Bihar Board Class 12th Hindi Book Solutions
Bihar Board Class 12th Hindi व्याकरण समास
समास का अर्थ है, संक्षेप। कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक अर्थ प्रकट करना ‘समास’ का मुख्य प्रयोजन है। पं. कामताप्रसाद गुरु के अनुसार दो या अधिक शब्दों (पक्षों) का परस्पर सम्बन्ध बतानेवाले शब्दों अथवा प्रत्ययों का लोप होने पर उन दो या अधिक शब्दों से जो एक स्वतन्त्र शब्द बनता है, उस शब्द को सामासिक शब्द कहते हैं और उन दो या अधिक शब्दों का जो संयोग होता है, वह समास कहलाता है।
- समास में कम-से-कम दो पदों का योग होता है।
- वे दो या अधिक पद एक पद हो जाते हैं-‘एकपदीयभावः समासः’।
- समास में समस्त होनेवाले पदों का विभक्ति-प्रत्यय लुप्त हो जाता है।
- समस्त पदों के बीच सन्धि की स्थिति होने पर सन्धि अवश्य होती है। यह नियम संस्कृत तत्सम में अत्यावश्यक है।
सन्धि और समास-सन्धि और समास का अन्तर इस प्रकार है-
- समाय में दो पदों का योग होता है; किन्तु सन्धि में दो वर्णों का।
- समास में पदों के प्रत्यय समाप्त कर दिये जाते हैं। सन्धि के लिए दो वर्णों के मेल और विकार की गुंजाइश रहती है, जबकि समास को इस मेल या विकार से कोई मतलब नहीं।
- सन्धि के तोड़ने को ‘विच्छेद’ कहते हैं, जबकि समास का ‘विग्रह’ होता है। जैसे, ‘पीताम्बर’ में दो पद हैं-‘पीत’ और ‘अम्बर’। सन्धिविच्छेद होगा-पीत+अम्बर; जबकि समासविग्रह होगा-पीत है जो अम्बर या पीत है जिसका अम्बर पीताम्बर। यहाँ ध्यान देने की बात है कि हिन्दी में सन्धि केवल तत्सम पदों में होती है, जबकि समास संस्कृत तत्सम, हिन्दी, उर्दू हर प्रकार के पदों में। यही कारण है कि हिन्दी पदों के समास में सन्धि आवश्यक नहीं है।
समास के भेद
हिन्दी समास का अनुशीलन संस्कृत व्याकरण के आधार पर हुआ है। इस सम्बन्ध में हिन्दी की प्रकृति संस्कृत के अनुकूल है। कुल समास अपने भेदों के साथ इस प्रकार है-
अव्ययीभाव – अव्ययीभाव का लक्षण है-जिसमें पूर्वपद की प्रधानता हो और सामासिक या समास पद अव्यय हो जाय। इस समास में समूचा पद क्रियाविशेषण अव्यय हो जाता है। इसमें पहला पद उपसर्ग आदि जाति का अव्यय होता है और वही प्रधान होता है। संस्कृत में सामासिक पद अव्यय हो जाने के कारण वह नपुंसकलिंग की प्रथमा विभक्ति के एकवचन के ही रूप में होता है; जैसे-प्रतिदिन, यथाशक्ति, यथासम्भव, आजन्म, बेकाम, बेखटके, भरसक इत्यादि।
अव्ययीभाववाले पदों का विग्रह-ऐसे समस्त पदों को तोड़ने में, अर्थात् उनका विग्रह करने में हिन्दी में बड़ी कठिनाई होती है, विशेषतः संस्कृत के समस्त पदों का विग्रह करने में हिन्दी में जिन समस्त पदों में द्विरुक्तिमात्र होती है, वहाँ विग्रह करने में केवल दोनों पदों को अलग कर दिया जाता है। जैसे-(संस्कृत) प्रतिदिन-दिन-दिन, यथाविधि-विधि के अनुसार, यथाक्रम-क्रम के अनुसार; यथाशक्ति-शक्ति के अनुसार; यथासम्भव-सम्भावना के अनुसार; यथासाध्य-साध्य के अनुसार, आजन्म-जन्म तक; आमरण-मरण तक; यावज्जीवन-जब तक जीवन है; व्यर्थ-बिना अर्थ का।
तत्पुरुष-तत्पुरुष समास में अन्तिम पद प्रधान होता है। इस समास में साधारणतः प्रथम पद विशेषण और द्वितीय पद विशेष्य होता है। द्वितीय पद, अर्थात् बादवाले पद के विशेष्य होने के कारण इस समास में उसकी प्रधानता रहती है। इस समास के तीन भेद होते हैं-
- तत्पुरुष,
- कर्मधारय और
- द्विगु तथा छह उपभेद हैं-
- उपपद
- नञ्,
- प्रादि,
- अलुक्,
- मध्यमपदलोपी और
- मयूरव्यंसकादि।
जिस तत्पुरुष समास में कर्ताकारक की प्रथमा विभक्ति छिपी रहती है, उसे ‘समानाधिकरणतत्पुरुष’ अथवा कर्मधारय समास’ कहा जाता है। अगर इस कर्मधारय का पूर्वपद प्रथमा विभक्ति का संख्या वाचक शब्द है, तो उसे ‘द्विगु समास’ कहा जायेगा। शेष को ‘व्यधिकरणतत्पुरुष’ अथवा केवल ‘तत्पुरुष’ कहते हैं। व्यधिकरणतत्पुरुष समासों को पहले पद में लगी हुई काकर की विभक्तियों के नाम पर ही पुकारा जाता है। जैसे-कर्मकारक की विभक्ति लगने पर ‘कर्मतत्पुरुष’, करणकारक की विभक्ति लगने पर ‘करणतत्पुरुष’। इसी प्रकार, ‘सम्प्रदानतत्पुरुष, ‘अपादानतत्पुरुष’, ‘सम्बन्ध-तत्पुरुष’ और ‘अधिकरणतत्पुरुष’ समझना चाहिए। कर्ता और सम्बोधन को छोड़ शेष छह कारकों की विभक्तियों के अर्थ में तत्पुरुष समास होता है। तत्पुरुष समास में बहुधा दोनों पद संज्ञा या पहला पद संज्ञा और दूसरा विशेषण होता है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं-
कर्मतत्पुरुष-स्वर्गप्राप्त-स्वर्ग को प्राप्त; कष्टापन्न-कष्ट को आपन्न (प्राप्त), आशातीत-आशा की अतीत (लाँघकर गया हुआ); गृहागत-गृह को आगत।
करणतत्पुरुष-वाग्युद्ध-वाक् से युद्ध; आचारकुशल-आचार से कुशल; नीतियुक्त-नीति से युक्त; ईश्वरप्रदत्त-ईश्वर से प्रदत्त; तुलसीकृत-तुलसी से कृत; शहारत-शर से आहत; अकालपीड़ित-अकाल से पीड़ित; मदमाता-मद से माता; कपड़छना-कपड़े से छना हुआ; मुँहमाँगा-मुँह से माँगा।
सम्प्रदानतत्पुरुष-देशभक्ति-देश के लिए भक्ति; विद्यालय-विद्या के लिए आलय; कृष्णार्पण-कृष्ण के लिए अर्पण; रसोईघर-रसोई के लिए घर; हथकड़ी-हाथ के लिए कड़ी; . राहखर्च-राह के लिए खर्च।
अपादानतत्पुरुष-दूरागत-दूर से आगत, जन्मान्ध-जन्म से अन्धा; पदच्युत-पद से च्युत रणविमुख-रण से विमुख; ऋणमुक्त-ऋण से मुक्त; धर्मभ्रष्ट-धर्म से भ्रष्ट; देशनिकाला-देश से निकाला; कामचोर-काम से जी चुरानेवाला।
सम्बन्धतत्पुरुष-विद्याभ्यास-विद्या का अभ्यास, सेनापति-सेना का पति; माधव-मा (लक्ष्मी) का धव (पति); पराधीन-पर के अधीन; राजदरबार-राजा का दरबार।
अधिकरणतत्पुरुष-स्नेहमग्न-स्नेह में मग्न; गृहप्रवेश-गृह में प्रवेश; विद्याप्रवीण-विद्या में प्रवीण कविपुंगव-कवियों में पुंगव; आपबीती-आप (खुद) पर बीती; हरफनमौला-हर पल में मौला (हर हुनर का जानकार)।
तत्पुरुष समास का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। ऊपर द्वितीया, अर्थात् कर्मविभक्ति से सप्तमी अर्थात् अधिकरणविभक्ति तक के पूर्वपदोंवाला तत्पुरुष समास बताया जा चुका है। इसे ‘विभक्तितत्पुरुष’ भी कहा जाता है।
कर्मधारय-जिस तत्पुरुष समास के समस्त होनेवाले पद समानाधिकरण हों, अर्थात् विशेष्य-विशेषण भाव को प्राप्त हों, कर्ताकारक के हों और लिंग-वचन में समान हों, वहाँ
‘कर्मधारयतत्पुरुष समास’ होता है। कर्मधारय के चार भेद हैं-
- विशेषणपूर्वपद,
- विशेष्यपूर्वपद,
- विशेषणोभयपद और
- विशेष्योभयपद।
अर्थात् इस समास में कभी पहला पद, कभी दूसरा पद और कभी दोनों पद विशेषण होते हैं या कभी पहला पद, कभी दूसरा पद और कभी दोनों पद विशेष्य। जैसे-
विशेषणपूर्वपद-इसमें पहला पद विशेषण होता है। जैसे-पीत अम्बर-पीतारम्बर, परम ईश्वर-परमेश्वर; छोटे भैये-छुटभैये, नीली गाय-नीलगाय; प्रिय सखा-प्रिसखा।
विशेष्यपूर्वपद-इसमें पहला पद विशेष्य होता है और इस प्रकार के सामासिक पद अधिकतर संस्कृत में मिलते हैं। जैसे-कुमारी (क्वाँरी लड़की)। श्रमणा (संन्यास ग्रहण की हुई) = कुमार श्रमणा। – विशेषणोभयपद-इससे दोनों पद विशेषण होते हैं। जैसे-नील-पीत (नीला-पीला); शीतोष्ण (ठण्डा-गरम); लालपीला, भलाबुरा; दोचार; कृताकृत (किया-बेकिया, अर्थात् अधूरा छोड़ दिया गया); सुनी-अनसुनी; कहनी-अनकहनी।।
विशेष्योभयपद-इसमें दोनों पद विशेष्य होते हैं। जैसे-आमगाछ या आम्रवृक्ष, वायस-दम्पत्ति।
कर्मधारयतत्पुरुष समास के अन्य उपभेद हैं-
- उपमानकर्मधारय,
- उपमितकर्मधारय और
- रूपककर्मधारय।
जिसमें किसी की उपमा दी जाये, उसे ‘उपमान’ और जिसकी उपमा दी जाये, उसे ‘उपमेय’ कहा जाता है। घन की तरह श्याम-घनश्याम-यहाँ ‘घन’ उपमान है और ‘श्याम’ उपमेय।
उपमानकर्मधारय-इसमें उपमानवाचक पद का उपमेयवाचक पद के साथ समास होता है। इस समास में दोनों शब्दों के बीच से ‘इव’ या ‘जैसा’ अव्यय का लोप हो जाता है और दोनों ही पद, चूँकि एक ही कर्ताविभक्ति, वचन और लिंग के होते हैं, इसीलिए समस्त पद कर्मधारय-लक्षण का होता है। अन्य उदाहरण-विद्युत्-जैसी चंचला विधुच्चंचला।
उपमितकर्मधारय-यह उपमानकर्मधारय का उलटा होता है, अर्थात् इसमें उपमेय पहला पद होता है और उपमान दूसरा। जैसे-अधरपल्लव के समान अधरपल्लव; न सिंह के समान नरसिंह।
किन्तु, जहाँ उपमितकर्मधारय जैसा ‘नर सिंह के समान’ या ‘अधर पल्लव के समान’ विग्रह न कर अगर ‘नर ही सिंह’ या ‘अधर ही पल्लवन’-जैसा विग्रह किया जाये, अर्थात् उपमान-उपमेय की तुलना न कर उपमेय को ही उपमान कर दिया जाय-दूसरे शब्दों में, जहाँ एक का दूसरे पर आरोप कर दिया जाये, वहाँ रुपककर्मधारय होगा। उपमितकर्मधारय और रुपककर्मधारय में विग्रह का यही अन्तर है। रुपककर्मधारय के अन्य उदाहरण-मुख ही है चन्द्र-मुखचन्द्र; विद्या ही है रत्न-विद्यारत्न; भाष्य (व्याख्या) ही है अब्धि (समुद्र)=भाष्याब्धि।
द्विगु-जिस कर्मधारय का पूर्ववद संख्याबोधक हो, वह द्विगुकर्मधारय समास कहलाता है। इसके दो भेद हैं-
- समाहारद्विगु और
- उत्तरपदप्रधानद्विगु।
1. समाहार का अर्थ है ‘समुदाय’, ‘इकट्ठा होना’, ‘समेटना’। जैसे-तीनों लोकों का समाहार-त्रिलोक; पाँचों वटों का समाहार-पंचवटी; पाँच सेरों का समाहार-पसेरी; अष्ट (आठ) अध्याययों का समाहार-अष्टाध्यायी; तीनों भुवनों का समाहार-त्रिभुवन।
2. उत्तरपदप्रधान द्विगु के दो प्रकार हैं-
- बेटा या उत्पन्न के अर्थ में; जैसे-दो माँ का-द्वैमातुर या दुमाता; दो सूतों के मेल का-दुसूती;
- जहाँ सचमुच ही उत्तरपद पर जोर हो;
जैसे-पाँच प्रमाण (नाम)=पंचप्रमाण; पाँच हत्थड़ (हैण्डिल)=पचहत्थड़। . बहुव्रीहि-समास में आये पदों को छोड़कर जब किसी अन्य पदार्थ की प्रधानता हो, तब उसे बहुव्रीहि समास कहते हैं। इस समास के समासगत पदों में कोई भी प्रधान नहीं होता, बल्कि पूरा समस्तपद ही किसी अन्य पद का विशेषण होता है।
तत्पुरुष और बहुव्रीहि में अन्तर-तत्पुरुष और बहुव्रीहि में यह भेद है कि तत्पुरुष में प्रथम पद द्वितीय पद का विशेषण होता है, जबकि बहुव्रीहि में प्रथम और द्वितीय दोनों पद मिलकर अपने से अलग किसी तीसरे के विशेषण होते हैं। जैसे-पीत अम्बर-पीताम्बर (पीला कपड़ा) कर्मधारय पम्प तत्पुरुष है, तो ‘पीत है अम्बर जिसका वह-पीताम्बर (विष्णु) बहुव्रीहि। इस प्रकार, यह विग्रह के अन्तर से ही समझा जा सकता है कि कौन तत्पुरुष है और कौन बहुव्रीहि। विग्रह के अन्तर होने से समास का और उसके साथ ही अर्थ का भी अन्तर हो जाता है। ‘पीताम्बर’ का तत्पुरुष में विग्रह करने पर ‘पीला कपड़ा’ और बहुव्रीहि में विग्रह करने पर “विष्णु’ अर्थ होता है।
द्वन्द्व
द्वन्द्व समास में सभी पद प्रधान होते हैं। द्वन्द्व और तत्पुरुष से बने पदों का लिंग अन्तिम शब्द के अनुसार होता है।
द्वन्द्व समास के तीन भेद हैं-
- इतरेतर द्वन्द्व;
- समाहार द्वन्द्व और
- वैकल्पिक द्वन्द्व।
1. इतरेतर द्वन्द्व-वह द्वन्द्व, जिसमें ‘और’ से सभी पद जुड़े हुए हों और पृथक् अस्तित्व रखते हों, ‘इतरेतर द्वन्द्व’ कहलाता है। इस समास से बने पद हमेशा बहुवचन में प्रयुक्त होते हैं; क्योंकि वे दो या दो से अधिक पदों के मेल से बने होते हैं। जैसे-राम और कृष्ण-राम-कृष्ण, भरत और शत्रुघ्न-भरत-शत्रुघ्न, ऋषि और मुनि-ऋषि-मुनि, गाय और बैल-गाय-बैल, भाई और बहन-भाई-बहन, माँ और बाप-माँ-बाप; बेटा और बेटी-बेटा-बेटी इत्यादि।
प्रयोग की दृष्टि से समास के भे
प्रयोग की दृष्टि से समास के तीन भेद किये जा सकते हैं-
- संयोगमूलक समास,
- आश्रयमूलक समास और
- वर्णनमूलक समास।
संज्ञा समास-संयोगमूलक समास को द्वन्द्व समास अथवा संज्ञा-समास कहते हैं। इस प्रकार के समास में दोनों पद संज्ञा होते हैं। दूसरे शब्दों में, इसमें दो संज्ञाओं का संयोग होता है। जैसे-माँ-बाप, भाई-बहन, माँ-बेटी, सास-पतोहू, दिन-रात, रोटी-बेटी, माता-पिता, दही-बड़ा, दूध-दही, थाना-पुलिस, सूर्य-चन्द्र इत्यादि। इनमें सभी पद प्रधान होते हैं। किन्तु जहाँ योजक चिह्न (-) नहीं लगता, वहाँ तत्पुरुष समास होता है। तत्पुरुष में भी दो संज्ञाओं का संयोग होता है। जैसे-पाठशाला, गंगाजल, राजपुत्र, पर्णकुटीर इत्यादि।
विशेषण-समास-यह आश्रयमूलक समास है। यह प्रायः कर्मधारय समास होता है। इस समास में प्रथम पद विशेषण होता है, किन्तु द्वितीय पद का अर्थ बलवान होता है। कर्मधारय का अर्थ है कर्म अथवा वृत्ति धारण करनेवाला। यह विशेषण-विशेष्य, विशेष्य-विशेषण, विशेषण तथा विशेष्य पदों द्वारा सम्पन्न होता है। जैसे-
(क) जहाँ पूर्वपद विशेषण हो; यथा-कच्चाकेला, शीशमहल, महारानी।।
(ख) जहाँ उत्तरपद विशेषण हो; यथा-घनश्याम।
(ग) जहाँ दोनों पद विशेषण हो; यथा-लाल-पीला, खट्टा-मीठा।
(घ) जहाँ दोनों पद विशेष्य हों; यथा-मौलवीसाहब, राजाबहादुर।
अव्यय समास-वर्णमूलक समास के अन्तर्गत बहुव्रीहि और अव्ययीभाव समास का निर्माण होता है। इस समास (अव्ययीभाव) में प्रथम पद साधारणतः अव्यय होता है और दूसरा पद संज्ञा। जैसे-यथाशक्ति, यथासाध्य, प्रतिमास, यथासम्भव, घड़ी-घड़ी, प्रत्येक, भरपेट, यथाशीघ्र इत्यादि।
तत्पुरुष (कर्मतत्पुरुष)
करणतत्पुरुष
सम्प्रदानतत्पुरुष
अपादानतत्पुरुष
सम्बन्धतत्पुरुष
अधिकरणतत्पुरुष
कर्मधारयतत्पुरुष (विशेषणपूर्वपदाकर्मधारय)
विशेष्यपूर्वपदकर्मधारय
विशेषणोभवपदकर्मधारय
उपमानकर्मधारय
उपमितकर्मधारय
रूपकर्मधारय
द्विगुकर्मधारय (समाहारद्विगु)
उत्तरपदप्रधानद्विगु
बहुव्रीहि (समानाधिकरणबहुव्रीहि)
व्यतिहारबहुव्रीहि
तुल्ययोग या साहबहुविहि
व्यतिहारबहुविहि
प्रादिबहुव्रीहि
द्वन्द्व
इतरेतरद्वन्द्व
संहारद्वन्द
वैकलिप्डवांड