंकवाद. व्यवस्था के प्रति असंतोष से उपजता है। यह अति शोषण और अति पोषण से पनपता है। यदि असंतोष का समाधान नहीं किया जाए तो वह विस्फोटक होकर अनेक रूपों में विध्वंस करता है और निरपराधियों के प्राणों से उनकी प्यास नहीं बुझती। आतंकवाद को निष्प्रभावी बनाने के लिए उनको जीवित रखने वाली परिस्थितियों को नष्ट करना आवश्यक है। असहिष्णुता, अवांछित अनियंत्रित लिप्सा, अत्याधुनिक शस्त्रों की सुलभता आतंकवाद को जीवित रखे हुए हैं। पूर्वांचल का आतंकवाद व कश्मीर का आतंकवाद धर्मों के नाम पर विदेशों से धन व शस्त्र पाकर पुष्ट होता है।
वर्तमान में आतंकवाद हमारे देश के लिए ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक समस्या बन गया है। आतंकवाद से अभिप्राय अपने प्रभुत्व व शक्ति से जनता में भय की भावना का निर्माण कर अपना उद्देश्य सिद्ध करने की नीति ही आतंकवाद कहलाती है। हमारा देश भारत सबसे अधिक आतंकवाद की चपेट में है। पिछले दस-बारह वर्षों में हजारों निर्दोष लोग इसके शिकार हो चुके हैं। अब तो जनता के साथ-साथ सरकार को भी आतंकवाद का सामना करना पड़ रहा है। वर्तमान शासन प्रणाली तथा शासकों को हिंसात्मक हथकंडे अपनाकर समाप्त करना या उनसे अपनी बातें मनवाना ही आतंकवाद का मुख्य उद्देश्य है।।
भारत में आतंकवाद की शुरुआत बंगाल के उत्तरी छोर पर नक्सलवादियों ने की थी। 1967 में शुरू हुआ यह आतंकवाद तेलंगाना, श्री काकूलम में नक्सलियों ने तेजी से फैलाया। 1975 में लगे आपातकाल के बाद नक्सलवाद खत्म हो गया।
आतंकवाद के मूल में सामान्यतः असंतोष एवं विद्रोह की भावनायें केन्द्रित रहती हैं। धीरे-धीरे अपनी बात मनवाने के लिए आतंकवाद का प्रयोग एक हथियार के रूप में किया जाना सामान्य सी बात हो गयी। तोड़-फोड़, अपहरण, लूट-खसोट, बलात्कार, हत्या आदि करके अपनी बात मनवाना इसी में शामिल है। असंतुष्ट वर्ग चाहे वह राजनीतिक क्षेत्र में हो या व्यक्तिगत क्षेत्र में अपनी अस्मिता प्रमाणित करने के लिए यही मार्ग अपनाता है। आज देश के कुछ स्वार्थी तत्वों ने क्षेत्रवाद को बढ़ावा देना शुरू कर दिया है इससे सांस्कृतिक टकराव, आर्थिक विषमता, भ्रष्टाचार तथा भाषायी मतभेद को बढ़ावा मिल रहा है। ये सभी तत्व आतंकवाद को पोषण करते हैं। भाषायी राज्यों के गठन में भारत में आतंकवाद को पनाह दी। इन प्रदेशों के नाम पर जमकर खून-खराबा हुआ। मिजोरम समस्या, गोरखालैण्ड आन्दोलन, कथक उत्तराखंड, खालिस्तान की मांग जैसे कई आन्दोलन थे जिन्होंने क्षेत्रवाद को बढ़ावा दिया।
वर्तमान में कश्मीर समस्या आतंकवाद का कारण बनी हुई है। हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही कश्मीर में घुसपैठिये हथियारों की समस्या उत्पन्न हो गयी थी। भारत पाक सीमा परं आतंकवादियों से सेना की मुठभेड़ आम बात हो गयी थी। अंतत: यह समस्या कारगिर युद्ध के रूप में सामने आई। आज वर्तमान में भी पाकिस्तारन की सीमा पार से आतंकवादी गतिविधियाँ जारी हैं। कथित पाक प्रशिक्षित आतंकवादियों द्वारा देश के विभिन्न हिस्सों में बम विस्फोटों की घटनाएँ देखने को मिल रही हैं। भारतीय संसद पर हमला, गुजरात का अक्षरदाम मंदिर हमला, कश्मीर के रघुनाथ मंदिर पर हमले की कार्यवाही आतंकवाद का ही हिस्सा है।
इसी तरह 13 दिसम्बर 2001 को 11 बजकर 40 मिनट पर भारत के संसद भवन पर भी आतंकवादियों ने हमला किया। इसमें हालांकि उन्हें सफलता नहीं मिल पायी और संसद भवन के सुरक्षाकर्मियों के साथ हुई मुठभेड़ में हमले को अंजाम देने आये आतंकवादियों को मार गिराया आतंकवादी ए. के. 47 राइफलों और ग्रेनेडों से लैस थे। ये उग्रवादी एक सफेद एम्बेसडर कार से संसद परिसर में घुसे थे। कार में भारी मात्रा में आर. डी. एक्स था। संसद भवन में घुसते समय इन्होंने उपराष्ट्रपति के काफिले में शामिल एक कार को भी टक्कर मारी थी। सुरक्षाकर्मियों तथा आतंकवादियों के बीच करीब आधे घंटे तक गोलीबारी जारी रही। इस दौरान संसद भवन परिसर में दहशत और अफरातफरी का माहौल था। यदि आतंकवादी अपने मकसद में सफल हो जाते तो कई केन्द्रीय मंत्रियों सहित सैकड़ों सांसदों को जान से हाथ धोना पड़ता।
कुल मिलाकर यदि इस पर जल्दी ही काबू न पाया गया तो यह समूचे विश्व के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। इसलिए जरूरी है कि आतंकवाद पर विजय प्राप्त करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक, सामाजिक आदि सभी स्तरों से प्रयास किये जाएँ।
16. रेल दुर्घटना का दृश्य
सोमवार का दिन था और सुबह का समय। फरीदाबाद से दिल्ली जाने वाली पहली गाड़ी छूट चुकी थी। रात जोरों से हुई बारिश के कारण रिक्शा न मिलने की वजह से मुझे स्टेशन चार किलोमीटर पैदल चलकर आना पड़ा था। यही कारण था कि मेरी पहली ट्रेन छूट चुकी थी। खैर आधा घंटा प्लेटफार्म पर अखबार पढ़कर बिताया। तभी पलवल-दिल्ली के बीच चलने वाली शटल ट्रेन आ गई। यह ट्रेन नई दिल्ली होते हुए पुरानी दिल्ली स्टेशन जाती है। ट्रेन के प्लेटफार्म पर रुकते ही मैं उस पर सवार हो गया। उसमें सवार कुछ लोग ताजा राजनीतिक हालातों पर चर्चा कर रहे थे। तो कुछ लोग इन सबसे बेखबर हो ताश खेलने में व्यस्त थे। कुछ ऐसे भी लोग थे जो अन्य तरह से अपना मनोरंजन कर रहे थे।
गाड़ी फरीदाबाद से चलकर तुगलकाबाद पहुँची। यहाँ ट्रेन में सवार काफी यात्री उतरे। यहाँ से ट्रेन पर चढ़ने वाले लोगों की संख्या बमुश्किल आठ-दस ही रही होगी। यहाँ से ट्रेन रवाना हुए अभी पाँच-सात मिनट ही हुए होंगे कि अचानक एक झटके के साथ गाड़ी रुक गई। ट्रेन में सवार लोगों ने सोचा हो सकता है आगे कोई दिक्कत होगी इसलिए सिगनल न मिलने के कारण गाड़ी रुकी होगी। गाड़ी रुकते ही कुछ लोग जो हमसे आगे वाले डिब्बों में सवार थे गाड़ी से उतरकर शोर मचाने लगे। आग लग गयी, जिस डिब्बे में मैं सवार था उसमें भी भगदड़ मची इस दौरान मची भगदड़ में कुछ लोगों को चोट आ गयी। मैने ट्रेन से नीचे उतरकर देखा तो इंजन के बाद पाँचवें डिब्बे में से धुआँ उठ रहा था।
ट्रेन से उतरने के बाद मैं भी उस डिब्बे की ओर दौड़ा जिसमें आग लगी हुई थी। आग की चपट में आया डिब्बा वातानुकूलित था। उसमें एक ही परिवार के करीब पच्चीस सदस्य थे। उनके साथ कुछ छोटे बच्चे भी थे। बच्चों को बचाने के क्रम में परिवार के बड़े सदस्य जिसे जैसे मौका मिला वे बच्चों को ले डिब्बों से बाहर कूदे। जैसे ही मैं वहाँ पहुँचा तो पता लगा कि डिब्बे में उनका जरूरी सामान के साथ-साथ एक वृद्ध महिला भी डिब्बे में ही है। यह सुन मेरे से रहा नहीं गया और मैंने किसी तरह डिब्बे में घुसने का प्रयास किया। कुछ देर के संघर्ष के बाद किसी तरह मुझे डिब्बे के अन्दर पहुँचने में सफलता मिल गयी। डिब्बे की एक कोने वाली सीट पर वृद्ध महिला अपने मुँह और नाक को बंद किये बैठी थी।
यदि मैं उसे दो चार मिनट और वहाँ से बाहर न निकालता तो उसका बचना मुश्किल था। मैंने उसे किसी तरह अपने कंधे पर लादा और वहाँ जो सामान पड़ा था उसमें से एक अदद ब्रीफकेस लेकर मैं किसी तरह गेट तक पहुँचा। तभी बाहर खड़ी भीड़ में से एक व्यक्ति चिल्लाया कि रुको-रुको हम तुम्हारी मदद के लिए आ रहे हैं। मेरे समक्ष दिक्कत यह थी कि मैं वृद्धा को कंधे पर लेकर कूदता तो मुझे तो चोट आती ही वृद्धा भी इस क्रम में घायल हो जाती।।
खैर बाहर खड़े लोगों की मदद से मैंने वृद्धा को सुरक्षित बाहर निकाल लिया। मेरे डिब्बे से उतरते ही अचानक डिब्बे में एक हल्का सा विस्फोट हुआ और आग तेजी से बढ़ गयी। शायद विस्फोट उस डिब्बे में लगे एयर कम्प्रेशन में हुआ होगा। तब तक वहाँ पर अग्नि शमन विभाग व पुलिस कर्मचारी भी पहुँच चुके थे। उन लोगों ने चुटैल लोगों को अस्पताल पहुंचाया। मैं किसी तरह बस पकड़ कर अपने कालेज पहुँचा। कालेज पहुँचने पर कुछ लोग मेरे कपड़े देखकर दंग थे। जब मैंने उन्हें रेल हादसे की जानकारी दी तो उन्हें पता लगा कि मेरी यह दशा ऐसी क्यों हुई।
कालेज से घर लौटने पर पता चला कि घर के सदस्यों को रेल हादसे की जानकारी मिल चुकी थी और लोग मेरे को लेकर चिंतित थे। मुझे सकुशल घर लौटा देख मेरी माता जी ने मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया। मुझे माता जी को यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही थी कि आप द्वारा दी गई शिक्षा से आज मैं एक जीवन बचाने में सफल रहा।
17. निरक्षरता
हमारे देश में छः करोड़ तीस लाख बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने स्कूल का मुंह नहीं देखा। जाहिर है इसकी वजह भारत जैसे विकासशील देश की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि है। ऐसे में गरीब ग्रामीण परिवारों की ज्यादातर लड़कियों के लिए स्कूल जाना एक स्वप्न है। गाँवों में यह देखकर दुःख होता है कि पाँच सात वर्ष की आयु की लड़कियाँ दस-दस घंटे काम करती हैं। ऐसे परिवारों के बच्चे बहुत छोटी उम्र से ही अपने परिवार या अपने माता-पिता के काम में हाथ बँटाने लगते हैं। इस प्रकार जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं लड़कों के मुकाबले लड़कियों पर काम का बोझ बढ़ता जाता है।
वर्ष 1998-99 के आंकड़ों के अनुसार केरल और हिमाचल प्रदेश ही ऐसे राज्य हैं जहाँ छः से चौदह वर्ष की स्कूल न जाने वाली लड़कियों की संख्या पाँच प्रतिशत से कम है। स्त्री शिक्षा का स्तर शेष देश में चिन्ताजनक है। इसकी एक अहम् वजह यह भी है कि दूरदराज के कई ग्रामीण इलाकों में स्कूल प्राय: इतने दूर होते हैं कि परिवार वालों की राय में लड़कियों को वहाँ भेजना जोखिम भरा होता है। ग्रामीण इलाकों में महिला अध्यापकों के न होने के कारण भी लड़कियाँ स्कूल जाने से हिचकती हैं। या फिर वे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देती हैं। गाँव ही नहीं शहरों में भी ऐसे बहुत से स्कूल हैं जहाँ अध्यापक हैं तो पढ़ने के लिए कमरे नहीं, यदि कमरे हैं तो अध्यापक नहीं हैं। यदि सब सुविधा है तो अध्यापक स्कूल से नदारत मिलेंगे।
विभिन्न राज्यों में प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में स्कूल के शिक्षकों के हजारों पद खाली पड़े हैं। उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय से जुड़ी स्थायी। संसद समिति भी अपनी 93वीं रिपोर्ट में इस तथ्य पर चिंता जता चुकी है। दूरदराज के गाँव तथा आदिवासी इलाकों में अव्वल तो स्कूलों की संख्या बहुत कम हैं जो हैं भी उनमें अध्यापक जाने में रुचि नहीं दिखाते। ग्रामीण बच्चों की सुविधा के लिए स्कूल एक किलोमीटर के दायरे में खोले गये हैं। इनका सर्वेक्षण करने पर पता चला कि इन स्कूलों में पर्याप्त सुविधाएँ नहीं हैं।
स्कूलों की इमारत खस्ताहाल है। सर्वेक्षण के अनुसार 84 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय नहीं पाये गये तथा 54 प्रतिशत स्कूलों में पाने का पानी नहीं था। पुस्तकालय, खेल के मैदान किताबों की बात तो दूर 12 प्रतिशत स्कूलों में केवल एक ही अध्यापक थे। ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को सार्थक शिक्षा देने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आज से 90 वर्ष पूर्व ‘सभी को शिक्षा नीति की परिकल्पना गोपाल कृष्णधा गोखले ने की थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब भारत का संविधान बना तो उसमें भी चौदह साल तक के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा और अनिवार्य शिक्षा देने की बात कही गयी साथ ही यह भी कहा गया कि इस लक्ष्य को हमें 1960 तक हासिल कर लेना है।
लेकिन यह लक्ष्य बीसवीं सदी तक तो पूरा हो नहीं सका अब इसे वर्ष 2010 तक के लिए बढ़ा दिया गया है। .. मनुष्य के विकास में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान है। शिक्षा से मनुष्य का जहाँ सर्वांगीण विकास होता है वहीं वह उसका आर्थिक और सामाजिक उत्थान करने की सामर्थ्य भी देती है। इस प्रकार बौद्धिक स्तर के साथ-साथ मनुष्य का जीवन स्तर भी ऊँचा उठता है, विशेषकर स्त्रियों में। महिला शक्तिकरण में भी शिक्षा का प्रमुख योगदान है। लड़कियों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करने के लिए सरकार द्वारा समय-समय पर कई कायक्रम बनाये गये लेकिन उनमें साक्षरता की गति विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों की लड़कियों में उतनी नहीं बढ़ी है जितनी बढ़नी चाहिए थी।
शिक्षा भले ही हमारे मूलभूत आवश्यकताओं में से एक हो पर सरकार शिक्षा पर कुल घरेलू सकल उत्पाद का मात्र छः प्रतिशत व्यय करती है। इसमें प्राथमिक शिक्षा का हिस्सा आज भी नाम मात्र को है। बेहतर होगा कि निरक्षरता उन्मूलन के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में वहीं के पढ़े-लिखे युवाओं को जिम्मेदारी सौंपी जाए।
18. मानवाधिकार
मानव के रूप में क्या अधिकार हों और किस सीमा तक किसी रूप में उनकी प्रत्याभूति शासन की ओर से हो इस संबंध में मानव सभ्यता के प्रारंभ से ही विवाद चला आ रहा है। सामान्यतः मानव के मौलिक अधिकारों में जीवन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, जीविका का अधिकार, वैचारिक स्वतंत्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, संगठन बनाने का अधिकार तथा स्वतंत्र रूप से धार्मिक विश्वास का अधिकार आदि पर चर्चा की जाती है।
सैनिक एवं प्रतिक्रियावादी शासकों द्वारा मानवीय अधिकारों के भद्दे दुरुपयोग ने ही जनसाधारण में एक नवीन जागृति उत्पन्न की है। जहाँ कहीं भी मानव अधिकारों को नकारा गया है वहीं अन्याय, क्रूरता तथा अत्याचार का नग्न ताण्डव देखा गया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मानवता बुरी तरह से अपमानित हुई और जनमानस की अवस्था निरंतर बिगड़ती चली गयी। यद्यपि मानव अधिकारों की जानकारी तथा इन्हें प्राप्त करने के लिए स्त्री, बच्चों तथा पुरुषों ने मानव अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए नियमित संघर्ष द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत ही प्रारंभ हुआ।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानव अधिकारों की मान्यता व एकता का विचार विश्व के समक्ष 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के साथ आया ताकि संयुक्त राष्ट्र संघ के विधान के अनुच्छेद 3 में कहा गया है कि उसका एक उद्देश्य आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा मानवीय रूप ही अंतर्राष्ट्रीय समस्या के समाधान तथा जाति, लिंग, भाषा या धर्म के सब प्रकार के भेदभाव के बिना मानव अधिकारों, मौलिक अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं के संवर्धन व प्रोत्साहन के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की प्राप्ति करना होगा।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक सामाजिक परिषद ने 1946 में मानव अधिकार आयोग की स्थापना की। इस आयोग को मानव अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय घोषणा पत्र तैयार करने का जिम्मा सौंपा गया। आयोग की सिफारिशों के आधार पर 10 दिसम्बर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक घोषणा पत्र जारी किया। इसे अब मानव अधिकारों के घोषणा-पत्र के नाम से जाना जाता है। 1950 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने 10 दिसम्बर को प्रति वर्ष मानव अधिकार दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।
भारत हमेशा से मानव अधिकारों के प्रति सजग रहा है और विश्व मंच पर मानव अधिकारों का समर्थन करता रहा है। श्रीलंका, फिजी तथा फिलीस्तीन तथा दक्षिझा अफ्रीका आदि देशों के संबंध में भारतीय नीति इसका ज्वलंत उदाहरण है। मानव अधिकारों का हनन तथा उनका उल्लंघन विश्व के समक्ष एक गंभीर समस्या बनी हुई है। यह आधुनिक सभ्यता पर लगा हुआ एक काला धब्बा साबित हो रहा है। यदि मानव अधिकारों के उल्लंघन के क्रम को रोका नहीं गया तो एक ऐसी आँधी का रूप धारण कर लेगा जो संपूर्ण मानवता को तिनके की भाँति उड़ा ले जाएगा।
19. मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर
भारतीय क्रिकेट की शान व विश्व के नंबर एक बल्लेबाज का रुतबा रखने वाले मास्टर बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर ने बहुत ही कम समय व उम्र में क्रिकेट में ऐसे रिकार्ड बना डाले हैं जिन्हें तोड़ना इतना आसान नहीं। रन बनाने व नये कीर्तिमान बनाने की भूख अभी उनकी मिटी नहीं है। क्रिकेट इतिहास के स्वर्णिम पन्नों पर वे अपना नाम दर्ज करा चुके हैं। 1989 में अंतराष्ट्रीय क्रिकेट में सचिन का कदम रखना तमाम भारतीयों के जेहन में आज भी कैद है।
बीते वक्त में हमेशा भारतीयों की उम्मीदों की पतवार सचिन का बल्ला ही बना है। यही वजह है कि आज भी सचिन की बल्लेबाजी में वही ताजगी नजर आती है। अपने एक साक्षात्कार में सचिन ने कहा था कि-मैं आगे खेलना और सिर्फ खेलना चाहता हूँ। मैं अब तक जो चाहता रहा वह मुझे मिलता रहा। क्रिकेट के बिना मैं जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता।।
भारतीय क्रिकेट की शमां रोशन करने वाले तेंदुलकर महज एक बेमिसाल क्रिकेटर ही नहीं बल्कि देश के क्रिकेट प्रेमियों के होंठों की मुस्कान भी हैं। उनका बल्ला चलने पर देश में दीवाली सी मनायी जाने लगती है और नहीं चलने पर शमशान-सी मुर्दनी छा जाती है। परंपरागत प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के खिलाफ 1989 में पहला मैच खेलने वाले सोलह बरस के सचिन ने महान लेग स्पिनर अब्दुल कादिर की जमकर धुनाई करते हुए एक ही ओवर में चार चौक्के लगाते हुए 27 रन बनाकर सनसनी फैला दी थी। विश्व कप 2003 में पाकिस्तान के रावलपिंडी एक्सप्रेस के नाम से पहचाने जाने वाले शोएब अख्तर के पहले ही ओवर में 18 रन बनाये थे। अपने ही रिकार्ड तोड़ने और नये रिकार्ड बनाने की कहानी तो वह कई सालों से लिखते आ रहे हैं।
कई बार भारत की जीत और हार के बीच खड़े होने वाले तेंदुलकर ने जिस कौशल से दबावों का सामना किया है उसने उन्हें कुंदन बना दिया। उन्होंने साबित कर दिखाया कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी प्रतिभा के प्रसून प्रस्फुटित होते हैं। सचिन का बनाया रिकार्ड ही उनकी प्रतिभा की बानगी देने के लिए काफी है।
सचिन के तीसवें जन्म दिवस पर फिल्म अभिनेता व महानायक अमिताभ बच्चन ने सचिन को जन्म दिन की बधाई देते हुए कहा हम उम्मीद करते हैं कि आपके जीवन के आने वाले सत्तर वर्ष और भी ज्यादा चमत्कारी होंगे। आप अपने खेल प्रदर्शन से यूँ ही हमेशा देशवासियों के दिलों पर राज करते रहोगे। स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने सचिन के बारे में टिप्पणी करते हए कहा कि मैं सचिन को धरती पर भेजा गया ईश्वर का चमत्कार मानती हूँ सचिन भी एक अभिनवकृति है और एक चमत्कार है और मैं उसको नमस्कार करती हूँ। रिकार्ड दर रिकार्ड कायम करके क्रिकेट जगत की जीवित किंवदन्ति बन चुके सचिन तेन्दुलकर को खेल में वही मुकाम हासिल है जो संगीत में लता मंगेशकर को और अदाकारी में अमिताभ बच्चन को प्राप्त है। मजे की बात यह है कि तीनों-लता मंगेशकर को और अदाकारी में अमिताभ बच्चन को प्राप्त है। मजे की बात यह है कि तीनों-लता मंगेशकर, अमिताभ बच्चन और सचिन तेन्दुलकर एक दूसरे के जबरदस्त फैन हैं।
लता मंगेशकर व अमिताभ बच्चन की बधाई स्वीकारते हुए तेन्दुलकर ने कहा कि मेरे पास कहने के लिए शब्द नहीं हैं मैं क्या कहूँ। सचिन ने कहा कि मुझे जब तेज खेलना होता है तो मैं लता मंगेशकर जी का तेज गीत गुनगुनाने लगता हूँ और धीमे खेलने के लिए कोई दर्द भरा नग्मा याद कर लेता हूँ। इस पर लता ने कहा कि मुझे रियाज के समय जब कोई लम्बी तान छेड़नी होती है तो मैं सचिन का छक्का याद कर लेती हूँ अमिताभ के शो कौन बनेगा करोड़पति के दौरान सचिन ने फिल्मों और अमिमताभ की अदाकारी के प्रति अपनी दीवानगी का इजहार करते हुए कहा कि मैंने अमिताभ बच्चन की फिल्म अमर अकबर एन्थेनी करीब दस बार देखी। आज भी जब कभी मौका मिलता है तो मैं उस फिल्म को देखना पसंद करता हूँ।
20. लोकपाल बिल/लोकपाल विधेयक
लोकपाल उच्च सरकारी पदों पर आसीन व्यक्तियों द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार की शिकायतें सुनने एवं उस पर कार्यवाही करने के निमित्त पद है। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक सेमिनार में राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के आचरण तथा कर्तव्य पालन की विश्वसनीयता तथा पारदर्शिता को लेकर दुनिया की विभिन्न प्रणालियों में उपलब्ध संस्थाओं की जाँच कर गई। स्टॉकहोम में हुए इस सम्मेलन में वर्षों पूर्व आम आदमी की प्रशासन के प्रति विश्वसनीयता तथा प्रशासन के माध्यम से आम आदमी के प्रति सत्तासीन व्यक्तियों की जवाबदेही बनाए रखने के सम्बन्ध में विचार-विमर्श हुआ। लोक सेवकों के आचरण की जाँच और प्रशासन के स्वस्थ मानदंडों को प्रासंगिक बनाए रखने के संदर्भो की पड़ताल भी की गई।
वर्तमान में समाजसेवी अन्ना हजारे लोकपाल बिल लाने के लिए देशवासियों को प्रेरित कर रहे हैं एवं राजनीतिज्ञों से मिल रहे हैं लेकिन अन्ना हजारे व भारत सरकार के बीच आम सहमति न बन पाने के कारण यह विधेयक चर्चा के घेरे में है। प्रश्न यह है कि भारत में लोकपाल विधेयक के दायरे में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केन्द्रीय मंत्रियों, शीर्ष न्यायपालिका व लोकसभा अध्यक्ष आदि को रखा जाए। इसके लिए हमें विभिन्न देशों में विद्यमान लोकपाल के दायरे में आने वाले मंत्रियों, लोकसेवकों व न्यायपालिका के सन्दर्भ की परिस्थितियों का अध्ययन करके भारतीय संविधान का आदर करते हुए, भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल लोकपाल के दायरे में लोकसेवकों व मंत्रियों आदि को रखा जाए।
देश में गहरी जड़ें जमा चुके भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जन लोकपाल बिल लाने की माँग करते हुए अन्ना हजारे आमरण अनशन पर बैठ गए। जतर-मंतर पर सामाजिक कार्यकर्ता हजारे का समर्थन करने हजारों लोग जुटे। आइए जानते हैं जन लोकपाल बिल के बारे में इस कानून के तहत केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा।
यह संस्था इलेक्शन कमीशन और सुप्रीम कोर्ट की तरह सरकार में स्वतंत्र होगी। किसी भी मुकदमें की जाँच एक साल के भीतर पूरी होगी। ट्रायल अगले एक साल में पूरा होगा। भ्रष्ट नेता, अधिकारी या जज को 2 साल के भीतर जेल भेजा जाएगा।
भ्रष्टाचार की वजह से सरकार को जो नुकसान हुआ है अपराध साबित होने पर उसे दोषी से वसूला जाएगा। अगर किसी नागरिक का काम समय में नहीं होता तो लोकपाल दोषी अफसर पर जुर्माना लगाएगा जो शिकायतकर्ता को मुआवजे के तौर पर मिलेगा।
लोकपाल के सदस्यों का चयन जज, नागरिक और संवैधानिक संस्थाएँ मिलकर करेंगी। नेताओं का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।
लोकपाल/लोक आयुक्तों का काम पूरी तरह पारदर्शी होगा। लोकपाल के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत आने पर उसकी जाँच दो महीने में पूरी कर उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा। सीवीसी, विजिलेंस विभाग और सीबीआई के ऐंटी-करप्शन विभाग का लोकपाल में विलय हो जाएगा।
लोकपाल को व्यापक शक्तियाँ देने वाले भ्रष्टाचार निरोधक कानून लागू करने की माँग पर आमरण अनशन पर बैठे अन्ना हजारे को चहुंओर से समर्थन मिल रहा है। अन्ना हजारे का विरोध सरकारी बिल और जनलोकपाल बिल में व्याप्त असमानताओं पर है। जानिए आखिर क्या है सरकार द्वारा प्रस्तावित और जनलोकपाल विधेयक में मुख्य अंतर-
21. वर्षा ऋतु
भास्कर की क्रोधाग्नि से प्राण पाकर धरा शांत और शीतल हुई। उसको झुलसे हुए गाल पर रोमावली सी खड़ी हो गई। वसुधा हरी-भरी हो उटा। पीली पड़ी, पत्तियों और मुरझाए पेड़ों पर हरियाली छा गईं। उपवन में पुष्प खिल उठे। कुंजों में लताएँ एक-दूसरे से आलिंगनबद्ध होने लगीं। सरिता-सरोवर जल से भर गए। उनमें कमल मुकुलित बदन खड़े हुए। नदियाँ इतरातीं, इठलाती अठखेलियाँ करती, तट-बंधन तोड़ती बिछुड़े हुए पति सागर से मिलने निकल पड़ी।
सम्पूर्ण वायुमंडल शीतल और सुखद हुआ। भवन, मार्ग, लता-पादप धुले से नजर आने लगे। वातावरण मधुर और सुगंधित हुआ। जनजीवन में उल्लास छा गया। पिकनिक और सैर-सपाटे का मौसम आ गया। पेड़ों पर झूले पड़ गए। किशोर-किशोरियाँ पेंगे भरने लगीं। उनके कोकिल कंठी से मल्हार फूट निकला। पावस में बरती वारिधारा को देखकर प्रकृति के चतुर चितरे सुमित्रानन्दन पंत का हृदय गा उठा ‘पकड़ वारि की धार झूलता है रे मेरा मन।’ कविवर सेनापति को तो वर्षा में नववधू के आगमन का दृश्य दिखाई देता है-
इस ऋतु में आकाश में बादलों के झंड नई-नई क्रीड़ा करते हुए अनेक रूप धारण करते हैं। मेघमलाच्छादित गगन-मंडल इन्द्र को वज्रपात से चिंगारी दिखाने क समान विघुलता की बार-बार चमक और चपलता देखकर वर्षा में बन्द भी भीगी बिल्ली बन जाते हैं। मेघों में बिजली की चमक में प्रकृति सुन्दरी के कंकण मनोहारिणी छवि देते हैं। घनघोर गर्जन से ये मेघ कभी प्रलय मचाते तो कभी इन्द्रधनुषी सतरंगी छटा से मन मोह लत वन-उपवन तथा बाग-बगीचों में यौवन चमका। पेड़-पौधे स्व न्द गते हुए मस्ती में झूम उठे। हरे पत्ते की हरी डालियाँ रूपी का कर गगन को स्पर्श क क मचल उठे पवन वेग से गुजित तथा कपित वृक्षावली सिर हिलाकर चित्त को अपनी ओर ले ल वर्षा का रस रसाल के रूप में टिप-टिप गिरता हुआ टपका बन जाता है तो मंद-मंद गिरता जाम मानो भादों के नामकरण संस्कार को सूचित कर रही हो। ‘बाबा जी के बाग में दुशाला आढ़े खड़ी हुई’ मोतियों से जड़ी कूकड़ी की तो बात ही निराली है।
वर्षा का वीभत्सव रूप है अतिवृष्टि। अतिवृष्टि से जल-प्रलय का दृश्य उपस्थित होता है। दूर-दूर तक जल ही जल। मकान, सड़क, वाहन, पेड़-पौधे, सब जल मग्न। जीवनभर के संचित सम्पत्ति, पदार्थ जल देवता को अर्पित तथा जल प्रवाह के प्रबल वेग में नर-नारी, बालक-वृद्ध तथा पशु बह रहे है। अनचाहे काल का ग्रास बन रहे हैं ! गाँव के गाँव अपनी प्रिय स्थली को छोड़कर शरणार्थी बन सुरक्षित स्थान पर शरण लेने को विवश हैं। प्रकृति प्रकोप के सम्मुख निरीह मानव का चित्रण करते हुए प्रसाद जी लिखते हैं हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।
वर्षा से अनेक हानियाँ भी हैं। सड़कों पर और झोपड़ियों में जीवन व्यतीत करने वाले लो. भीगे वस्त्रों में अपना समय गुजारते हैं। उनका उठना-बैठना, सोना-जागना, खाना-पीना दुश्वार हो जाता है। वर्षा से मच्छरों का प्रकोप होता है, जो अपने वंश से मानव को बिना माँग मलेरिया दान कर जाते हैं। वायरल फीवर, टायफॉइ बुखार, गैस्ट्रो एंटराइटिस, डायरिया, डीसेन्ट्री, कोलेरा आदि रोग इस ऋतु के अभिशाप हैं।
22. दहेज प्रथा/दहेज-दानव
आज दहेज की प्रथा को देश भर में बुरा माना जाता है। इसके कारण कई दुर्घटनाएं हो जाती हैं, कितने घर बर्बाद हो जाते हैं। आत्महत्याएँ भी होती देखी गई हैं। नित्य-प्रत्ति तेल डालकर बहुओं द्वारा अपने आपको आग लगाने की घटनाएँ भी समाचार-पत्रों में पढ़ी जाती हैं। पति एवं सास-ससुर भी बहुओं को जला देते या हत्याएँ कर देते हैं। इसलिए दहेज प्रथा को आज कुरीति माना जाने लगा है। भारतीय सामाजिक जीवन में अनेक अच्छे गुण हैं, परन्तु कतिपय बुरी रीतियाँ भी उसमें घुन की भाँति लगी हुई हैं। इनमें एक रीति दहेज प्रथा की भी है।
विवाह के साथ ही पुत्री को दिए जाने वाले सामान को दहेज कहते हैं। इस दहेज में बर्तन, वस्त्र, पलंग, सोफा, रेडियो, मशीन, टेलीविजन आदि की बात ही क्या है, हजारों रुपया नकद भी दिया जाता है। इस दहेज को पुत्री के स्वस्थ शरीर, सौन्दर्य और सुशीलता के साथ ही जीवन को सुविधा देने वाला माना जाता है। दहेज प्रथा का इतिहास देखा जाए तब इसका प्रारम्भ किसी बुरे उद्देश्य से नहीं हुआ था। दहेज प्रथा का उल्लेख मनु स्मृति में ही प्राप्त हो जाता है, जबकि वस्त्राभूषण युक्त कन्या के विवाह की चर्चा की गई है। गौएँ तथा अन्य वाहन आदि देने का उल्लेख मनुस्मृति में किया गया है। समाज में जीवनोपयोगी सामग्री देने का वर्णन भी मनुस्मृति में किया गया है, परन्तु कन्या को दहेज देने के दो प्रमुख कारण थे।
पहला तो यह कि माता पिता अपनी कन्या को दान देते समय यह सोचते थे कि वस्त्रादि सहित कन्या को कुछ सामान दे देने उसका जीवन सुविधापूर्वक चलता रहेगा और कन्या को प्रारम्भिक जीवन में कोई कष्ट न होगा। दूसरा कारण यह था कि कन्या भी घर में अपने भाईयों के समान भागीदार है, चाहे वह अचल सम्पत्ति नहीं लेती थी, परन्तु विवाह के काल में उसे यथाशक्ति धन, पदार्थ आदि दिया जाता था, ताकि वह सुविधा से जीवन व्यतीत करके और इसके पश्चात भी उसे जीवन भर सामान मिलता रहता था। घर भर में उसका सम्मान हमेशा बना रहता था। पुत्री जब भी पिता के घर आती थी, उसे अवश्य ही धन-वस्त्रादि दिया जाता था। इस प्रथा के दुष्परिणामों से भारत के मध्ययुगीन इतिहास में अनेक घटनाएँ भरी पड़ी हैं।
धनी और निर्धन व्यक्तियों को दहेज देने और न देने की स्थिति में दोनों में कष्ट सहने पड़ते रहे। धनियों से दहेज न दे सकने से दुःख भोगना पड़ता रहा है। समय के चक्र में इस सामाजिक उपयोगिता की प्रथा ने धीरे-धीरे अपना बुरा रूप धारण करना आरम्भ कर दिया और लोगों ने अपनी कन्यओं का विवाह करने के लिए भरपूर धन देने की प्रथा चला दी। इस प्रथा को खराब करने का आरम्भ धनी वर्ग से ही हुआ है क्योंकि धनियों को धन की चिंता नहीं होती। वे अपनी लड़कियों के लिए लड़का खरीदने की शक्ति रखते हैं।
इसलिए दहेज-प्रथा ने जघन्य बुरा रूप धारण कर लिया और समाज में यह कुरीति-सी बन गई है। अब इसका निवारण दुष्कर हो रहा है। नौकरी-पेशा या निर्धनों को इस प्रथा से अधिक कष्ट पहुँचता है। अब तो बहुधा लड़के को बैंक का एक चैक मान लिया जाता है कि जब लड़की वाले आयें तो उनकी खाल खींचकर पैसा इकट्ठा कर लिया जाये ताकि लड़की का विवाह कर देने के साथ ही उसका पिता बेचारा कर्ज से भी दब जाये।
दहेज प्रथा को सर्वथा बंद नहीं किया जाना चाहिए परन्तु कानून बनाकर एक निश्चित मात्रा तक दहेज देना चाहिए। अब तो पुत्री और पुत्र का पिता की सम्पत्ति में समान भाग स्वीकार किया गया है। इसलिए भी दहेज को कानूनी रूप दिया जाना चाहिए और लड़कों को माता-पिता द्वारा मनमानी धन दहेज लेने पर प्रतिबंध लग जाना चाहिए। जो लोग दहेज में मनमानी करें उन्हें दण्ड देकर इस दिशा में सुधार करना चाहिए। दहेज प्रथा को भारतीय समाज के माथे पर कलंक के रूप में नहीं रहने देना चाहिए।
23. बाढ़ का दृश्य
बाढ़ भूकंप जैसी ही एक प्राकृतिक आपदा है। ऐसी स्थिति में पानी अपना विनाशकारी रूप धारण कर लेता है। ज्यादा बारिश के कारण जब भूमि की जल संचूषण की शक्ति समाप्त हो जाती है तो उसकी परिणति बाढ़ के रूप में होती है। पहाड़ों से वर्षा जल के साथ हजारों टन मिट्टी बहकर नदियों में आ जाती है। इस कारण नदियों, सरोवरों तथा जलाशयों का तल ऊपर उठने के कारण पानी उसके तटों को लांघता हुआ खेत-खलिहानों, गाँवों में फैलना शुरू हो जाता है। पानी की यही स्थिति बाढ़ कहलाती है। बाढ़ का सीधा संबंध जल या भूमि से है। आज उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण सड़कों व इमारतों का जाल सा बिछ गया है। इस कारण मैदान नाममात्र का रह गये हैं और हरित क्षेत्रों में कमी आती जा रही है। वर्षा जल सोखने के लिए जमीन खाली नहीं रह गयी है।
एक बार मुझे भी बाढ़ की समस्या से दो चार होने का अवसर मिला मैं उन दिनों लगातार चार दिनों की विद्यालय में पड़े अवकाश के कारण गाँव गया हुआ था। गाँव पहुँचने पर माताजी ने बताया पिछले कई दिनों से मूसलाधार बारिश हो रही है। अभी मुझे गाँव में रहते दो दिन ही हुए थे कि एक रात को गाँव में शोर होता सुनाई पड़ा। लोग चिल्ला रहे थे कि गाँव में रामपुर की ओर से तेजी से पानी बढ़ता चला आ रहा है। पहले तो मुझे कुछ समझ नहीं आया जब मैंने शोर का कारण माताजी को बताया तो वे बोली बेटा जल्द से जल्द हमें अपना जरूरी सामान संभाल लेना चाहिए क्योंकि दस साल पहले भी गाँव मे जब बाढ़ आयी थी तो रामपुर की ओर से ही गाँव में बाढ़ का पानी घुसा था। उस साल आयी बाढ़ ने गाँव के करीब-करीब सभी लोगों को बेघर कर दिया था। आज तो गाँव में फिर भी काफी पक्के मकान हो गये हैं।
हम लोग अभी बात कर ही रहे थे कि जोरों की बरसात फिर शुरू हो गयी। ऐसे में सामान को सुरक्षित जगह पर ले जाना भी जरूरी था। पिताजी अस्वस्थ थे सो मुझे ही सारा सामान किसी सुरक्षित जगह पर रखना था। हमारा मकान तिमजिला था। मैंने सोचा क्यों न सामान जो ज्यादा जरूरी है उसे तीसरी मंजिल पर रख दूँ। माताजी ने भी मेरी हाँ में हाँ मिला दी। फिर क्या था थोड़ी ही देर में मैंने जरूरी सामान ऊपर ले जाकर रख दिया। सारा सामान को बचाना भी मुश्किल था। वैसे भी बाहर बारिश हो रही थी। कुछ ही देर बाद गाँव में मुनादी करवा दी गयी कि लोग अपने घरों की छतों पर चले जाएँ कुछ ही देर में गाँव मे बाढ़ का पानी घुसने वाला है।
हमारे आस-पड़ोस के वे लोग जिनके मकान या तो कच्चे थे या फिर एक मंजिला था। मैंने उन्हें भी अपनी छत पर बुला लिया। हालांकि उनका सभी सामान तो सुरक्षित जगहों पर नहीं रखवाया जा सका क्योंकि गाँव में पानी भरना शुरू हो गया था। जो थोड़ा सामान सुरक्षित रखा जा सका वह रखवा दिया गया। हमारे पड़ोस में रहने वाली एक बुढ़िया बाहर की दुनिया से बेखबर अपनी झोपड़ी में थी। उसकी याद सहसा मेरी माताजी को आ गयी। गली में पानी भरने लगा था। मैं किसी प्रकार उस बुढ़िया को उसकी झोपड़ी से बाहर लाया। गली में पानी भरता देख वह मेरे साथ आने को तैयार नहीं थी। ऊपर छत से देख रही मेरी माताजी ने जब उनसे मेरे साथ चले आने को कहा तो वह किसी तरह तैयार हुई। खैर किसी तरह मैं उसे अपनी छत पर ले आया। जब तक मैं वापस फिर उसकी झोपड़ी में पहुँचता उसमें पानी भर चुका था। पूरे गाँव में बाढ़ को लेकर हाहाकार मचा हुआ था। थोड़ी ही देर में बारिश ने लोगों पर रहम खाते हुए अपनी तेजी कुछ कम कर दी।
बारिश थमते ही कुछ लोग जो अपना सामान सुरक्षित जगहों पर नहीं रख पाये थे अपनी छतों से उतर कर नीचे आ गये। गलियों में पानी तो आ गया था लेकिन इतना नहीं आया था कि लोग को आवाजाही में परेशानी हो। कुछ लोगों को मैंने देखा कि अनाज की बोरियों को ट्रैक्टर ट्राली में रख पास ही स्थित एक टीले पर बसे गाँव की ओर चल दिए। शायद पहले वहाँ पहाड़ रहा होगा। वे लोग अपने साथ बच्चे भी ले जा रहे थे। मेरे ख्याल से वे लोग टीले वाले गाँव पहुँचे भी नहीं होंगे फिर से बारिश शुरू हो गयी। इस पर गाँव में एक बार फिर शोर होने लगा। क्योंकि कुछ लोग बारिश कम होने व पानी का बहाव कम होने के कारण छतों से नीचे उतर आये थे। लोगों का भरपूर प्रयास था कि किसी तरह जितना हो सके सामान बर्बाद होने से बच जाए तो अच्छा ही है।
कुछ ही देर में गाँव की गलियों तक सड़कों पर करीब दो से ढाई फुट पानी भर चुका था। गलियों व सड़कों के किनारे बने मकानों से पानी की लहरें टकरा रही थी। ऐसे में जो मकान कच्चे थे उनकी दीवार आदि ढह गयी थी। कुछ झोपड़ियों के छप्पर पानी में बह रहे थे। मकान गिरने पर छपाक की आवाज सुनाई देती। पुराने पड़ गये पेड़ भी धीरे-धीरे गिरने लगे। गाँव वालों का सारा सामान भी बह गया। बाढ़ के कारण गाँव के वे लोग बेघर हो गये जिनके मकान ‘कच्चे थे। लोगों का घरों में रखा अनाज पानी के कारण सड़ गया था। कुछ लोगों के पशु भी बह गये थे।
बाढ़ से मुक्ति तो मिल गयी लेकिन अगले दिन धूप निकलने पर जब सड़ांध उठी तो लोगों का जीना दूभर हो गया। गाँव में कई बीमारियाँ अपने पैर पसारने लगी। सरकार की ओर से सफाई आदि करवायी गयी। बेघर हो चुके लोगों की तंबुओं में रहने की अस्थायी व्यवस्था की गयी। सरकार की ओर से उन्हें घर बनाने के लिए आसान किस्तों में ऋण दिया गया। गाँव. में शिविर लगाकर लोगों को गाँव में रोगों के उपचार की सुविधा उपलब्ध करायी गयी। इनके अलावा कई स्वयंसेवी संगठनों ने भी बाढ़ पीड़ितो की जो मदद हो सकती थी की।
24. पर्यावरण प्रदूषण : प्रदूषण का स्वरूप व परिणाम
पर्यावरण प्रदूषण के कारण ही पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। इस ताप का प्रभाव ध्वनि की गति पर भी पड़ता है। तापमान में एक डिग्री सेल्सियस ताप बढने पर ध्वनि की गति लगभग साठ सेंटीमीटर प्रति सेकेण्ड बढ़ जाती है। आज हर ध्वनि की गति तीव्र है और श्रवण शक्ति का ह्रास हो रहा है। यही कारण है कि आज बहुत दूर से घोड़ों के टापों की आवाज जमीन पर कान लगाकर नहीं सुनी जा सकती। जबकि प्राचीन काल में राजाओं की सेना इस तकनीक का प्रयोग करती थी।
बढ़ते उद्योगों, महानगरों के विस्तार तथा सड़कों पर बढ़ते वाहनों के बोझ ने हमारे समक्ष कई तरह की समस्या खड़ी कर दी हैं। इनमें सबसे भयंकर समस्या है प्रदूषण। इससे हमारा पर्यावरण संतुलन तो बिगड़ ही रहा है साथ ही यह प्रकृति प्रदत्त वायु व जल को भी दूषित कर रहा है। पर्यावरण में प्रदूषण कई प्रकार के हैं। इनमें मुख्य रूप से ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण शामिल हैं। इनसे हमारा सामाजिक जीवन प्रभावित होने लगा है। तरह-तरह के रोग उत्पन्न होने लगे हैं।
औद्योगिक संस्थाओं का कूड़ा-करकट रासायनिक द्रव्य व इनसे निकलने वाला अवजल नाली-नालों से होते हुए नदियों में गिर रहे हैं। इसके अतिरिक्त अंत्येष्टि के अवशेष तथा छोटे बच्चों के शवों को नदी में बहाने की प्रथा है। इनके परिणामस्वरूप नदी का पानी दूषित हो जाता है। हालांकि नदी के इस जल को वैज्ञानिक तरीके से शोधित कर पेय जल बनाया जाता है। लेकिन इस कथित शुद्ध जल के उपयोग से कई प्रकार के विकार उत्पन्न हो रहे हैं। इनमें खाद्य विषाक्तता तथा चर्म रोग प्रमुख हैं। प्रदूषित जल मानव जीवन को ही नहीं कई अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित करता है। इससे कृषि क्षेत्र भी अछूता नहीं है। प्रदूषित जल से खेतों में सिंचाई करने के कारण उनमें उत्पन्न होने वाले खाद्य पदार्थों की शुद्धता व उसके अन्य पक्षों पर भी उसका दुष्प्रभाव पड़ता है।
प्रातः से ही हम ध्वनि प्रदूषण का शिकार होने लगते हैं। इस समय मन्दिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों में कीर्तन मण्डलियों द्वारा लाउडस्पीकर चलाकर भजन गाये जाते हैं। यह भी ध्वनि प्रदूषण का एक बहुत बड़ा हानिप्रद कारण है। इन पर अंकुश लगाने में हमारा धर्म आड़े आ जाता है। यही कारण है कि इस पर कानूनी अंकुश लगाने में सफलता नहीं मिल पा रही है। इसके अतिरिक्त मोटरों, कारों, ट्रकों, बसों, स्कूटरों आदि के तेज आवाज वाले हार्न, तेज गति व आवाज से दौड़ती रेलें, कल-कारखानों के बजते भोंपू व मशीनों की आवाज भी ध्वनि प्रदूषण फैलाती है। संगीत की कोकिल ध्वनि चित्त को जहाँ शांति व खुशी प्रदान करती है वहीं दूसरी ओर वाहनों का शोर हमें कान की व्याधि का शिकार बना रहा है। ध्वनि व शोर में कोई अधिक अंतर नहीं है। शोर वह ध्वनि है जिसे हम नहीं चाहते। अधिक तीव्रता एवं प्रबलता की ध्वनि ही शोर कहलाती है।
बड़े शहरों के खुले वातावरण में तीस डेसीबल का शोर हर समय रहता है। कभी-कभी यह पचास से डेढ़ सौ डेसीबल तक बढ़ जाता है। उल्लेखनीय है कि किसी सोये हुए व्यक्ति की निद्रा चालीस डेसीबल के शोर से खुल जाती है। पहले प्रातः चिड़ियों की चहचहाट से नींद खुलती थी लेकिन अब मोटर वाहनों की शोरगुल से नींद खुलती है। अकेले दिल्ली में सड़कों पर दौड़ते वाहनों एवं कर्कश कोलाहल से करीब सवा करोड़ की आबादी में से अधिकतर लोग शोर जनित बहरेपन के शिकार हैं। ऐसे लोगों की फुस्फुटाहट सुनाई देती। पचास डेसीबल का शोर हमारे श्रवण शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। दीवाली पर चलाये जाने वाले पटाखों का शोर दौ सौ डेसीबल से भी अधिक होता है।
ध्वनि प्रदूषण कानों की श्रवण शक्ति के लिए तो हानिकारक है ही, साथ ही यह तन मन की शक्ति को भी प्रभावित करता है। ध्वनि प्रदूषण के कारण मानव चिड़चिड़ा और असहिष्णु को जाता है। इसके अलावा अन्य कई विकार पैदा होने लगते हैं।
हमें प्रदूषण से बचने के लिए हरित क्षेत्र विकसित करना होगा। इसके अतिरिक्त आवासीय क्षेत्रों में चल रही औद्योगिक इकाइयों को वहाँ से स्थानांतरित कर इन इकाइयों से निकलने वाले कचरे को जलाकर नष्ट करने जैसे कुछ उपाय अपनाकर प्रदूषण पर कुछ हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है।
25. समाचार पत्र और उसकी उपयोगिता
समाचार पत्र ही एक ऐसा साधन है जिससे लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली फली-फूली। समाचार पत्र शासन और जनता के बीच माध्यम का काम करते हैं। समाचार पत्रों की आवाज जनता की आवाज कही जाती है। विभिन्न राष्ट्रों के उत्थान एवं पतन में समाचार पत्रों का बड़ा हाथ होता है। एक समय था जब देश के निवासी दूसरे देशों के समाचार के लिए भटकते थे। अपने ही देश की घटनाओं के बारे में लोगों को काफी दिनों बाद जानकारी मिल पाती थी। समाचार पत्रों के आने से आज मानव के समक्ष दूरी रूपी कोई दीवार या बाधा नहीं है।
किसी भी घटना की जानकारी उन्हें समाचार पत्रों से प्राप्त हो जाती है। विश्व के विभिन्न राष्ट्रों के बीच की दूरी इन समाचार पत्रों ने समाप्त कर दी है। मुद्रण कला के विकास के साथ-साथ समाचार पत्रों के विकास की कहानी भी जुड़ी है। वर्तमान में समाचार पत्रों का क्षेत्र अपने पूरे यौवन पर है। देश का कोई नगर ऐसा नहीं है जहाँ से दो-चार समाचार पत्रा प्रकाशित न होते हों। समाचार पत्र से अभिप्राय समान आचरण करने वाले से है। इसमें क्योंकि सामाजिक दृष्टिकोण अपनाया जाता है इसलिए इसे समाचार पत्र कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि भारतीय लोकतंत्र का चौथा स्थान समाचार पत्र है। समाचार पत्र निकालने के लिए कई लोगों की आवश्यकता होती है। इसलिए यह व्यवसाय पैसे वाले लोगों तक ही सीमित है।
किसी भी समाचार पत्र की सफलता उसके समाचारों पर निर्भर करती है। समाचारों का दायित्व व सफलता संवाददाता पर निर्भर करती है। समाचार पत्र एक ऐसी चीज है जो राष्ट्रपति भवन से लेकर एक खोमचे तक में देखने को मिल जाएगा। समाचार पत्रों के माध्यम से हम घर बैठे विश्व के किसी भी कोने का समाचार पा लेते हैं।
समाचार पत्रों से लाभ यह है कि इनमें एक तरफ समाचार जहाँ विस्तृत रूप से प्रकाशित होते हैं वहीं इनमें छपी सामग्री को हम काफी दिनों तक संभाल कर रख सकते हैं। दूरदर्शन या टीवी. चैनलों द्वारा प्राप्त समाचारों से संबंधित जानकारी हम भविष्य के लिए संभाल कर नहीं रख सकते हैं। इसके अलावा यह क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशित होने के कारण जो हिन्दी या अंग्रेजी नहीं जानते उन तक को समाचार उपलब्ध करवाते हैं।
26. भारत में हरित क्रान्ति
हरियाली का वास्तव में मानव-जीवन में यों ही बड़ा महत्त्व माना जाता है। हरा होना यानी सुखी और समृद्ध होना माना जाता है। इसी प्रकार जब किसी स्त्री को ‘गोद हरी’ होने का आशीर्वाद दिया जाता है, तो उसका अर्थ होता है गोद भरना यानी पुत्रवती होना। सो कहने का तात्पर्य है कि भारत में हरियाली या हरेपन को खिलाव, विकास एवं सब तरह से सुख-समृद्धि का प्रतीक माना गया है। हरित क्रान्ति का अर्थ भी देश का अनाजों या खाद्य पदार्थों की दृष्टि से सम्पन्न या आत्मनिर्भर होने का जो अर्थ लिया जाता है, वह सर्वथा उचित ही है।
ऐसा माना जाता है कि इस भारत भूमि पर ही फल-फूलों या वृक्षों पौधों के बीजों आदि को अपने आप पुनः उगते देखकर कृषि कार्य करके अपने खाने-पीने की समस्या का समाधान करने यानि खेती उगाने की प्रेरणा जागी थी। यहीं से यह चेतना और क्रिया धरती के अन्य देशों में भी गई। यह तथ्य इस बात से भी स्वतः उजागर है कि इस धरती पर मात्र भारत ही ऐसा देश है, जिसे आज भी कृषि प्रधान या खेतीबाड़ी प्रधान देश कहा और माना जाता है। लेकिन यही देश जब विदेशी आक्रमणों का शिकार होना आरम्भ हुआ, दूसरे इसकी जनसंख्या बढ़ने लगी, तीसरे समय के परिवर्तन के साथ सिंचाई आदि की व्यवस्था और नवीन उपयोगी औजारों-साधनों का प्रयोग न हो सका, चौथे विदेशी शासकों की सोची-समझी राजनीति और कुचालों का शिकार होकर इसे कई बार अकाल का शिकार होकर भूखों मरना पड़ा। अपना घर-बार त्यागना और अपनों तक को, अपने खेत तक को बेच खाने के लिए बाध्य होते रहना पड़ा है।
उपर्युक्त तथ्यों को दिन के प्रकाश की तरह सामने उजागर रहने पर भी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे तथाकथित भारतीय पर वस्तुतः पश्चिम के अन्धानुयायी बाँध और कल-कारखाने लगाने की होड़ में तो जुट गए पर जिन लोगों को यह सब करना है, उनका पेट भरने की दिशा में कतई विचार न कर पाए। खेतीबाड़ी को आधुनिक बनाकर हर तरह से उसे बढ़ावा देने के स्थान पर अमेरिका से .पी.एल. 480 जैसा समझौता करके उसके बचे-खुचे घटिया अनाज पर निर्भर करने लगे। इसका दुष्परिणाम सन् 1965 के भारत-पाक युद्ध के अवसर पर उस समय सामने आया, जब अमेरिका ने अनाज लेकर भारत आ रहे जहाज रास्ते में ही रुकवा दिए।
पाकिस्तान के नाज-नखरे उठाकर उसका कटोरा हमेशा हर प्रकार से भरा रखने की चिन्ता करने वाले अमेरिका ने सोचा कि इस तरह भूखों मरने की नौबत पाकर भारत हथियार डाल देगा। लेकिन उस समय के भारतीय धरती से सीधे जुड़े भारतीय प्रधानमन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा भी ईजाद किया। फलस्वरूप भारत में अनाजों के बारे में आत्मनिर्भर बनने के एक नए युग का सूत्रपात हुआ-हरित क्रान्ति लाने का युग। कहा जा सकता है कि भारत में युद्ध की आग से हरित क्रानित लाने का युग आरम्भ हुआ और आज की तरह शीघ्रता से चारों ओर फैलकर उसने देश को हरा-भरा बना भी दिया अर्थात खाद्य अनाजों के बारे में देश को पूर्णतया आत्मनिर्भर कर दिया।
हरित क्रान्ति ने भारत की खाद्य समस्या का समाधान तो किया ही, उसे उगाने वालों के जीवन को भी पूरी तरह से बदलकर रख दिया अर्थात् उनकी गरीबी भी दूर कर दी। छोटे-बड़े सभी किसान को समृद्धि और सुख का द्वार देख पाने में सफलता पा सकने वाला बनाया। खेती तथा अनाजों के काम-धंधों से जुड़े अन्य लोगों को भी काफी लाभ पहुँचा। सुख के साधन पाकर किसानों का उत्साह बढ़ा, तो उन्होंने दालें, तिलहन, ईख और हरे चारे आदि को अधिक मात्रा में उगाना आरम्भ किया। इससे इन सब चीजों के अभावों की भी कमी हुई।
हरित क्रान्ति लाने में खेोतेहर किसानों का हाथ तो है, इसके लिए नए-नए अनुसन्धान और प्रयोग में लगी सरकारी गैर-सरकारी संस्थाओं का भी निश्चय ही बहुत बड़ा हाथ है। उन्होंने उन्नत किस्म के बीजों का विकास तो किया ही है, खेतों की मिट्टी का निरीक्षण-परीक्षण कर यह भी बताया कि कहाँ की खेती और मिट्टी में कौन-सा बीज बोने से ज्यादा फल तथा लाभ मिल सकता है। नये-नये कीटनाशकों, खादों का उचित प्रयोग करना भी बताया। फलस्वरूप हरित क्रान्ति सम्भव हो सकी।
27. लोकप्रिय नेता-पूर्व प्रधानमंत्री : अटल बिहारी बाजपेयी
सफल वक्ता के रूप में ख्यातिलब्ध अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसम्बर 1924 को हुआ। आपके पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी स्कूल शिक्षक थे। आपके दादा पंडित श्यामलाल वाजपेयी संस्कृत के जाने माने विद्वान थे। अटल जी के नाम से प्रसिद्ध श्री वाजपेयी जी की शिक्षा विक्टोरिया कालेज में हुई। वर्तमान में इस कालेज का नाम बदलकर लक्ष्मीबाई कालेज कर दिया गया है। राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त करने के लिए श्री वाजपेयी कानपुर चले गये। जहाँ उन्होंने डी.ए.वी. कालेज से राजनीतिशास्त्र में एम.ए. पास किया।
इसके बाद उन्होंने कानून की शिक्षा पायी। उल्लेखनीय है कि श्री वाजपेयी के पिता श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी भी नौकरी से अवकाश लेने के बाद अटल जी के साथ ही कानून की शिक्षा लेने उनके कालेज आ गये। बाप-बेटे दोनों कालेज के एक ही कमरे में रहते थे। अटल जी कानून की शिक्षा पूरी नहीं कर पाये।
श्री वाजपेयी अपने प्रारम्भिक जीवन में ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़ गये। इसके अलावा वह आर्य कुमार सभा के भी सक्रिय सदस्य रहे। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के तहत उन्हें जेल जाना पड़ा। 1946 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने उन्हें अपना प्रचारक बनाकर लड्डुओं की नगरी संडीला भेजा। उनकी प्रतिभा को देखते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने लखनऊ से प्रकाशित राष्ट्रधर्म पत्रिका का संपादक बना दिया। इसके बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपना मुखपत्र पात्रचजन्य शुरू किया जिसका पहले संपादक श्री वाजपेयी जी को बनाया गया। वाजपेयी जी ने पत्रकारिता क्षेत्र में कुछ ही वर्षों में अपने को स्थापित कर ख्याति अर्जित कर ली बाद में वे वाराणसी से प्रकाशित चेतना, लखनऊ से प्रकाशित दैनिक स्वदेश और दिल्ली से प्रकाशित वीर अर्जुन के संपादक रहे।
श्री वाजपेयी जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। अपनी क्षमता, बौद्धिक कुशलता व सफल वक्ता की छवि के कारण श्री वाजपेयी श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी के निजी सचिव बन गये। श्री वाजपेयी ने 1955 में पहली बार लोक सभा चुनाव लड़ा। उस समय वह विजयालक्ष्मी पंडित द्वारा खाली की गयी लखनऊ लोकसभा सीट से उप चुनाव हार गये। आज भी श्री वाजपेयी का चुनाव क्षेत्र लखनऊ ही है।
1957 में बलरामपुर सीट से चुनाव जीतकर श्री वाजपेयी लोकसभा में गये लेकिन 1962 में वे कांग्रेस की सुभद्र जोशी से चुनाव हार गये। 1967 में उन्होंने फिर इस सीट पर कब्जा कर लिया। 1971 में ग्वालियर, 1977 और 1980 में नई दिल्ली, 1991, 1996 तथा 1998 में लखनऊ सीट से विजय प्राप्त की। आप दो बार राज्य सभा के सदस्य भी रहे। 1968 से 1973 तक आप जनसंघ के अध्यक्ष रहे। 1977 में जनता दल के विभाजन के बाद भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई। जिसके आप संस्थापक सदस्यों में शामिल थे।
1962 में आपको पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। 1994 में आप श्रेष्ठ सांसद के रूप में गोविन्द बल्लभ पन्त और लोकमान्य तिलक पुरस्कारों से नवाजे गये। आपातकाल के बाद मोरार जी देसाई जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने आपको अपने मंत्रिमंडल में विदेश मंत्री बनाया। विदेश मंत्री पद पर रहते हुए आपने पड़ोसी देशों खासकर पाकिस्तान के साथ मधुर संबंध बनाने की पहल कर सबको चौंका दिया। संयुक्त राष्ट्र महासभा में आपने अपनी मातृ भाषा हिन्दी में भाषण देकर एक नया इतिहास रचा।
श्री वाजपेयी एक प्रखर नेता होने के साथ-साथ कवि व लेखक भी हैं। आपने अनेक पुस्तकें लिखीं हैं जिनमें उनके लोकसभा में भाषणों का संग्रह, लोकसभा में अटल जी’, ‘मृत्यु या हत्या ‘ए ‘अमर बलिदान’, ‘कैदी कविराय की कुण्डलियाँ, ‘न्यू डाइमेन्शन ऑफ इण्डियन फॉरेन पालिसी’, फोर डिकेट्स इन पार्लियामेन्ट आदि प्रमुख हैं। आपका काव्य संग्रह ‘मेरी इक्यावन कविताएँ प्रमुख है।
विनम्र, कुशाग्र बुद्धि एवं अद्वितीय प्रतिभा सम्पन्न श्री वाजपेयी 19 मार्च, 1998 को संसदीय लोकतन्त्र के सर्वोच्च पद पर प्रधानमन्त्री के रूप में दुबारा आसीन हुए। लगभग 22 माह पहले भी वे इस पद को सुशोभित कर चुके थे लेकिन अल्प मत में होने के कारण उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा था। विशाल जनादेश ने श्री वाजपेयी से स्थायी और सुदृढ़ सरकार देने का आग्रह किया था।
2004 के लोकसभा चुनाव में राजग की हार के बाद श्री वाजपेयी जी को प्रधानमन्त्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा। तत्पश्चात् वे भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष बनाये तथा राजग के चेयरमैन पद पर आसीन किये गये।
28. डॉ. हरिवंशराय बच्चन : हिन्दी कविता का एक और सूर्यास्त
प्रखर छायावाद और आधुनिक प्रगतिवाद के मुख्य स्तम्भ माने जाने वाले डॉ. हरिवंशराय बच्चन का जन्म 27 नवम्बर 1907 को प्रयाग के पास स्थित अमोढ़ गाँव में हुआ था। उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा कायस्थ पाठशाला, सरकारी पाठशाला से प्राप्त की। इसके बाद की पढ़ाई उन्होंने इलाहाबाद के राजकीय कालेज और विश्व विख्यात काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से की। पढ़ाई खत्म करने के बाद वे शिक्षक पेशे से जुड़ गये और 1941 से 1952 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रवक्ता रहे।
इसके बाद वे पी.एच.डी. करने इंग्लैंड चले गये जहाँ 1952 से 1954 तक उन्होंने अध्ययन किया। हिन्दी के इस विद्वान ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की डिग्री डब्ल्यू. बी. येट्स के कार्यों पर शोध कर प्राप्त की। यह उपलब्धि प्राप्त करने वाले वे पहले भारतीय बने। अंग्रेजी साहित्य में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डॉ. की उपाधि लेने के बाद उनहोंने हिन्दी को भारतीय जन की आत्म भाषा मानते हुए इसी क्षेत्र में साहित्य सृजन का महत्वपूर्ण फैसला लिया। वे आजीवन हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में लगे रहे। कैम्ब्रिज से लौटने के बाद उन्होंने एक वर्ष पूर्व पद पर कार्य किया।
इसके बाद उन्होंने आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र में भी काम किया। वह सोलह वर्षों तक दिल्ली में रहे और उसके बाद विदेश मंत्रालय में दस वर्षों तक हिन्दी विशेषज्ञ जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहे। इन्हें राज्य सभी में छः वर्ष तक के लिए विशेष सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया। और 1972 से 1982 तक वह अपने पुत्रों अमिताभ व अजिताभ के साथ कभी दिल्ली कभी मुम्बई में रहे। बाद में उन्होंने दिल्ली में ही रहने का फैसला किया। यहाँ वह गुलमोहर पार्क में सौपान में रहने लगे। तीस के दशक से 1983 तक हिन्दी काव्य और साहित्यस की सेवा में वे लगे रहे।
डॉ. हरिवंशराय बच्चन द्वारा लिखी गयी ‘मधुशाला’ हिन्दी काव्य की कालजयी रचना मानी जाती है। इसमें उन्होंने शराब व मयखाना के माध्यम से प्रेम सौन्दर्य, पीडा, दु:ख, मृत्यु और जीवन के सभी पहलुओं को अपने शब्दों में जिस तरह से पेश किया ऐसे शब्दों का मिश्रण और कहीं देखने को नहीं मिलता। आम लोगों के समझ में आसानी से समझ में आ जाने वाली इस रचना को आज भी गुनगुनाया जाता है। डॉ. बच्चन जब खुद इसे गाकर सुनाते थे तो वे क्षण बहुत कृपा थी। भारतेन्दु ने अपनी जीवन काल में अनेक-पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। इसके अलावा उन्होंने सभाओं साहित्यिक गोष्ठियों तक कुछ साहित्यकारों को भी जन्म दिया। जीवन के अन्तिम पड़ाव में भारतेन्दु की आर्थिक स्थिति काफी दयनीय हो गयी थी। उन्हें क्षय रोग हो गया था। सम्वत् 1949 में हिन्दी साहित्य का यह प्रकाश पुंज सदैव के लिए लुप्त हो गया।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपनी देश प्रेम प्रधान रचनाओं द्वारा राष्ट्रीय जागरण का प्रथम उद्घोष किया। भारतेन्दु देश की दुर्दशा पर भगवान से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि-
गयो राज, धन, तेज, रोष, शान नसाई।
बुद्धि, वीरता, श्री, उछाह, सूरत बिलाई।
आलस, कायरपना निरुद्यमता अब छाई,
रही मूढ़ता, बैर, परस्पर, कलह, लड़ाई।
सामाजिक समस्याओं का चित्रण उन्होंने अपनी कई कविताओं में किया है। देश में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों व सामाजिक, धार्मिक आदि विषयों पर उन्होंने अपनी लेखनी चलाई।
29. एड्स
एड्स रोग आज पूरे विश्व में एक महामारी का रूप धारण कर चुका है। आये दिन अखबारों में इसके प्रकोप के कारण हुई मृत्यु के आँकडे से पता चलता है। इसकी जानकारी या अज्ञानता से आँकड़ों में किसी प्रकार की गिरावट नहीं आ रही। सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं के बावजूद इस रोग के रोगियों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। लोगों में इस रोग को लेकर कई तरह की भ्रांतियाँ हैं व उनमें भय व्याप्त है। देश की सांस्कृतिक सभ्यता व सामाजिक परिवेश में इसके रोगी पाना असंभव सा लग रहा था लेकिन देश में पश्चिमी सभ्यता की काली छाया पड़ने से बड़े-बड़े शहरों में इसके रोगी पाये जा रहे हैं। आज की युवा पीढ़ी पश्चिमी संस्कृति से ओत-प्रोत हो विलासिता पूर्ण जीवन बिताने में विश्वास रखती है।
भारत में एड्स का मामला 1986 में प्रकाश में आया था। वर्ष 1987 में सरकार द्वारा एड्स नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया गया। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन के हिसाब से भारत में एच. आई. वी. संक्रमित रोगियों की संख्या 1998 में तैंतीस लाख थी। वर्ष 2000 में यह संख्या बढ़कर 38 लाख 70 हजार हो गई थी।
वर्तमान में विश्व वैज्ञानिक प्रगति के कारण जहाँ मानव ने कई रोगों पर विजय प्राप्त करने में सफलता पाई है वहीं उसे कुछ नये रोगों से दो-चार होना पड़ रहा है। एक समय था जब क्षय रोग, काली खाँसी, हैजा, प्लेग, मलेरिया आदि रोग मौत के कारण माने जाते थे। इनमें से किसी रोग का नाम सुनते ही लोगों में भय उत्पन्न हो जाता था। धीरे-धीरे चिकित्सा क्षेत्र में किये जा रहे अनुसंधानों व खोजों द्वारा चिकित्सा विशेषज्ञों ने इन रोगों का उपचार ढूंढ निकाला है। बावजूद इसके कई नये रोगों के नाम समाचार पत्रों में पढ़ने व देखने को मिल रहे हैं। इनमें से कुछ रोग ऐसे हैं जिन पर अभी शोध व अनुसंधान चल रहे हैं।
एड्स रोग को लेकर समाज में तरह-तरह की भ्रांतियाँ हैं। दरअसल एड्स के बारे में ज्यादातर लोगों को सही जानकारी न होने के कारण इस रोग का लोगों में भय व्याप्त है। वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार जब किसी व्यक्ति के शरीर में एड्स का विषाणु (एच. आई. वी.) प्रवेश करता है तो वह व्यक्ति एच. आई. वी. से संक्रमित कहलाता है। उस व्यक्ति के संक्रमित होने के दस से पन्द्रह साल बाद उसके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता धीरे-धीरे खत्म होनी शुरू हो जाती है। दरअसल एच.आई. वी. के संक्रमण से रक्त में प्रतिरोधक क्षमता को कायम रखने का काम करने वाली CD नामक कोशिकाएँ धीरे-धीरे कम होने लगती हैं।
चिकित्सकों के अनुसार एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में इन कोशिकाओं की संख्या प्रति एक क्यूबिक मिलीलीटर रक्त में कम से कम एक हजार होनी चाहिए। लेकिन एच. आई. वी. संक्रमित व्यक्ति के शरीर में संक्रमण के दस पन्द्रह साल बाद इनकी संख्या घटकर महज दो सौ या इससे नीचे चली जाती है तो वह व्यक्ति एड्स रोगी कहलाता है। एड्स अपने आप में कोई रोग नहीं है। एड्स से ही अभी तक किसी की मौत नहीं हुई है। लेकिन समाज में अधिकांश लोगों का मानना है कि एड्स एक जानलेवा बीमारी है। दरअसल एड्स पीड़ित व्यक्ति में प्रतिरोधक क्षमता कम होने से उसे यदि कोई और बीमारी जैसे-टी. बी., मलेरिया, उल्टी, दस्त या अन्य कोई बीमारी हो जाती है तो उसके लिए उपचार कारगर नहीं रह जाता क्योंकि उसके शरीर का प्रतिरोधक तंत्र करीब-करीब नष्ट हो चुका होता है। इसलिए एड्स रोगी के शरीर पर दवाओं का असर नहीं पड़ता और वह मौत के मुँह में चला जाता है।
अब तक एड्स का न तो कोई टीका उपलब्ध है और न ही कोई प्रभावी दवा ही। हालांकि एटिरेट्रोवायरल दवाएँ बाजार में मौजूद हैं जिनसे एड्स रोगी की आयु थोड़ी बढ़ जाती है। यह दवा रक्त में मौजूद एच.आई.वी. विषाणुओं की संख्या को बढ़ाने से रोकती है। एड्स का विषाणु दो से चार, चार से आठ के क्रम में अपनी वृद्धि करता है। यदि कोई महिला एच. आइ. वी. संक्रमित है तो उससे उत्पन्न होने वाली संतान के एच. आई. वी. संक्रमित होने की आशंका चालीस से पचास फीसदी तक रहती है। लेकिन संक्रमित माँ का स्तन पान करने वाले बच्चों के एच. आई. वी. संक्रमित होने की वैज्ञानिकों द्वारा अभी तक पुष्टि नहीं की गई है। सावधानी बरतने के लिए चिकित्सक एच. आई. वी. संक्रमित माँ को यह सलाह अवश्य देते हैं कि वह अपने बच्चे को स्तन पान न कराये।।
एड्स के ज्यादा मामले असुरक्षित यौन संबंधों के कारण फैलते हैं। एड्स पर नियंत्रण पाने के लिए सरकार को यौन शिक्षा लागू करनी चाहिए। लेकिन इस शिक्षा के लागू करने के बावजूद भी ग्रामीणों अशिक्षितों को इस रोग के बारे में जागृत करने और इससे बचाव के उपाय बताने के लिए सरकार को ऐसा सूचना तंत्र विकसित करना होगा जो किसी भी भाषा जानने वाले को आसानी से समझ आ सके। इसके लिए धर्म गुरुओं और नेताओं को आगे आना होगा।
30. चाँदनी रात में नौका-विहार
नौका-विहार करना एक अच्छा शौक, एक स्वस्थ खेल, एक प्रकार का श्रेष्ठ व्यायाम तो है ही सही, मनोरंजन का भी एक अच्छा साधन है। सुबह-शाम या दिन में तो लोग नौकायन या नौका-विहार किया ही करते हैं, पर चाँदनी रात में ऐसा करने का सुयोग कभी कभार ही प्राप्त हो पाता है। गत वर्ष शरद पूर्णिमा की चाँदनी में नौका विहार का कार्यक्रम बनाकर हम कुछ मित्र (पिकनिक) मनाने के मूड में सुबह सवेरे ही खान-पान एवं मनोरंजन का कुछ समान लेकर नगर से कोई तीन किलोमीटर दूर बहने वाली नदी तट पर पहुँच गए।
वर्षा बीत जाने के कारण नदी तो यौवन पर थी ही, शरद ऋतु का आगमन हो जाने के कारण प्राकृतिक वातावरण भी बड़ा सुन्दर सुखद, सजीव और निखार पर था। लगता था कि वर्षा ऋतु के जल ने प्रकृति का कण-कण, पत्ता-पत्ता धो-पोंछ कर चारों ओर सजा संवार दिया है। मन्द-मन्द पवन के झोंके चारों ओर सुगन्धी को विखेर वायुमण्डल और वातावरण को सभी तरह से निर्मल और पावन बना रहे थे। उस सबका आनन्द भेगते हुए आते ही घाट पर जाकर हमने नाविकों से मिलकर रात में नौका विहार के लिए दो नौकायें तै कर ली और फिर खाने-पीने, खेलने, नाचने गाने, गप्पे और चुटकलेबाजी में पता ही नहीं चल पाया कि सारा दिन कब बीत गया। शाम का साया फैलते ही हम लोग चाय के साथ कुछ नाश्ता कर, बाकी खाने-पीने का सामान हाथ में लेकर नदी तट पर पहुँच गए। वहाँ तै की गई दोनों नौकाओं के नाविक पहले से ही हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। सो हम लोगों के सवार होते ही उन्होंने चप्पू सम्हाल कलछल बहती निर्मल जलधारा पर हंसिनी-सी तैरने वाली नौकायें छोड़ दी।
तब तक शरद पूर्णिमा का चाँद आकाश पर पूरे निखार पर आकर अपनी उजली किरणों से अमृत वर्षा करने लगा था। हमने सुन रखा था कि शरद पूर्णिमा की रात चाँद की किरणें अमृत बरसाया करती हैं, सो उनकी तरफ देखना एक प्रकार की मस्ती और पागलपन का संचार करने वाला हुआ करता है। इसे गप्प समझने वाले हम लोग आज सचमुच उस सबका वास्तविक अनुभव कर रहे थे। चप्पू चलने से कलछल करती नदी की शान्त धारा पर हंसिनी-सी नाव धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। किनारे क्रमशः हमसे दूर छिटकते जा रहे थे। दूर हटते किनारों और उन पर उगे वृक्षों के झाड़ों की परछाइयाँ धारा में बड़ा ही सम्मोहक सा दृश्य चित्र प्रस्तुत करने लगी थीं। कभी-कभी टिटीहरी या किसी अन्य पक्षी के एकाएक चहक उठने, किसी अनजाने पक्षी के पंख फड़फड़ा कर हमारे ऊपर से फुर्र करके निकल जाने पर वातावरण जैसे कुछ सनसनी सी उत्पन्न कर फिर एकाएक रहस्यमय हो जाता। फटी और विमुग्ध आँखों से सब देखते सुनते हम लोग लगता कि जैसे अदृश्यर्श्व परीलोक में आ पहुँचे हों।
31. नक्सलवाद
1960 में नक्सलवाद बंगाल के दार्जिलिंग जिले में किसान आन्दोलन के रूप में प्रारम्भ हुआ। 1967 में इसे नक्सली आन्दोलन कहा गया। 1969 में पी.सी.आई. की स्थापना हुई।
नक्सलवादी आन्दोलन के तीन घोपित उद्देश्य थे
- खेत जोतने वाले को खेत का हक मिले।
- विदेशी पूँजी की ताकत समाप्त की जाये।
- वर्ग और जाति के विरूद्ध संघर्ष प्रारम्भ किया।
1960-70 के दशक में मूल नक्सली आन्दोलन को कुचलने के बाद इसमें बिखराव हुआ और नई-नई शाखाओं-
प्रमुख नक्सली संगठन तथा उनके संस्थापक
प्रभावित राज्य-आन्ध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार।
कुल मौतें-नक्सली हिंसा से 2005 में 669 मौतें।
नक्सली हिंसा से निपटने के लिए सरकार की रणनीति
- नक्सलियों और आधारभूत ढाँचे व सहायक प्रणाली के विरूद्ध एक समन्वित प्रभावी पुलिस कार्यवाही को प्रभावी बनाने के लिए सम्मुन्नत सूचना संग्रहण और साझा तन्त्र का निर्माण करना।
- नक्सली हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में वृद्धि करने सहित त्वरित सामाजिक, आर्थिक विकास के उद्देश्य से जन शिकायतों के प्रभावी निराकरण व समुन्नत वितरण सम्ममा तन्त्र सुनिश्चित करने के लिए प्रशासनिक मशीनरी का सुदृढीकरण करना तथा उसे अधिक पारदर्शी उत्तरदायी व संवेदनशील बनाना और स्थानीय समूहों को प्रोत्साहित करना जैसे-छत्तीसगढ़ का सल्वा जुड़म अभियान।
- प्रभावित राज्यों द्वारा नक्सली गुटों के साथ शांति वार्ता करना यदि हिंसा का रास्ता छोड़ने और हथियार त्यागने के लिए तैयार हों।
32. भारत-पाक सम्बन्ध
महात्मा गाँधी और पं. नेहरू जैसे देश के कर्णधारों ने सन् 1947 के भयानक साम्प्रदायिक रक्तपात के फलस्वरूप अंग्रेजों का देश के विभाजन का प्रस्ताव इसलिए स्वीकार कर लिया था कि यह झगड़ा हमेशा के लिए शान्त एवं समाप्त हो जायेगा और दोनों देश अच्छे पड़ोसी के नाते एक-दूसरे उन्नति में सहयोग देते रहेंगे। उस समय राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन जैसे कुछ महान विचारक इसके विपरीत थे और पाकिस्तान को विष वृक्ष की संख्या देते थे, परन्तु बहुमत के आगे उन लोगों की आवाज धीमी पड़ गई और पाकिस्तान बन गया।
तब से आज तक 50 वर्ष हो चुके हैं, पाकिस्तान ने भारत के विरोध को अपनी विदेश नीति का प्रमुख लक्ष्य बनाया हुआ है। अब तक जितने भी शासक पाकिस्तान में आये, उन्होंने एक स्वर से भारत का विरोध किया और वहाँ की जनता को भड़काया। परिणामस्वरूप आज तक पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के ऊपर अत्याचार और बलात्कार होते रहे हैं। जनवरी सन् 1964 में पूर्वी पाकिस्तान में हुए बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक दंगे और हिन्दुओं का महाभिनिष्क्रमण तथा 1971 के गृह युद्ध के परिणामस्वरूप नवोदित बंगला देश में क्रूर नरसंहार, असंख्य शरणार्थियों के रूप में भारत में आ जाना, पाकिस्तान की बर्बरता पूर्ण नीति का ज्वलन्त उदाहरण है। जनवरी 1964 में हुए पूर्वी पाकिस्तान के साम्प्रदायिक दंगों पर अपने विचार प्रकट करते हुए लोकनायक श्री जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि “देश का बँटवारा समस्याओं का युक्तिसंगत समाधान सिद्ध नहीं हुआ।”
भारत के प्रति घृणा, कटुता और वैमनस्यपूर्ण नीतियों के कारण ही पाकिस्तान ने 9 अप्रैल, 1965 को कच्छ की सीमाओं पर आक्रमण कर दिया। इससे पूर्व पश्चिमी बंगाल की सीमा पर स्थित कूच बिहार, भकावाड़ी, तीसे बीघा, रटर-खरिया आदि स्थानों पर उसके आक्रमण हो ही रहे थे। 7 अप्रैल 1965 को स्वराष्ट्र मन्त्री ने लोकसभा को यह सूचना दी कि कच्छ-सिन्ध सीमा के दक्षिण में कंजर कोट कच्छ इलाके में पाकिस्तानी भारतीय सीमा में घुस आये हैं। इसके बाद 9 अप्रैल, 1965 से 1 मई, 1965 तक दोनों ओर से युद्ध चलता रहा। अन्त में 2 मई, 1965 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री श्री विल्सन के हस्तक्षेप से युद्ध विराम हुआ।
लेकिन दोनों देशों के प्रधानमन्त्रियों के समझौते के हस्ताक्षरों की स्याही भी अभी सूख न पाई थी कि पाकिस्तान ने 9 अगस्त, 1965 को कश्मीर पर पुनः भयानक आक्रमण कर दिया। यद्यपि भारत-पाक संघर्ष, द्वन्द्व और युद्ध की कहानी पाकिस्तान के जन्म के साथ-साथ प्रारम्भ हो गयी थी। तब से किसी न किसी रूप में इस कहानी की पुनरावृत्ति होती रही, परन्तु जिसे घोषित युद्ध कहते हैं वह यही था। वह यही युद्ध था जिसमें भारतीयों ने पाकिस्तानियों के दाँत खट्टे किये थे और उन्हें रूला दिया था। अगस्त 1965 में पाकिस्तान ने अपने मजाहिद आक्रमणकारियों को कश्मीर में भेजकर अक्टूबर 1947 को आक्रमण की पुनरावृत्ति की थी।
माओ-त्से-तुंग की नीति अपना कर पाकिस्तान ने आजाद कश्मीर तथा अपनी नियमित सेना को गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया। इसके लिए मरी में कैम्प, खोला गया था। अप्रैल 1965 से ये तैयारियाँ खूब जोर-शोर से चल रही थीं। इन्हें 5-6 हजार घुसपैठियों को बाकायदा टुकड़ियों और कम्पनियों में बांटकर तथा आधुनिक हथियारों से लैस करके 5 अगस्त, 1965 और उसके आस-पास के दिनों में पाकिस्तान ने कश्मीर में भेजना प्रारम्भ कर दिया। यही इस युद्ध का प्रारम्भ था।
इतने बड़े संघर्ष के बाद भी भारत ने अपनी अद्वितीय सहनशीलता और सहअस्तित्व की भावना का परिचय देते हुए ताशकंद घोषणा को स्वीकार किया और उस पर बराबर अमल किया। इतना होने पर भी पाकिस्तान ने सदैव भारत की मैत्री का प्रस्ताव ठुकराया है और भारत को खा जाने की सदैव धमकियाँ देता रहा है ऐसा क्यों? इसका केवल एक ही उत्तर है कि पाकिस्तान की नींव ही घृणा, द्वेष, कटुता, संकीर्णता, स्वार्थ और वैमनस्य पर रखी गई है। इस नीति को वहाँ का प्रत्येक शासक बढ़ावा देता रहा है। इससे उनको लाभ भी हुआ है कि वे वहाँ की जनता को भारत के विरोध के अलावा कुछ और सोचने का मौका ही नहीं देना चाहते अन्यथा उनका तख्ता पलट जायेगा। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात जहाँ भारत अपनी आर्थिक विकास की योजनाओं में लग गया वहाँ पाकिस्तानी जनता को उनके मूल अधिकारों तथा देश की वास्तविकता से दूर रखा जा सके।
33. नारी का महत्त्व
छायावादी कवि पन्त ने तो नारी को देवी माँ सहचरि, सखी प्राण कहकर श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं और उन्होंने अपने शब्दों में लिखा है-
यत्र नार्याऽस्तु पूजयन्ते
समन्ते तत्र देवता।
जैसे आदर्श उद्घोष से नारी का सम्मान किया है। नारी सृष्टि का प्रमुख उद्गम स्रोत है। नारी के अभाव में समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। सृष्टि सृजन से ही नारी का अस्तित्व रहा है। देव से लेकर मानव तक नारी ही जन्मदात्री रही है। बिना नारी के पुरुष अधूरा है। नारी के अभाव में घर-घर नहीं होता। चारदीवारी से घिरा घर घर नहीं कहा जाता। नारी का प्रमुख आधार है। विश्व में नारी का महत्व क्या रहा है यह तो एक विचारणीय विषय है। इस पर एक ग्रन्थ लिखा जा सकता है। मानव सृष्टि में पुरुष और नारी के रूप में आदि शक्ति ने दो अपूर्ण शरीरों का सृजन किया है।
एक के बिना दूसरा अपंग है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं अथवा समाज रूपी गाड़ी के दो पहिये हैं। पुरुष को सदैव से शक्तिशाली माना जाता रहा है और स्त्री को अबला नारी। यही कारण है कि नारी को बेचारी अबला आदि कहकर पीछे छोड़ दिया जाता है। नारी को तो अर्धांगिनी कहा जाता है, किन्तु पुरुष रूपी समाज का ठेकेदार . अपने को अर्धांग कहकर परिचय नहीं कराया गया है जो कि नारी के महत्व को कम करता है। एक प्रश्न विचारणीय है “यदि नारी अर्धांगिनी है तो उसका अद्धरंग कहाँ? उत्तर में पुरुष ही समझ में आता है। जो बहाव नारी का समाज में होना चाहिए वह महत्व पुरुष समाज में नारीको नहीं मिल पाता।
आँचल में दूध आँखों में पानी,
ओ अबला नारी तेरी यही कहानी॥
आज के युग में नारी वर्ग को कोई सम्मान नहीं दिया गया है। आज नारी के साथ द्रोपदी की तरह व्यवहार हो रहा है। नारी को इस संसार रूपी जगत में कौरवों रूपी दानवों ने कुचल दिया है। उसका घोर अपमान किया है और उसको नारी का महत्व नहीं दिया। नारी द्वापर काल से ही पीड़ित चली आ रही है। मत्य और नवीन युग में आकर स्थिति और बिगड़ गई। समाज में उसकी पीड़ा का कोई उपचार नहीं। नारी ने पुरुष की तुलना में जो अन्तर पाया, उसी को अपनी दयनीय स्थिति का कारण मान लिया। उसके मन में भावुकता अधिक समय तक न टिक सकी।
उसने अपने को मार्ध मानने के अतिरिक्त शेष हुतलिया मानने का निश्चय कर लिया। उसने अपने शील का परित्याग नहीं किया, किन्तु बाह्य जगत से कठोर संघर्ष करने का निश्चय कर लिया। नारी ने कभी शील परित्याग नहीं किया, किन्तु सर्वत्र कठोर संघर्ष करने का निश्चय कर प्राचीन काल से ही आन्दोलन करती चली आ रही है। रवना, लीलावती, अमयार तथा गार्गी की कथायें किसी से छिपी नहीं हैं। स्व. श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने सिद्ध कर दिया कि आज भी नारी सब प्रकार से पूर्ण शक्तिशाली है, किसी पुरुष से कम नहीं।
34. भारत व धर्मनिरपेक्षता
धर्मनिरपेक्षता हमारी संवैधानिक व्यवस्था की सामाजिक चेतना और मानवता का सार तत्व है। हमारा स्वराज आंदोलन, छोटे-मोटे भटकावों के बावजूद मूलतः धर्मनिरपेक्ष था। हमारे राष्ट्रीय नेताओं और जनता ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध धर्मनिरपेक्षता की तलवार से लड़ाई लड़ी। 1895 से लेकर संविधान निर्माण में किये गये अनेक प्रयोगों में धर्म, लिंग या अन्य बातों के भेदभाव से मुक्त समाज में मानव अधिकारों के मूल्य पर जोर दिया जाता रहा। पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा 15 सितम्बर 1946 को संविधान सभा में रखे गये उद्देश्यों के प्रस्ताव में धर्मनिरपेक्ष समाज में अंतर्भूत समाज के मूल्य तथा मानव अधिकारों पर जोर दिया गया।
अंत में संविधान की प्रस्तावना, मूलभूत अधिकारों तथा नीति निदेशक सिद्धान्तों के अध्यायों में भारत की कानून व्यवस्था के सर्वोपरि तत्वों के रूप में धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद और सामाजिक न्याय को रेखांकित किया गया। एक व्यक्ति एक मूल्य चाहे वह धार्मिक हो या अधार्मिक। फिर इस संबंध में सारे संदेह दूर करने के लिए संविधान के 42वें संशोधन के अंतर्गत जीवन का तानाबाद है। क्योंकि यह मात्र एक अभूत सिद्धांत, दार्शनिक मत अथवा सांस्कृतिक विलास नहीं है बल्कि यह हमारी मिली जुली विरासत के सूक्ष्म तंतुओं का प्राण है।
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य या सरकार को कोई धर्म नहीं है। उसके राज्य में सभी निवासी अपना धर्म मानने के लिए स्वतंत्र हैं। राज्य या शासन किसी को कोई धर्म मानने को विवश नहीं कर सकता। इसके लिए हर व्यक्ति स्वतंत्र है। सरकार या राज्य किसी धर्म में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। भारतीय संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया था। उसमें धर्मनिरपेक्ष के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया था। संविधान की इस धारा या नियम के अनुसार भारत का प्रत्येक नागरिक धार्मिक विश्वास के संबंध में स्वतंत्र है। सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक अधिकार प्राप्त हैं। भारत एक प्रजातांत्रिक देश है। प्रजातंत्र में प्रजा या जनता को सर्वोपरि स्वीकार किया जाता है। व्यक्ति की श्रेष्ठता तथा सम्मान को महत्व दिया जाता है। उसके व्यक्तिगत विचारों को आदर की दृष्टि से देखा जाता है। राज्य की दृष्टि में सभी नागरिक समान हैं।
मनुष्य जाति के प्रारम्भिक इतिहास में ऐसा नहीं था। पहले धर्म को श्रेष्ठ समझा जाता था तथा मनुष्य को राज्य के धर्म का पालन करना अनिवार्य था। राजा ईश्वर का प्रतिनिधि समझा जाता था। उसे दैवी अधिकार प्राप्त थे। धार्मिक गुरु की सलाह ही सब कुछ थी। कोई भी नागरिक राज्य या धर्म का विरोधी करने पर दंड का भागी होता था। धर्म के नाम पर सारे संसार का इतिहास रक्त से सना हुआ है। अपना धर्म श्रेष्ठ मानते हुए राजाओं तथा उनके समर्थकों ने दूसरे धर्म के लोगों पर भयानक अत्याचार किए। लोग धार्मिक अंधविश्वासों का पालन करते थे। हर जगह धर्म का हस्तक्षेप था। भारत में भी मनुष्यता के व्यक्तिगत जीवन के अतिरिक्त उसके राजनैतिक जीवन.पर धर्म का पूर्ण प्रभुत्व था। समय-समय पर हमारे दोष में कभी हिन्दू धर्म, कभी बौद्ध धर्म, कभी इस्लाम धर्म तथा कभी ईसाई धर्म का बोलबाला रहा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रजातंत्र की लहरों ने धर्म को उसके स्थान से गिरा दिया है। परिवर्तन ने व्यक्ति तथा इसकी स्वतंत्रता को सबसे ऊँचा स्थान दिया है। अब धर्म एक व्यक्तिगत वस्तु समझी जाती है। हमारे विचारकों ने स्वीकार किया है कि धर्म का राज्य से कोई संबंध नहीं है। धर्म तो मनुष्य की अपनी विचारधारा या संपत्ति है। वह इस मामले में स्वतंत्र है। वह चाहे धर्म का पालन करे, न करे अथवा किसी धर्म को बदलकर नया धर्म ग्रहण करे यह उसकी इच्छा पर निर्भर करता है। राज्य को धर्म या धार्मिक बातों से दूर रहना चाहिए।
धर्मनिरपेक्ष भारत में सभी धर्म तथा उनके मानने वाले एक समान हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने धार्मिक पाखंड को हटा दिया है। धर्मनिरपेक्ष भारत संसार का एक महान राष्ट्र है। इस सिद्धान्त ने पुरानी सड़ी-गली मान्यताओं को समाप्त कर दिया है। इससे सभी देशों में हमारा सम्मान बढ़ा है। आज का भारत अनेकता में एकता का श्रेष्ठ उदाहरण है। इस देश में सभी धर्मों तथा उनके मानने वालों का एक समान सम्मान है। यह हमारे प्रजातंत्र की सफलता है।
35. परिश्रम का महत्व
सफलता प्राप्त करने के लिए परिश्रम आवश्यक है। बिना परिश्रम के कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। मेहनत कर विशेष रूप से मन लगाकर किया जाने वाला मानसिक या शारीरिक श्रम परिश्रम कहलाता है। सृष्टि की रचना से लेकर आज की विकसित सभ्यता मानव परिश्रम का ही परिणाम है। जीवन रूपी दौड़ में परिश्रम करने वाला ही विजयी रहता है। इसी तरह शिक्षा क्षेत्र में परिश्रम करने वाला ही पास होता है। उद्यमी तथा व्यापारी की उन्नति भी परिश्रम में ही निहित है।
मानव जीवन में समस्याओं का अम्बार है। जिन्हें वह अपने परिश्रम रूपी हथियार से दिन-प्रतिदिन दूर करता रहता है। कोई भी समस्या आने पर जो लोग परिश्रमी होते हैं वे उसे अपने परिश्रम से सुलझा लेते हैं और जो लोग परिश्रमी नहीं होते वह यह सोचकर हाथ पर हाथ रखे बैठे रहते हैं कि समस्या अपने आप सुलझ जायेगी। ऐसी सोच रखने वाले लोग जीवन में कभी सफल नहीं हो पाते। परिश्रमी व्यक्ति को सफलता मिलने में हो सकता है देर अवश्य लगे लेकिन सफलता उसे जरूर मिलती है। यही कारण है कि परिश्रमी व्यक्ति निरन्तर परिश्रम करता रहता है।
सृष्टि के आदि से अद्यतन काल तक विकसित सभ्यता मानव के परिश्रम का ही फल है। पाषण युग से मनुष्य वर्तमान वैज्ञानिक काल में परिश्रम के कारण ही पहुँचा। इस दौरान उसे कई बार असफलता भी हाथ लगी लेकिन उसने अपना परिश्रम लगातार जारी रखा। परिश्रम से ही लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। आजकल के समय में जिसके पास लक्ष्मी है वह क्या नहीं पा सकता। परिश्रम से शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों का विकास होता है। कार्य में दक्षता आती है। साथ ही साथ मानव में आत्मविश्वास जागृत होता है।
परिश्रम का महत्व जीवन विकास के अर्थ में निश्चय ही सत्य और यथार्थ है। आज विज्ञान प्रदत्त जितनी भी सुविधाएँ मानव भोग रहा है वे परिश्रम का ही फल है। विज्ञान की विभिन्न सुविधाओं के द्वारा मनुष्य जहाँ चाँद पर पहुँचा है वहीं वह मंगल ग्रह पर जाने का प्रयास किये हुए हैं। यदि परिश्रम किया जाय तो किसी भी इच्छा को अवश्य पूरा किया जा सकता है। यह बात अलग है कि सफलता मिलने में कुछ समय लग जाए।
जीवन में सुख और शान्ति पाने का एक मात्र उपाय परिश्रम है। परिश्रम रूपी पथ पर चलने वाले मनुष्य को जीवन में सफलता संतुष्टि ओर प्रसन्नता प्राप्ति होती है। वह हमेशा उन्नति की ओर अग्रसर रहता है। आलसी व्यक्ति जीवन भर कुण्ठित और दु:खी रहता है। क्योंकि वह सब कुछ भाग्य के भरोसे पाना चाहता है। वह परिश्रम न कर व्यर्थ की बातें सोचता रहता है। ठीक इसके विपरीत परिश्रम करने वाला व्यक्ति अपना जीवन स्वावलंबी तो बनाता ही है श्रेष्ठता भी प्राप्त करता है।
36. क्रिकेट मैच का आँखों देखा हाल
सर्दियाँ शुरू होते ही भारत भर में क्रिकेट का बुखार सिर चढ़कर बोलने लगता है। हालांकि गली मोहल्लों में बच्चों को बारह महीने क्रिकेट खेलते देखा जा सकता है लेकिन सर्दियों के दौरान देश का ऐसा कोई हिस्सा नहीं होगा जहाँ गली-मोहल्लों में बच्चों को क्रिकेट खेलते न देखा जाए। बड़े खेल के मैदानों में तो इन दिनों और कोई दूसरा खेल खेलते मुश्किल से ही कोई नजर आए। क्रिकेट की शुरूआत इंग्लैंड से हुई थी लेकिन इसके प्रति वहाँ के लोगों में अब रुचि दिनों-दिन कम होती जा रही है। इसके अलावा अन्य देशों में भी अब इस खेल को अवकाश के दिन का खेल माना जाने लगा है।
हमारे देश में इस खेल का बुखार अभी जारी है। एक बार मुझे भी अंतर्राष्ट्रीय तो नहीं लेकिन हाँ राज्य स्तरीय क्रिकेट मैच देखने का शुभ अवसर मिल गया। हमारे घर के पास ही एक बड़ा खेल का मैदान है। यहाँ अक्सर छोटे-बड़े टूर्नामेंट चलते रहते हैं। इस मैदान में दिन में क्रिकेट आदि के मैच खेले जाते हैं तो रात में वॉलीबाल, हैंडबाल आदि के मैच खेले जाते हैं। एक दिन रविवार को मेरा मन हुआ कि चलो कहीं कोई खेल प्रतियोगिता देखी जाए। घर से निकलते ही मुझे मेरा एक मित्र मिल गया। उसने मुझसे कहा अरे भई सुबह-सुबह कहाँ तैयार होकर निकल रहे हो। तुम्हें पता है कि आज बड़े वाले खेल के मैदान में जो क्रिकेट टूर्नामेंट चल रहा है उसका फाइनल मैच है। टूर्नामेंट का आयोजन एक निजी संस्था द्वारा कराया जा रहा था।
टूर्नामेंट में दिल्ली की सर्वश्रेष्ठ छ: टीमों ने भाग लिया था। उनमें से आज सेमीफाइनल में पहुँची टीमों का फाइनल मैच था। फाइनल मैच होने के कारण बच्चों सहित बड़ों की भी वहाँ संख्या काफी थी। मैच के आयोजकों द्वारा मैच देखने आये लोगों के लिए बैठने की अच्छी व्यवस्था की गई थी। भीड़ के कारण सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस की भी सहायता ली गई थी। मैच देखने आये लोगों के बैठने की व्यवस्था काफी अच्छी की गयी थी।
टूर्नामेंट का फाइनल मैच शक्तिनगर क्रिकेट क्लब तथा न्यूलाइट क्रिकेट क्लब के मध्य खेला गया। मैच सुबह नौ बजकर तीस मिनट पर शुरू हुआ। टॉस शक्तिनगर क्रिकेट क्लब की टीम ने जीता और क्षेत्र रक्षण का जिम्मा संभाल न्यूलाइट क्रिकेट क्लब को बल्लेबाजी के लिए आमंत्रित किया। मैच चालीस ओवरों का था। न्यूलाइट क्रिकेट क्लब के प्रारम्भिक बल्लेबाज बहुत सस्ते में ही आउट हो गये। मध्य क्रम में खेलने आये क्लब के बल्लेबाजों ने विरोधी टीम के गेंदबाजों की धुनाई करनी शुरू कर दी। अपने तेज गेंदबाजों को पिटते देख शक्तिनगर क्रिकेट क्लब की टीम ने अपने स्पिनरों को गेंदबाजी का जिम्मा सौंपा। ये गेंदबाज एक हद तक न्यूलाइट क्रिकेट क्लब के बल्लेबाजों द्वारा की जा रही धुंवाधार बल्लेबाजी पर अंकुश लगाने में सफल रहे। बावजूद इसके न्यूलाइट क्रिकेट क्लब ने चालीस ओवर में सात विकेट खोकर 250 रन का स्कोर खड़ा किया।
करीब 30 मिनट के विश्राम के बाद मैदान पर शक्तिनगर क्रिकेट क्लब के शुरुआती बल्लेबाज मैदान पर उतरे। इसके बाद न्यूलाइट क्रिकेट क्लब के कप्तान ने अपने खिलाड़ियों को अपनी रणनीति के तहत क्षेत्र रक्षण के लिए मैदान में खड़ा कर दिया। न्यूलाइट क्रिकेट क्लब को पहले ही ओवर मे विकेट पाने में सफलता मिल गयी। पहले ओवर में विकेट खो देने के कारण शक्तिनगर क्रिकेट क्लब के बल्लेबाजों ने बिना किसी जोखिम के धीरे-धीरे रन बटोरे। 12 ओवर समाप्त होने पर शक्तिनगर क्रिकेट क्लब की टीम अपने चार विकेट केवल 60 रनों पर ही गवाँ चुकी थी।
न्यूलाइट क्रिकेट क्लब द्वारा तेज गेंदबाजों को हटा स्पिनर लगा देने से कोई खास फायदा नहीं हुआ बल्कि विरोधी टीम अपने खाते में आसानी से रन बटोरती चली जा रही थी। खेल धीमा हो चुका था। क्योंकि 35 ओवर की समाप्ति पर शक्तिनगर क्रिकेट क्लब की टीम केवल 140 रन ही बटोर सकी थी। उसके सात बल्लेबाज आउट हो चुके थे। अपनी जीत को आश्वस्त मान न्यूलाइट क्रिकेट क्लब के खिलाड़ियों ने मैच में अपनी पूरी जान लगा दी थी।
अंतिम तीन ओवरों में विरोधी टीम के बल्लेबाजों ने गेंदबाजों की जमकर धुनाई की लेकिन वह मैच नहीं जीत सके। शक्तिनगर क्रिकेट क्लब की टीम के नौ खिलाड़ी 212 रन पर आउट हो गये थे अंतिम जोड़ी मैदान में थी। इसी दौरान चालीस ओवर की समाप्ति पर अम्पायर ने सीटी बजाते हुए मैच खत्म होने का संकेत दिया। मैच खत्म होने के बाद मैन ऑफ दि मैच विजयी टीम के आक्रामक बल्लेबाज जिसने 10 गेंदों पर 22 रन बनाये थे को दिया गया। इस प्रकार न्यूलाइट क्रिकेट क्लब टूर्नामेंट की ट्रॉफी जीत गया। मैच के अंत में टूर्नामेंट की आयोजक कंपनी के चेयरमैन ने विजेता टीम को ट्रॉफी प्रदान की और उन्हें जीत कर बधाई दी। टूर्नामेंट की रनर्सअप रही शक्तिनगर क्रिकेट क्लब की टीम को उन्होंने पुरस्कार स्वरूप 20 हजार रुपये का चैक दिया।
37. मादक द्रव्य व्यसन-युवा पीढ़ी का भटकाव
पश्चिमी संस्कृति वाले देशों का अनुकरण करते हुए आज भारतीय युवा पीढ़ी में बढ़ती मादक पदार्थों का सेवन एक गंभीर समस्या का रूप धारण करती जा रही है। प्रकृति प्रदत्त मादक पदार्थों के सेवन की संस्कृति बहुत प्राचीन रही है। प्राचीन समय में लोग इन पदार्थों का इसलिए सेवन करते थे कि उन्हें आध्यात्मिक चिंतन तथा मनन के लिए उत्प्रेरक माना जाता था। साधु-संत अथवा योगियों का पेय पदार्थ का सेवन प्रगतिशील, आधुनिकता तथा बौद्धिकता का पर्याय मानकर तथा मूड परिवर्तन करने के लिए किया जा रहा है।
साधारणतया नशीली या मादक वस्तुएँ वे होती हैं जिनका सेवन से उसकी आदत पड़ जाती है जैसे तंबाकू, काफी, शराब आदि। इनके लगातार सेवन से आदत तो पड़ सकती है परंतु उन्हें छोड़ने में उतनी शारीरिक या मानसिक पीड़ा नहीं पहुँचती है कि उन वस्तुओं, द्रव्यों से जिनका प्रयोग शुरू की आदत की लत या व्यसन में परिवर्तित कर देता है। दूसरा यह कि नशीले पदार्थ जिनके सेवन से लोग इनके ऊपर पूरी तरह से आश्रित हो जाते हैं और जिन्हें इन पदार्थों का दास कहा जा सकता है। इसमें अफीम, कोकिन तथा स्मैक का नाम सरलता से लिए जा सकते हैं।
युवा पीढ़ी में इन दोनों पदार्थों का सेवन करने के मामले बहुत तेजी से प्रकाश में आ रहे हैं। इनकी मुख्य वजह माता-पिता में कटुता, झगड़े, बच्चों पर ध्यान न देना आदि है। माता-पिता में कटुता और झगड़ों का असर बच्चों पर भी पड़ता है। घर में स्नेह और सम्मान न मिलने पर वह बाहर की ओर देखता है। घर के वातावरण से मुक्ति के लिए वह दोस्तों के साथ रहना ज्यादा अच्छा मानता है। यदि ऐसे में नशेबाज मित्रों की संगत हो जाए तो नशे की लत पड़ना स्वाभाविक है।
इसके अलावा आज के युवा वर्ग द्वारा इन नशीले पदार्थों का सेवन अधिक करने के कारण हैं-पाठ्यक्रमों की नीरसता, मशीनी अध्ययन शैली, मौजूदा सामाजिक परिवेश, सिनेमा का प्रभाव, अच्छी आमदनी, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा आदि युवा वर्ग में नशीले पदार्थों का अधिक सेवन करने का कारण हैं। शिक्षित कहा जाने वाला वर्ग इसे बौद्धिक व्यक्तित्व में निखार, आंतरिक शक्यिों में वृद्धि, स्मरण शक्ति बढाने तथा अधिक परिश्रम करने के नाम पर अंगीकार कर रहा है। इन नशीली दवाओं के चपेट में युवक ही नहीं युवतियाँ भी तेजी से आती जा रही हैं।
38. पर्यावरण प्रदूषण : प्रदूषण का स्वरूप व परिणाम
पर्यावरण प्रदूषण के कारण ही पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। इस ताप का प्रभाव ध्वनि को गति पर भी पड़ता है। तापमान में एक डिग्री सेल्सियस ताप बढने पर ध्वनि की गति लगभग सात सेंटीमीटर प्रति सेकेण्ड बढ़ जाती है। आज हर ध्वनि की गति तीव्र है और श्रवण शक्ति का ह्रास हो रहा है। यही कारण है कि आज बहुत दूर से घोड़ों के टापों की आवाज जमीन पर कान लगाकर नहीं सुनी जा सकती। जबकि प्राचीन काल में राजाओं की सेना इस तकनीक का प्रयोग करती थी।
बढ़ते उद्योगों, महानगरों के विस्तार तथा सड़कों पर बढ़ते वाहनों के बोझ ने हमारे समक्ष कई तरह की समस्या खड़ी कर दी हैं। इनमें सबसे भयंकर समस्या है प्रदूषण। इससे हमारा पर्यावरण संतुलन तो बिगड़ ही रहा है साथ ही यह प्रकृति प्रदत्त वायु व जल को भी दूषित कर रहा है। पर्यावरण में प्रदूषण कई प्रकार के हैं। इनमें मुख्य रूप से ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण शामिल हैं। इनसे हमारा सामाजिक जीवन प्रभावित होने लगा है। तरह-तरह के रोग उत्पन्न होने लगे हैं।
औद्योगिक संस्थाओं को कूड़ा-करकट रासायनिक द्रव्य व इनसे निकलने वाला अवजल नाली-नालों से होते हुए नदियों में गिर रहे हैं। इसके अतिरिक्त अंत्येष्टि के अवशेष तथा छोटे बच्चों के शवों को नदी में बहाने की प्रथा है। इनके परिणामस्वरूप नदी का पानी दूषित हो जाता है। हालांकि नदी के इस जल को वैज्ञानिक तरीके से शोधित कर पेय जल बनाया जाता है। लेकिन इस कथित शुद्ध जल के उपयोग से कई प्रकार के विकार उत्पन्न हो रहे हैं। इनमें खाद्य विषाक्तता तथा चर्म रोग प्रमुख हैं। प्रदूषित जल मानव जीवन को ही नहीं कई अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित करता है। इससे कृषि क्षेत्र भी अछूता नहीं है। प्रदूषित जल से खेतों में सिंचाई करने के कारण उनमें उत्पन्न होने वाले खाद्य पदार्थों की शुद्धता व उसके अन्य पक्षों पर भी उसका दुष्प्रभाव पड़ता है।
शुद्ध वायु जीवित रहने के साथ-साथ हमारे जीवन के लिए आवश्यक हैं। शुद्ध वायु का स्रोत वन, हरे-भरे बाग व लहलहाते पेड़-पौधे हैं। क्योंकि यह जहाँ प्रदूषण के भक्षक हैं वहीं यह हमें आक्सीजन प्रदान करते हैं। बढ़ती जनसंख्या के कारण आवास की समस्या उत्पन्न होने लग रही है। मानव ने अपनी आवासीय पूर्ति के लिए वन क्षेत्रों और वृक्षों का भारी मात्रा में दोहन किया। इसके अलावा हरित पट्टियों पर कंकरीट के जाल रूपी सड़कें बिछा दी हैं। इस कारण हमें शुद्ध वायु नहीं मिल पा रही। इसके अतिरिक्त कारखानों से निकलने वाली विषैली गैसें, धुंआ, कूड़े-कचरों से उत्पन्न गैस वायु को प्रदूषित कर रही है। रही सही कसर पेट्रोलियम पदार्थ से चलने वाले वाहनों ने पूरी कर दी है।
स्कूटर, मोटरसाइकिल, कार, बस, ट्रक आदि वाहन दिन रात सड़कों पर दौड़ रहे हैं। इनसे जो धुंआ निकलता है उसमें कार्बनडाय ऑक्साइड, सल्फ्यूरिक ऐसिड और शीशे के तत्व शामिल होते हैं। जो हमारे वायुमंडल में घुसकर उसे प्रदूषित करते हैं। दिल्ली जैसे महानगर में वायु को प्रदूषित करने में वाहनों की अहम् भूमिका है। वायु को प्रदूषित करने में इनका हिस्सा साठ प्रतिशत तथा शेष कारखानों व अन्य स्रोतों के जरिये होता है। वायु प्रदूषण से श्वास सम्बन्धी रोग उत्पन्न होते हैं। इसके अलावा यह हमारे नेत्रों व त्वचा को भी प्रभावित करती है।
ध्वनि प्रदूषण कानों की श्रवण शक्ति के लिए तो हानिकारक है ही, साथ ही यह तन मन की शक्ति को भी प्रभावित करता है। ध्वनि प्रदूषण के कारण मानव चिड़चिड़ा और असहिष्णु को जाता है। इसके अलावा अन्य कई विकार पैदा होने लगते हैं।
हमें प्रदूषण से बचने के लिए हरित क्षेत्र विकसित करना होगा। इसके अतिरिक्त आवासीय क्षेत्रों में चल रही औद्योगिक इकाइयों को वहाँ से स्थानांतरित कर इन इकाइयों से निकलने वाले कचरे को जलाकर नष्ट करने जैसे कुछ उपाय अपनाकर प्रदूषण पर कुछ हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है।
39. समाचार पत्र और उसकी उपयोगिता
समाचार पत्र ही एक ऐसा साधन है जिससे लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली फली-फूली। समाचार पत्र शासन और जनता के बीच माध्यम का काम करते हैं। समाचार पत्रों की आवाज जनताकी आवाज कही जाती है। विभिन्न राष्ट्रों के उत्थान एवं पतन में समाचार पत्रों का बड़ा हाथ होता है। एक समय था जब देश के निवासी दूसरे देशों के समाचार के लिए भटकते थे। अपने ही देश की घटनाओं के बारे में लोगों को काफी दिनों बाद जानकारी मिल पाती थी। समाचार पत्रों के आने से आज मानव के समक्ष दूरी रूपी कोई दीवार या बाधा नहीं है।
किसी भी घटना की जानकारी उन्हें समाचार पत्रों से प्राप्त हो जाती है। विश्व के विभिन्न राष्ट्रों के बीच की दूरी इन समाचार पत्रों ने समाप्त कर दी है। मुद्रण कला के विकास के साथ-साथ समाचार पत्रों के विकास की कहानी भी जुड़ी है। वर्तमान में समाचार पत्रों का क्षेत्र अपने पूरे यौवन पर है। देश का केई नगर ऐसा नहीं है जहाँ से दो-चार समाचार पत्र प्रकाशित न होते हों। समाचार पत्र से अभिप्राय समान आचरण करने वाले से है। इसमें क्योंकि सामाजिक दृष्टिकोण अपनाया जाता है इसलिए इसे समाचार पत्र कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि भारतीय लोकतंत्र का चौथा स्थान समाचार पत्र है। समाचार पत्र निकालने के लिए कई लोगों की आवश्यकता होती है। इसलिए यह व्यवसाय पैसे वाले लोगों तक ही सीमित है।
किसी भी समाचार पत्र की सफलता उसके समाचारों पर निर्भर करती है। समाचारों का दायित्व व सफलता संवाददाता पर निर्भर करती है समाचार पत्र एक ऐसी चीज है जो राष्ट्रपति भवन से लेकर एक खोमचे तक में देखने को मिल जाएगा। समाचार पत्रों के माध्यम से हम घर बैठे विश्व के किसी भी कोने का समाचार पा लेते हैं।
समाचार पत्रों के लाभ यह है कि इनमें एक तरफ समाचार जहाँ विस्तृत रूप से प्रकाशित होते हैं वहीं इनमें छपी सामग्री को हम काफी दिनों तक संभाल कर रख सकते हैं। दूरदर्शन या टीवी. चैनलों द्वारा प्राप्त समाचारों से संबंधित जानकारी हम भविष्य के लिए संभाल कर नहीं रख सकते हैं। इसके अलावा यह क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशित होने के कारण जो हिन्दी या अंग्रेजी नहीं जानते उन तक को समाचार उपलब्ध करवाते हैं।