Bihar Board Class 9 Hindi Book Solutions Bihar Board Class 9 Hindi रचना निबंध लेखन Questions and Answers, Notes.
BSEB Bihar Board Class 9 Hindi रचना निबंध लेखन
Bihar Board Class 9 Hindi रचना निबंध लेखन Questions and Answers
1. होली
भूमिका-भारत उत्सवों का देश है। होली सबसे अधिक रंगीन और मस्त उत्सव है। इस दिन भारत का प्रत्येक हिन्दू भस्मीभूत शंकर भोले भण्डारी का अवतार होता है। भारतवर्ष में उस दिन सभी फक्कड़ता और मस्ती की भाँग में मस्त रहते हैं। होली वाले दिन लोग छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, गरीब-अमीर, ग्रामीण-शहरी का भेद भुलाकर एक दूसरे से गले मिलते हैं तथा परस्पर गुलाल मलते हैं। इस दिन प्रत्येक हिन्दू गुलाल से पता हआ नज़र आता है। – होली का महत्त्व-होली के मूल में हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद और होलिका का प्रसंग आता है।
हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मार डालने के लिए होलिका को नियुक्त किया था। होलिका के पास एक ऐसी चादर थी, जिसे ओढ़ने पर व्यक्ति आग के प्रभाव से बच सकता था। होलिका ने उस चादर को ओढ़कर प्रह्लाद को गोद में ले लिया और अग्नि में कूद पड़ी। वहाँ दैवीय चमत्कार हुआ। होलिका आग में जलकर भस्म हो गई, परन्तु रामभक्त प्रहलाद का बाल भी बाँका न हआ। भक्त की विजय हुई, राक्षस की पराजय। उस दिन सत्य ने असत्य पर विजय घोषित कर दी। तब से लेकर आज तक होलिका दहन की स्मृति में होली का मस्त पर्व मनाया जाता है।
मनाने की विधि-होलो का उत्सव दो प्रकार से मनाया जाता है। कुछ लोग रात्रि में लकड़ियाँ, झाड़-झंखाड़ एकत्र कर उसमें आग लगा देते हैं और समूह में इकट्ठे होकर गीत गाते हैं। आग जलाने की यह प्रथा होलिका-दहन की याद दिलाती है। ये लोग रात को आतिशबाजी आदि छोड़कर भी अपनी खुशी प्रकट करते हैं।
होली मनाने की दूसरी प्रथा आज सारे समाज में प्रचलित है। होली वाले दिन लोग प्रात:काल से दोपहर 12 बजे तक अपने हाथों में लाल, हरे, पीले रंगों का गुलाल लिए हुए परस्पर प्रेमभाव से गले मिलते हैं। इस दिन किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रखा जाता। किसी अपरिचित को भी गुलाल मलकर अपने हृदय के नजदीक लाया जा सकता है।
नृत्यभाव का वातावरण-होली वाले दिन गली-मुहल्लों में ढोल-मजीरे बजते सुनाई देते हैं। इस दिन लोग समूह-मण्डलियों में मस्त होकर नाचते-गाते हैं। दोपहर तक सर्वत्र मस्ती छाई रहती है। कोई नील-पीले वस्त्र लिए घूमता है, तो काई जोकर की मुद्रा में मस्त है। बच्चे पानी के रंगों में एक-दूसरे को नालाने का आनन्द लेते हैं। गुब्बारों में रंगीन पानी भरकर लोगों पर गुब्बारे फेकना भी बच्चों का प्रिय खेल होता जा रहा है। बच्चे पिचकारियों से भी रंग की वर्षा करते दिखाई देते हैं। परिवारों में इस दिन लड़के-लड़कियाँ, बच्चे-बूढ़े, तरुण-तरुणियाँ सभी मस्त होते हैं। प्रौढ़ महिलाओं की रंगबाजी बड़ी रोचक बन पड़ती है। यह सब वातावरण शहरी होली का है। गाँव में होली का रूप मर्दाना हो जाता है। होली आने से कई दिन पूर्व ही गाँव की महिलाएँ ऐंठनदार रस्सी से घर के पुरुषों को मरम्मत करती हैं। प्राय: भाभियाँ अपने देवरों को रस्से पर मचाती हैं।
दोष-होली के दिन कई बार अनुचित छेड़छाड़, मदिरापान, लड़कियों के साथ छेड़खानी करने के कारण झगड़े पैदा हो जाते हैं। इनके कारण रग में भंग पड़ जाता है। यदि इन दोषों को रोक लिया जाए तो इससे मस्त उत्सव ढूँढ़ना कठिन है।
2. दीपावली
अथवा, किसी त्योहार का वर्णन
भूमिका-दीपावली हिन्दुओं का महत्वपूर्ण उत्सव है। यह कार्तिक मास की अमावस्या की रात्रि में मनाया जाता है। इस रात को घर-घर में दीपक जलाए जाते हैं। इसलिए इसे ‘दीपावली’ कहा गया। रात्रि के घनघोर अन्धेरे में दीवाली का जगमगाता हुआ प्रकाश अति सुन्दर दृश्य की रचना करता है।
मनाने का कारण-दीवाली वर्षा-ऋतु की समाप्ति पर मनाई जाती है। धरतो की कीचड़ और गन्दगी समाप्त हो जाती है। अत: लोग अपने घरों-दुकानों की पूरी सफाई करवाते हैं ताकि सोलन, कीड़े-मकोड़े और अन्य रोगाणु नष्ट हो जाएँ। दीवाली से पहले लोग रंग-रोगन करवाकर अपने भवनों को नया कर लेते हैं। दीप जलाने का भी शायद यही लक्ष्य रहा होगा कि वातावरण के सब रोगाण नष्ट हो जाएँ।
दीवाली के साथ निम्नलिखित प्रसंग भी जडे हए हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन श्री रामचन्द्र जी रावण का संहार करने के पश्चात् वापस अयोध्या लौटे थे। उनकी खुशी में लोगों ने घी के दीपक जलाए थे। भगवान् महावीर ने तथा स्वामी दयानन्द ने इसी तिथि को निर्वाण प्राप्त किया था। इसलिए जैन सम्प्रदाय तथा आर्य समाज में भी इस दिन का विशेष महत्व है। सिक्खों के छठे गुरु हरगोविन्द सिंह जी भी इसी दिन कारावास से मुक्त हए थे। इसलिए गुरुद्वारों की शोभा इस दिन दर्शनीय होती है। इसी दिन भगवान् कृष्ण ने इन्द्र के क्रोध से ब्रज की जनता को बचाया था।
व्यापारियों का प्रिय उत्सव-व्यापारियों के लिए दीपावली उत्सव-शिरोमणि है। व्यापारी-वर्ग विशेष उत्साह से इस उत्सव को मनाता है। इस दिन व्यापारी लोग अपनीअपनी दुकानों का काया-कल्प तो करते ही हैं, साथ ही ‘शुभ-लाभ’ की आकांक्षा ” भी करते हैं। बड़े-बड़े व्यापारी प्रसन्नता में अपने ग्राहक-वृन्द में मिठाई आदि का वितरण करते हैं। घर-घर में लक्ष्मी का पूजन होता है। ऐसी मान्यता है कि उस रात लक्ष्मी घर में प्रवेश करती हैं। इस कारण लोग रात को अपने घर के दरवाजे खुले रखते हैं। हलवाई और आतिशबाजी की दुकानों पर इस दिन विशेष उत्साह होता है। बाजार मिठाई से लद जाते हैं। यह एक दिन ऐसा होता है, जब गरीब से अमीर तक, कंगाल से राजा तक सभी मिठाई का स्वाद प्राप्त करते हैं। लोग आतिशबाजी छोडकर भी अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। गृहिणियाँ इस दिन कोई-न-कोई बर्तन खरीदना शकुन समझती हैं।
निष्कर्ष-दीवाली की रात को कई लोग खुलकर जुआ खेलते हैं। इस कुप्रथा को बन्द किया जाना चाहिए। कई बार जुएबाजी के कारण प्राणघातक झगड़े हो जाते _ हैं। आतिशबाजी पर भी व्यर्थ में करोड़ों-अरबों रुपया खर्च हो जाता है। कई बार आतिशबाजी के कारण आगजनी की दुर्घटनाएं हो जाती हैं। इन विषयों पर पर्याप्त विचार होना चाहिए।
3. मेरे जीवन का लक्ष्य
अथवा, मेरी सबसे बड़ी आकांक्षा
लक्ष्य की आवश्यकता-प्रत्येक मानव का कोई-न-कोई लक्ष्य होना चाहिए। बिना लक्ष्य के मानव उस नौका के समान है जिसका कोई खेवनहार नहीं है। ऐसी नौका कभी भी भँवर में डूब सकती है और कहीं भी चट्टान से टकराकर चकनाचूर हो सकती है। लक्ष्य बनाने से जीवन में रस आ जाता है।
मेरे जीवन का लक्ष्य-मैंने यह तय किया है कि मैं पत्रकार बनूँगा। आजकल सबसे प्रभावशाली स्थान है-प्रचार-माध्यमों का। समाचार-पत्र, रेडियो, दूरदर्शन आदि चाहें तो देश में आमूल-चूल बदलाव ला सकते हैं। मैं भी ऐसे महत्वपूर्ण स्थान पर पहुँचना चाहता हूँ जहाँ से मैं देशहित के लिए बहुत कुछ कर सकूँ। पत्रकार बनकर मैं देश को तोड़ने वाली ताकतों के विरुद्ध संघर्ष करूँगा, समाज को खोखला बनाने वाली कुरीतियों के खिलाफ जंग छेडूंगा और भ्रष्टाचार का भण्डाफोड़ करूँगा।
यह प्रेरणा कैसे मिली-मेरे पड़ोस में एक पत्रकार रहते हैं-मि० नटराजन। वे इण्डियन एक्सप्रेस के संवाददाता तथा भ्रष्टाचार-विरोधी विभाग के प्रमुख पत्रकार हैं। उन्होंने पिछले वर्ष गैस एजेन्सी की धाँधली को अपने लेखों द्वारा बन्द कराया था। उन्हीं के लेखों के कारण हमारे शहर में कई दीन-दुखो लोगों को न्याय मिला है। उन्होंने बहू को जिन्दा जलाने वाले दोषियों को जेल में भिजवाया, नकली दवाई बेचने वाले का लाइसेंस रद्द करवाया, प्राइवेट बस वालों की मनमानी को रोका तथा बस-सुविधा को सुचारू बनाने में योगदान दिया। इन कारणों से मैं उनका बहुत आदर करता हूँ। मेरा भी दिल करता है कि मैं उनकी तरह श्रेष्ठ पत्रकार बनूँ और नित्य बढ़ती समस्याओं का मुकाबला करूं।
मुझे पता है कि पत्रकार बनने में खतरे हैं तथा पैसा भी बहुत नहीं है। परन्तु मैं पैसा के लिए या धन्धे के लिए पत्रकार नहीं बनूंगा। मेरे जीवन का लक्ष्य होगा-समाज की कुरीतियों और भ्रष्टाचार को समाप्त करना। यदि मैं थोड़ी-सी बुराइयों को भी हटा सका तो मुझे बहुत सन्तोष मिलेगा। मैं हर दुखी को देखकर दुखी होता हूँ, हर बुराई को देखकर उसे मिटा देना चाहता हूँ। मैं स्वस्थ समाज को देखना चाहता हूँ। इसके लिए पत्रकार बनकर हर दुख-दर्द को मिटा देना मैं अपना धर्म समझता हैं।
लक्ष्य प्राप्ति की तैयारियाँ-केवल सोचने भर से लक्ष्य नहीं मिलता। मैंने इस लक्ष्य को पाने के लिए कुछ तैयारियाँ भी शुरू कर दी हैं। मैं दैनिक समाचार-पत्र पढ़ता हूँ, रेडियो-दूरदर्शन के समाचार तथा अन्य सामयिक विषयों को ध्यान से सुनता । हूँ। मैंने हिन्दी तथा अंग्रेजी भाषा का गहरा अध्ययन करने की कोशिशें भी शुरू कर – दी हैं ताकि लेख लिख सकूँ। वह दिन दूर नहीं, जब मैं पत्रकार बनकर समाज को
सेवा करने का सौभाग्य पा सकूँगा।
4. भारत प्यारा देश हमारा
अथवा, भारत प्यारा सबसे न्यारा
अथवा, प्यारा भारत देश हमारा
अथवा, कितना निराला देश हमारा
अथवा, मेरा भारत महान
भूमिका-मेरा प्यारा देश भारत अपने अतीत में महान-गौरवशाली इतिहास समेटे हुए है। इसके गर्भ में अनेक प्राचीन-संस्कृतियाँ एवं मानव-सभ्यता के क्रमिक-विकास की गौरवपूर्ण-गाथा है, जिससे हम भारतवासी अंपनी अद्वितीय आन-बान-शान से विश्व में अग्रणी रहे हैं।
भारतीय संस्कृति-भारत की संस्कृति की गणना विश्व की प्राचीनतम् सभ्यताओं में होती है। संसार की प्रायः सभी संस्कृतियों के नष्ट होने पर भी भारतीय-संस्कृति समय के अनेक झंझावातों और तूफानों के सामने अपनी उच्चता और महानता को अक्षुण रखे हुए है। मानव-संस्कृति के आदिम-ग्रंथ ऋग्वेद की रचना का श्रेय इसी देश को प्राप्त है। इस देश के मनीषी आत्मा और परमात्मा की गुत्थियाँ सुलझानेवाले कोरे दार्शनिक ही नहीं थे, वरन् ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों की गहराई से खोज की। संगीतकला, चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्यकला में भी हमने बेजोड़ (आश्चर्यजनक) उन्नति की। हमारे देश में उस-समय ही उच्चकोटि की नागरिक सभ्यता विकसित हो चुकी थी जिस-समय संसार का अधिकांश भाग घुमंतू जीवन अपनाए हुए था। सिंधु-घाटी की सभ्यता इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
प्राकृतिक शोभा-मेरा देश भारत प्रकृति की पुण्य-लीलास्थली तथा विश्व का सिरमौर है। माँ भारती के मस्तक पर हिमालय मकट के समान, गले में गंगा तथा यमुना हार के समान और दक्षिण में भारत-माता के चरणों को हिन्द-महासागर निरंतर धोता रहता है। गंगा, यमुना, सतलुज, व्यास, गोमती, कावेरी जैसी अनेक नदियों का यह देश अन्न के रूप में सोना उगलता है तथा केवल यहीं पर छः ऋतुएँ आती हैं।
अनेकता में एकता-अपने अंतर में संजोए अनेक प्राचीन-संस्कृतियों का साक्षी हमारा देश समय-समय पर आने वाली विभिन्न संस्कृतियों, धर्म और सम्प्रदायों को अपने यहाँ आश्रय देता रहा है। यही कारण है कि यहाँ अनेकता में एकता का अद्वितीय उदाहरण मिलता है। विविध आस्थाओं, धार्मिक-विश्वासों और सामाजिक जीवन-शैली की अनूठी मिसाल है, यह “अनेकता में एकता”। मेरा देश भारत सामाजिक-धार्मिक अनंकता (विविधता) को एक सूत्र में पिरोये है।
उपसंहार-उपरोक्त तथ्यों के संदर्भ में हमारे देश के विषय में निम्नांकित निष्कर्ष उभर कर सामने आते हैं,-() अनेक प्राचीन-संस्कृतियों एवं मानव-सभ्यता का केन्द्र (ii) महान गौरवशाली इतिहास का भंडार (iii) आध्यात्मिक दार्शनिक तथा ज्ञानी-विज्ञानी विभूतियों एवं मनीषियों की कर्मभूमि (iv) अपूर्व प्राकृतिक-शोभा, छः ऋतुओं एवं प्रचुर-मात्रा में उत्पन्न करनेवाली उर्वरा धरती (v) अनेकता में एकता के अनुपम उदाहरण का पावन एवं महापरम्पराओं वाला-हमारा भारत देश संसार में एकमात्र मिसाल है। अपने देश की गौरवमयी-परम्पराओं तथा वैभवशाली इतिहास को अक्षुण बनाने हेतु यही निश्चय करें-
जिएँ तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष।
निछावर कर दं हम सर्वेस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।।
तो निश्चित रूप से भारत, उन्नति के शिखर पर अग्रसर होता चला जाएगा।
5. विज्ञान : वरदान या अभिशाप
विज्ञान के दो रूप-विज्ञान एक शक्ति है, जो नित नए आविष्कार करती है। यह
शक्ति न तो अच्छी है, न बुरी। वह तो केवल शक्ति है। अगर हम उस शक्ति से मानव-कल्याण के कार्य करें तो वह ‘वरदान’ प्रतीत होती है। अगर उसी से विनाश करना शुरू कर दें तो वह ‘अभिशाप’ बन जाती है।
विज्ञान वरदान के रूप में-विज्ञान ने अन्धों को आँखें दी है, बहरों को सुनने की ताकत। लाइलाज रोगों की रोकथाम की है तथा अकाल मृत्यु पर विजय पाई है। विज्ञान की सहायता से यह युग बटन-युग बन गया है। बटन दबाते ही वायु-देवता हमारी सेवा करने लगते हैं, इन्द्र-देवता वर्षा करने लगते हैं, कहीं प्रकाश जगमगाने लगता है तो कहीं शीत-ऊष्ण वायु के झोंके सुख पहुँचाने लगते हैं। बस, गाड़ी, वायुयान आदि ने स्थान की दूरी को बाँध दिया है। टेलीफोन द्वारा तो हम सारी वसुधा से बातचीत करके उसे वास्तव में कुटुम्ब बना लेते हैं। हमने समुद्र की गहराइयाँ भी नाप डाली हैं और आकाश की ऊँचाइयाँ भी। हमारे टी० वी०, रेडियो, वीडियो में मनोरंजन के सभी साधन कैद हैं। सचमुच विज्ञान ‘वरदान’ ही तो है।
विज्ञान अभिषाप के रूप में मनुष्य ने जहाँ विज्ञान से सुख के साधन जुटाए हैं, वहाँ दुख के अम्बार भी खड़े कर लिए हैं। विज्ञान के द्वारा हमने अणु बम, परमाणु बम तथा अन्य ध्वंसकारी शस्त्र-अस्त्रों का निर्माण कर लिया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अब दुनिया में इतनी विनाशकारी सामग्री इकट्ठी हो चुकी है कि उससे सारी पृथ्वी को अनेक बार नष्ट किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रदूषण को समस्या बहुत बुरी तरह फैल गई है। नित्य नए असाध्य रोग पैदा होते जा रहे हैं, जो वैज्ञानिक साधनों के अन्धाधुन्ध प्रयोग करने के दुष्परिणाम हैं।
वैज्ञानिक प्रगति का सबसे बड़ा दुष्परिणाम मानव-मन पर हुआ है। पहले जो मानव निष्कपट था, निस्वार्थ था, भोला था, मस्त और बेपरवाह था, वह अब छली, स्वार्थी, चालाक, भौतिकवादी तथा तनावग्रस्त हो गया है। उसके जीवन में से संगीत गायब हो गया है, धन की प्यास जाग गई है। नैतिक मूल्य नष्ट हो गए हैं।
निष्कर्ष-वास्तव में विज्ञान को वरदान या अभिशाप बनाने वाला मनष्य है। जैसे अग्नि से हम रसोई भी बना सकते हैं और किसी का घर भी जला सकते हैं, जैसे चाकू से हम फलों का स्वाद भी ले सकते हैं और किसी की हत्या भी कर सकते हैं, उसी प्रकार विज्ञान से हम सुख के साधन भी जुटा सकते हैं और मानव का विनाश भी कर सकते हैं। अत: विज्ञान को वरदान या अभिशाप बनाना मानव के हाथ में है। इस सन्दर्भ में एक उक्ति याद रखनी चाहिए-‘विज्ञान अच्छा सेवक है लेकिन बुरा हथियार।
6. प्रदूषण की समस्या
अथवा, पर्यावरण प्रदूषण : एक गम्भीर समस्या
अथवा, पर्यावरण-प्रदूषण
अथवा, प्रदूषण-समस्या और समाधान
अथवा, महानगरों में बढ़ता प्रदूषण
प्रदूषण का अभिप्राय-विज्ञान के इस युग में मानव को जहाँ कुछ वरदान मिले हैं, वहाँ कुछ अभिशाप भी मिले हैं। प्रदूषण भी एक ऐसा अभिशाप है जो विज्ञान की कोख में से जन्मा है और जिसे सहने के लिए अधिकांश जनता मजबर है।
प्रदूषण के प्रकार-प्राकृतिक सन्तुलन में दोष पैदा होना। न शुद्ध वायु मिलना, न शुद्ध जल मिलना, न शुद्ध खाद्य मिलना, न शान्त वातावरण मिलनाः प्रदूषण कई प्रकार का होता है। प्रमुख प्रदूषण हैं-वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण और ध्वनि-प्रदूषण।
महानगरों में यह प्रदूषण अधिक फैला हुआ है। वहाँ चौबीसा घण्टे कलकारखानों का धुआँ, मोटर-वाहनों का काला धुआँ इस तरह फैल गया है कि स्वस्थ वायु में साँस लेना दूभर हो गया है। मुम्बई की महिलाएँ धोए हुए वस्त्र छत से उतारने जाती हैं तो उन पर काले-काले कण जमे हुए पाती हैं। ये कण सॉस के साथ मनुष्य के फेफड़ों में चले जाते हैं और असाध्य रोगों को जन्म देते हैं। यह समस्या वहाँ अधिक होती है जहाँ सघन आबादी होती है, वृक्षो का अभाव होता है और वातावरण तंग होता है।
कल-कारखानों का दूषित जल नदी-नालों में मिलकर भयंकर जल-प्रदूषण पैदा करता है। बाढ़ के समय तो कारखानों का दुर्गन्धित जल सब नदी-नालों में घुलमिल जाता है। इससे अनेक बीमारियाँ पैदा होती हैं।
मनुष्य को रहने के लिए शान्त वातावरण चाहिए। परन्तु आजकल कलकारखानों का शोर, यातायात का शोर, मोटर-गाड़ियों की चिल्ल-पों, लाउडस्पीकरों की कर्ण भेदक ध्वनि ने बहरेपन और तनाव को जन्म दिया है:
उपर्युक्त प्रदूषणों के कारण मानव के स्वस्थ जीवन को खतरा पैदा हो गया है। खुली हवा में लम्बी साँस लेने तक को तरस गया है आदमीः गन्द जल के कारण कई बीमारियाँ फसलों में चली जाती हैं जो मनुष्य के शरीर में पहुंचकर घातक बीमारियाँ पैदा करती हैं। भोपाल गैस कारखाने से रिसी गैस के कारण हजारों लोग मर गए, कितने ही अपंग हो गए। पर्यावरण-प्रदूषण के कारण न समय पर वर्षा आती है, न सदी-गर्मी का चक्र ठीक चलता है। सखा, बाढ, ओला आदि प्राकृतिक प्रकोपों का कारण भी प्रदूषण है।
प्रदूषण को बढ़ाने में कल-कारखाने, वैज्ञानिक साधनो का अधिकाधिक उपयोग, फ्रिज, कूलर, वातानुकूलन, ऊर्जा संयंत्र आदि दोषी है। प्राकृतिक संतुलन का बिगड़ना भी मुख्य कारण है। वृक्षों को अन्धाधुन्ध काटने से मौसम का चक्र बिगड़ा है। घनी आबादी वाले क्षेत्रों में हरियाली न होने से भी प्रदूषण बढ़ा है।
समाधान-विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों से बचने के लिए हमें चाहिए कि अधिकाधिक वृक्ष लगाए जाएँ, हरियाली की मात्रा अधिक हो। सड़कों के किनारे घने तृक्ष हो। आबादी वाले क्षेत्र खुले हों, हवादार हों, हरियाली से आतप्रोत हो कल-कारखानों को आबादी से दूर रखना चाहिए और उनसे निकले प्रदूषित मल को नष्ट करने के उपाय सोचने चाहिए।
उपसंहारः-इन तमाम विचारणीय और महत्वपूर्ण तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रदूषण की समस्या मानव निर्मित है। जहां एक ओर मनुष्य की लापरवाही एवं जानबूझकर प्रदूषित करने की गलत आदतें हैं, वहीं विज्ञान का दुरुपयोग भी एक अन्य कारण है। कारखानों तथा नालों का मल और कचरा, चिमनी से निकलने वाला धुंआ, मोटर गाड़ियों का कार्बन पर्यावरण को प्रदूषित करता है। साथ ही, वृक्षों की कटाई वायु को दूषित करती हैं अतः हमें इनसे बचना होगा। कचरों, गन्दे-जल का समुचित रख-रखाव होना चाहिए।
7. दहेज-प्रथा
अथवा, दहेज प्रथा : एक गम्भीर समस्या
अथवा, दहेज : एक कुप्रथा
दहेज समस्या-दहेज भारतीय समाज के लिए अभिशाप है। यह कुप्रथा घुन की तरह समाज को खोखला करती चली जा रही है। इसने नारी-जीवन और सामाजिक व्यवस्था को तहस-नहस करके रख दिया है।
दहेज क्या है? -विवाह के अवसर पर कन्या पक्ष द्वारा वर पक्ष को उपहार के रूप में जो भेंट दी जाती है, उसे ‘दहेज’ कहते हैं। यह प्रथा अत्यन्त प्राचीनकाल से चली आ रही है। आज यह प्रथा बुराई का रूप धारण कर चुकी है, परन्तु मूल रूप में – यह बुराई नहीं है।
प्रश्न उठता है कि दहेज को बुराई क्यों कहा जाता है? विवाह के समय प्रेम का उपहार देना बुरा कैसे है? क्या एक पिता अपनी कन्या को खाली हाथ विदा कर दे? नहीं। अपनी प्यारी बिटिया के लिए धन, सामान, वस्त्र आदि देना प्रेम का प्रतीक है। परन्तु यह भेंट प्रेमवश दी जानी चाहिए, मजबूरी में नहीं। दूसरे, दहेज़ अपनी शक्ति के अनुसार दिया जाना चाहिए, धाक जमाने के लिए नहीं। तीसरे, दहेज दिया जाना ठीक है, माँगा जाना ठीक नहीं। दहेज को बुराई वहाँ कहा जाता है, जहाँ माँग होती है। दहेज प्रेम का उपहार है, जबरदस्ती खींच ली जाने वाली सम्पत्ति नहीं।
दुर्भाग्य से आजकल दहेज की जबरदस्ती मांग की जाती है। दूल्हों के भाव लगते हैं। बुराई को हद यहाँ तक बढ़ गई है कि जो जितना शिक्षित है, समझदार है, उसका भाव उतना ही तेज है। आज डॉक्टर, इन्जीनियर का भाव दस-पन्द्रह लाख, आई०ए०एस० का चालीस-पचास लाख, प्रोफेसर का आठ-दस लाख, ऐसे अनपढ़ व्यापारी जो खद कोडी के तीन बिकते हैं, उनका भी भाव कई बार लाखों तक जा पहुँचता है। ऐसे में कन्या का पिता कहाँ मरे? वह दहेज की मण्डी में से योग्यतम वर खरीदने के लिए धन कहाँ से लाए? बस यहीं से बुराई शुरू हो जाती है।
दुष्परिणाम-दहेज-प्रथा के दुष्परिणाम विभिन्न हैं। या तो कन्या के पिता को लाखों का दहेज देने के लिए घस रिश्वतखोरी भ्रष्टाचार, काला-बाजार आदि का सहारा लेना पड़ता है, या उसकी कन्याएँ अयोग्य वरों के मत्थे मढ़ दी जाती हैं। मुंशी प्रेमचन्द की ‘निर्मला’ दहेज के अभाव में बूढ़े तोताराम के साथ ब्याह दी गई। परिणाम क्या हुआ? तोताराम की हरी-भरी ज़िन्दगी श्मशान में बदल गई। स्वयं निर्मला भी तनावग्रस्त होकर चल बसी। हम रोज समाचार-पत्रों में पढ़ते हैं कि अमुक शहर में कोई युवती रेल के नीचे कट मरी, किसी बहू को ससुराल वालों ने जलाकर मार डाला, किसी ने छत से कूदकर आत्महत्या कर ली। ये सब घिनौने परिणाम दहेज रूपी दैत्य के ही हैं।
रोकने के उपाय-हालांकि दहेज को रोकने के लिए समाज में संस्थाएँ बनी हैं, युवकों से प्रतिज्ञा-पत्रों पर हस्ताक्षर भी लिए गए हैं, कानून भी बने हैं, परन्तु समस्या ज्यों की त्यों है। सरकार ने ‘दहेज निषेध’ अधिनियम के अन्तर्गत दहेज के दोषी को कड़ा दण्ड देने का विधान रखा है। परन्तु वास्तव में आवश्यकता है-जन-जागृति की। जब तक यवक दहेज का बहिष्कार नहीं करेंगे और यवतियाँ दहेज-लोभी युवकों का तिरस्कार नहीं करेंगी, तब तक यह कोढ़ चलता रहेगा। हमारे साहित्यकारों और कलाकारों को चाहिए कि वे युवकों के हृदयों में दहेज के प्रति तिरस्कार जगाएँ। प्रेम-विवाह को प्रात्साहन देने से भी यह समस्या दूर हो सकती है।
8. बेकारी की समस्या
अथवा, युवा वर्ग और बेकारी की समस्या
अथवा, बेरोजगारी की समस्या
वेरोजगारी-समस्या और समाधान
भूमिका-आज भारत के सामने अनेक समस्याएँ चट्टान बनकर प्रगति का रास्ता रोके खड़ी है: उनमें से एक प्रमुख समस्या है-बेरोजगारी। महात्मा गाँधी ने इसे समस्याओं को समस्या कहा था।
अर्थ-वेरोज़गारी का अर्थ है-योग्यता के अनुसार काम का न होना। भारत में मुख्यतया तीन प्रकार के बेरोज़गार हैं। एक वे, जिनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं है। वे पूरी तरह खाली हैं। दूसरे, जिनके पास कुछ समय काम होता है, परन्तु मौसम या काम का समय समाप्त होते ही वे बेकार हो जाते हैं। ये आंशिक बेरोजगार लाते हैं। तीसरे वे, जिन्हें योग्यता के अनुसार काम नहीं मिला। जैसे कोई एम०ए० करके रिक्शा चला रहा है या बी०ए० करके पकौड़े बेच रहा है।
कारण-बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण है-जनसंख्या-विस्फोट। इस देश में रोजगार देने की जितनी योजनाएँ बनती हैं, वे सब अत्यधिक जनसंख्या बढ़ने के कारण बेकार हो जाती हैं। एक अनार सौ बीमार वाली कहावत यहाँ पूरी तरह चरितार्थ होती है। बेरोजगारी का दूसरा कारण है-युवकों में बाबूगिरी की होड़ नवयुवक हाथ का काम करने में अपना अपमान समझते हैं। विशेषकर पढ़े-लिखे युवक दफ्तरी ज़िन्दगी पसन्द करते हैं। इस कारण वे रोजगार कार्यालय की धूल फाँकते रहते हैं।
बेकारी का तीसरा बड़ा कारण है-दूषित शिक्षा-प्रणाली। हमारी शिक्षा प्रणाली नित नए बेरोजगार पैदा करती जा रही है। व्यावसायिक प्रशिक्षण का हमारी शिक्षा में अभाव है। चौथा कारण है-गलत योजनाएँ। सरकार को चाहिए कि वह लघु उद्योगों को प्रोत्साहन दे। मशीनीकरण को उस सीमा तक बढ़ाया जाना चाहिए जिससे कि रोज़गार के अवसर कम न हों। इसीलिए गाँधीजी ने मशीनों का विरोध किया था, क्योंकि एक मशीन कई कारीगरों के हाथों को बेकार बना डालती है। सोचिए, अगर सादुन बनाने का लाइसेंस बड़े उद्योगों को न दिया जाए तो उससे हजारों-लाखों युवक यह धन्धा अपनाकर अपनी आजीविका कमा सकते हैं।
दुष्परिणाम-बेरोजगारी के दुष्परिणाम अतीव भयंकर हैं। खाली दिमाग शैतान का घर। बेरोजगार युवक कुछ भी गलत-सलत करने पर उतारू हो जाता है। वही शान्ति को भंग करने में सबसे आगे होता है। शिक्षा का माहौल भी वही बिगाड़ते हैं जिन्हें अपना भविष्य अन्धकारमय लगता है।
समाधान-बेकारी का समाधान तभी हो सकता है, जब जनसंख्या पर रोक लगाई जाए। युवक हाथ का काम करें। सरकार लघु उद्योगों को प्रोत्साहन दे। शिक्षा व्यवसाय से जुड़े तथा रोजगार के अधिकाधिक अवसर जुटाए जाएँ।
9. सर्व शिक्षा अभियान
भूमिका-भारत में आजादी के बाद से देशवासियों में शिक्षा का प्रचार होना शुरू हुआ, लेकिन इसमें आशातीत सफलता नहीं मिली। आजादी के साठ साल बीतने के बाद भी देश में लगभग चालीस प्रतिशत लोग अशिक्षित हैं। अशिक्षा देश के लिए अभिशाप है। अशिक्षित व्यक्ति राष्ट्र की मुख्य धारा में नहीं आ सकता।
भारत की बौद्धिक पृष्ठ भूमि :-भारत की बौद्धिक पृष्ठभूमि बहुत ही गौरवशाली रही है। प्राचीन भारत की वौद्धिक परम्परा विश्व में सर्वश्रेष्ठ है। भारत के ऋषि-मुनि गुरुकुल परम्परा के अन्तर्गत सबको शिक्षा प्रदान करते थे। साथ ही, गुरु अपने शिष्यों को अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, धर्मशास्त्र आदि सभी विषयों की शिक्षा देते थे। लेकिन, हजार वर्ष की गुलामी में गुरु परम्परा का अंत हो गया।
जीवन में शिक्षा का महत्व :-आज मानव जीवन में शिक्षा का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। निरक्षरता अभिशाप है और साक्षरता वरदान है। शिक्षा से अपार ज्ञान राशि का भंडार खल जाता है। अधिकार और कर्तव्य की समझ बढ़ जाती है तथा शोषण के विरुद्ध लड़ने की क्षमता में वृद्धि होती है। साक्षरता मानव जीवन को सार्थक बनाती है। शिक्षा के अभाव में कोई व्यक्ति अपने उद्देश्य की प्राप्ति नहीं कर सकता।
सरकारी प्रयत्न :-अशिक्षा की समस्या के समाधान हेतु संविधान का 86 वाँ संशोधन किया गया। इस संशोधन के तहत 6 से 14 साल तक के सभी बालक-बालिकाओं को शिक्षा उपलब्ध करना अनिवार्य कर दिया गया था। इसी संशोधन के तहत केन्द्र सरकार ने सर्वशिक्षा अभियान का शुभारंभ किया।
सर्वशिक्षा अभियान देश के 25 राज्यों एवं संघीय क्षेत्रों के छह सौ जिलों में स्थित छः लाख चालीस हजार गाँवों में चालू किया गया। इस अभियान में करोड़ों बच्चों को सम्मिलित किया गया। इस अभियान के उद्देश्यों में कहा गया कि सभी पढ़ें, सभी बढ़ें, क्योंकि साक्षर भारत ही समर्थ भारत की नींव है।
उपसंहार : – अतः सर्वशिक्षा अभियान एक सर्वोच्च कार्यक्रम है। इस अभियान को सफल बनाने में सरकार, सरकारी कर्मचारी एवं सामान्य जनता सबकी भागीदारी अनिवार्य है। यदि देश में सर्व शिक्षा अभियान सफल होता है तो भारत में एक नये : युग का प्रारम्भ होगा। घर-घर में खुशहाली आयगी। देश विकसित होगा। देश में समृद्धि आयगी।
10. समाचार-पत्र का महत्त्व
अथवा, समाचार-पत्र : ज्ञान का सशक्त माध्यम
अथवा, समाचार-पत्र
भूमिका-समाचार-पत्र वह कड़ी है जो हमें शेष दुनिया से जोड़ती है। जब हम समाचार-पत्र में देश-विदेश की खबरें पढ़ते हैं तो हम पूरे विश्व के अंग बन जाते हैं। उससे हमारे हृदय का विस्तार होता है।
लोकतंत्र का प्रहरी-समाचार-पत्र लोकतन्त्र का सच्चा पहरेदार है। उसी के माध्यम से लोग अपनी इच्छा, विरोध और आलोचना प्रकट करते हैं। यही कारण है कि राजनीतिज्ञ समाचार-पत्रों से बहुत डरते हैं। नेपोलियन ने कहा था- ”मैं लाखों विरोधियों की अपेक्षा इन समाचार-पत्रों से अधिक भयभीत रहता हूँ।” समाचार-पत्र जनमत तैयार करते हैं। उनमें युग का बहाव बदलने की ताकत होती है। राजनेताओं को अपने अच्छे-बुरे कार्यों का पता इन्हीं से चलता है।
प्रचार का उत्तम माध्यम-आज प्रचार का युग है। यदि आप अपने माल को, अपने विचार को, अपने कार्यक्रम को या अपनी रचना को देशव्यापी बनाना चाहते हैं तो समाचार-पत्र का सहारा लें। उससे आपकी बात शीघ्र सारे देश में फैल जाएगी। समाचार-पत्र के माध्यम से रातों-रात लोग नेता बन जाते हैं या चर्चित व्यक्ति बन जाते हैं। यदि किसी घटना को अखबार की मोटी सुर्खियों में स्थान मिल जाए तो वह घटना सारे देश का ध्यान अपनी ओर खींच लेती है। देश के लिए न जाने कितने नवयुवकों ने बलिदान दिया, परन्तु जिस घटना को पत्रों में स्थान मिला, वे घटनाएँ अमर हो गई।
व्यापार में लाभ-समाचार-पत्र व्यापार को बढ़ाने में परम सहायक सिद्ध हुए हैं। विज्ञापन की सहायता से व्यापारियों का माल देश में ही नहीं विदेशों में भी बिकने लगता है। रोज़गार पाने के लिए भी अखबार उत्तम साधन है। हर बेरोज़गार का सहारा अखबार में निकले नौकरी के विज्ञापन होते हैं। इसके अतिरिक्त सरकारी या गैरसरकारी फर्मे अपने लिए कर्मचारी ढूँढ़ने के लिए अखबारों का सहारा लेती है। व्यापारी नित्य के भाव देखने के लिए तथा शेयरों का मूल्य जानने के लिए अखबार का मुँह जोहते हैं।
जे० पार्टन का कहना है- ‘समाचार-पत्र जनता के लिए विश्वविद्यालय है।’ उनसे हमें केवल देश-विदेश की गतिविधियों को जानकारी ही नहीं मिलती, अपितु महान विचारकों के विचार पढ़ने को मिलते हैं। उनसे विभिन्न त्योहारों और महापुरुषों का महत्त्व पता चलता है। महिलाओं को घर-गृहस्थी सम्हालने के नए-नए नुस्खे पता चलते हैं। प्रायः अखबार में ऐसे कई स्थाई स्तम्भ होते हैं जो हमें विभिन्न जानकारियाँ देते हैं।
आजकल अखबार मनोरंजन के क्षेत्र में भी आगे बढ़ चले हैं। उनमें नई-नई कहानियाँ, किस्से, कविताएँ तथा अन्य बालोपयोगी साहित्य छपता हैं। दरअसल, आजकल समाचार-पत्र बहुमुखी हो गया है। उसके द्वारा चलचित्र, खेलकूद, दूरदर्शन, भविष्य-कथन, मौसम आदि की अनेक जानकारियाँ मिलती है।
समाचार-पत्र के माध्यम से आप मनचाहे वर-वधू ढूँढ़ सकते हैं। अपना मकान, गाडी, वाहन खरीद-बेच सकते हैं। खोए गए बन्धु को बुला सकते हैं। अपना परीक्षापरिणाम जान सकते हैं। इस प्रकार समाचार-पत्रों का महत्त्व बहुत अधिक हो गया है।
11. महात्मा गाँधी
अथवा, हमारा प्रिय नेता
अथवा, मेरा प्रिय महापुरुष
जन्म-2 अक्तूबर, सन् 1869 को भारत की धरती ने एक ऐसा महामानव पैदा किया जिसने न केवल भारतीय राजनीति का नक्शा बदला बल्कि सम्पर्ण विश्व सत्य, अहिंसा, शान्ति और प्रेम की अजेय शक्ति के दर्शन कराए। उनका जन्म पोरबन्दर काठियावाड़ में हुआ! माता-पिता ने उनका नाम मोहनदास रखा।
शिक्षा-मोहनदास स्कूल-जीवन में साधारण कोटि के छात्र थे। परन्तु व्यावहारिक जीवन में उनकी विशेषता प्रकट होने लगी थी। उन्होंने अध्यापक द्वारा नकल कराए जाने पर नकल करने से इन्कार कर दियाः वे 1887 में कानून पढ़ने के लिए विलायत चले गए। वहां उन्होंने शराब न पीने, माँस न खाने और व्यभिचार न करने के वचनों का दृढ़ता से पालन किया। वापसी पर उन्होंने वकालत शुरू कर दी।
दक्षिणी अफ्रिका में वकालत के सिलसिले में उन्हें एक बार दक्षिणी अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ भारतीयों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। स्वयं मोहनदास के साथ भी ऐसा दुर्व्यवहार घटित हुआ। उसे देखकर उनकी आत्मा चीत्कार कर उठी। उन्होंने 1894 में ‘नटाल इंडियन कांग्रेस’ की स्थापना करके गोरी सरकार के विरुद्ध प्रतिरोध का बिगल बजा दिया। सत्याग्रह का पहला प्रयोग उन्होंने यहीं किया था। उनके प्रयत्नों से गोरों के कुछ अत्याचार कम हो गए।
भारतीय राजनीति में-भारत आकर गाँधी जो स्वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े। उन्होंने सत्य और अहिया को आधार बनाकर राजनीतिक स्वतन्त्रता का आन्दोलन कड़ा। 1920-22 में उन्होंने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन छेड़ दिया। ‘वदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई। हिंसा होने के कारण गाँधी जी ने आन्दोलन वापस ले लिया। सन् 1929 में गाँधी जी ने पुनः आन्दोलन प्रारम्भ किया। यह आन्दोलन ‘नमक सत्याग्रह’ के नाम से प्रसिद्ध है। गाँधी जी ने स्वयं साबरमती आश्रम से डाण्डी नक पदयात्रा की तथा वहाँ नमक बनाकर नमक कानून का उल्लंघन किया। सन् 1931 में आप ‘राउण्ड टेबल कांफ्रेस’ में सम्मिलित होने के लिए लन्दन गए। सन् 1942 में आपने ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन छेड़ दिया। देश भर में क्रान्ति की ज्वाला सुलगने लगी। देश का बच्चा-बच्चा अंग्रेजी सरकार को उखाड़ फेंकने पर उतारू हा गया। गाँधी जी को देश के अन्य नेताओं के साथ बन्दी बना लिया गया: 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतन्त्र हो गया।
बलिदान-भारत पाक विभाजन हुआ। देश के विभिन्न स्थानों पर साम्प्रदायिक दंगे होने लगे। उन्हें रोकने के लिए गाँधी जी ने आमरण अनशन रखा, जिससे साम्प्रदायिकता की आग तो बुझ गई परन्तु वे स्वयं उसके शिकार हो गए। 30 जनवरी, 1948 को संसार का यह एक महान मानव एक हत्यारे को गोली का शिकार बन परलोक सिधार गया।
देन-गाँधी जी सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। वे सभी धर्मों का समान आदर करते थे। उनकी प्रसिद्ध उक्ति है- ‘ईश्वर अल्ला तेरे नाम। सबको सन्मति दे भगवान।’ गाँधी जी ने छुआछूत, जाति-पाति, मदिरापान आदि का घोर विरोध किया। उन्होंने स्वदेशी पर बल दिया। राजनीति में नैतिकता को स्थान दिया। उन्होंने ग्रामीण विकास को ध्यान में रखते हुए लघु उद्योगों को लगाने की दिशा प्रदान की। वे कुशल राजनीतिज्ञ और महान संत थे।
12. गणतन्त्र-दिवस (26 जनवरी)
अथवा, गणतन्त्र दिवस की परेड का आँखों देखा हाल
अथवा, गणतंत्र समारोह का आँखों देखा हाल
महत्त्व-गणतन्त्र-दिवस भारत का सर्वाधिक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पर्व है। इस दिन हमारा आजाद भारत सही अर्थों में ‘स्वतन्त्र’ हुआ था। 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था। इस दिन का एक और ऐतिहासिक महत्व भी है! 26 जनवरी 1929 को अखिल भारतीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में यह प्रतिज्ञा को गई थी कि जब तक स्वराज्य नहीं मिलता, विदेशी सत्ता से संघर्ष जारी रहेगा। यह प्रतिज्ञा आज भी हमें आजादी के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देती है।
मनाने का ढंग-26 जनवरी का दिन समूचे भारतवर्ष में बड़े उत्साह तथा हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। समूचे देश में अनेक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। प्रदेशों की सरकारें सरकारी स्तर पर अपनी-अपनी राजधानियों में तथा जिला स्तर पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का तथा अन्य अनेक कार्यक्रमों का आयोजन करती हैं।
देश की राजधानी में इस राष्ट्रीय पर्व के लिए विशेष समारोह का आयोजन किया जाता है, जिसकी भव्यता देखते ही बनती है। समूचे देश के विभिन्न भागों से असंख्य व्यक्ति इस समारोह में सम्मिलित होने तथा इसकी शोभा देखने के लिए आते हैं।
विविध झाकियाँ-नई दिल्ली के विजय चौक से प्रात: परेड प्रारम्भ होती है। इण्डिया गेट के निकट राष्ट्रपति राष्ट्रीय धुन के साथ ध्वजारोहण करते हैं। उन्हें 31 तोपों की सलामी दी जाती है। हवाई जहाजों द्वारा पुष्प-वर्षा की जाती है। राष्ट्रपति जल, नभ तथा थल-तीनों सेनाओं की टुकड़ियों का अभिवादन स्वीकार करते हैं। सैनिकों का सीना तानकर अपनी साफ-सुथरी केशभूषा में कदम-से-कदम मिलाकर चलने का दृश्य बड़ा मनोहारी होता है। इस 23, दृश्य को देखकर मन में राष्ट्र के प्रति असीम भक्ति तथा हृदय में असीम उत्साह का संचार होने लगता है। इन सैनिक टुकड़ियों के पीछे आधुनिक शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित वाहन निकलते हैं। इनके पीछे स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्राएँ एम०सी०सी० की वेशभूषा में सज्जित कदम-से-कदम मिलाकर चलते हुए यह विश्वास उत्पन्न करते हैं कि हमारी दूसरी सुरक्षा-पंक्ति अपने कर्तव्य से भली-भाँति परिचित है।
उत्सव का माहौल-मिलिट्री तथा स्कूलों के अनेक बैंड सारे वातावरण को देश-भक्ति तथा राष्ट्र-प्रेम की भावना से गुंजायमान कर देते हैं। विभिन्न प्रदेशों की झाँकियाँ वहाँ के सांस्कृतिक जीवन, वेश-भषा रीति-रिवाजों औद्योगिक तथा सामाजिक क्षेत्र में आए परिवर्तनों का चित्र प्रस्तत करने में परी तरह समर्थ होती हैं। झाँकियों की कला तथा शोभा को देखकर दर्शक मन्त्र-मुग्ध हो जाते हैं। झाँकियों से पहले विभिन्न प्रान्तों से आई नृत्य-मंडलियाँ समस्त वातावरण को उल्लास से भर देती हैं। उन्हें देखकर भारत का बहुरंगी रूप सामने आ जाता है। यह पर्व अतीव प्रेरणादायी होता है।
13. विद्यार्थी और अनुशासन
भूमिका-जीवन को आनन्दपूर्वक जीने के लिए विद्या और अनुशासन दोनों आवश्यक हैं। विद्या का अन्तिम लक्ष्य है-इस जीवन को मधुर तथा सुविधापूर्ण बनाना। अनुशासन का भी यही लक्ष्य है।
अनुशासन भी एक प्रकार की विद्या है। अपनी दिनचर्या को, अपने बोल-चाल को, अपने रहन-सहन को, अपने सोच-विचार को, अपने समस्त व्यवहार को व्यवस्थित करना ही अनुशासन है। एक अनपढ़ गँवार व्यक्ति के जीवन में क्रम और व्यवस्था नहीं होती, इसीलिए उसे असभ्य, अशिक्षित कहा जाता है। पढ़े-लिखे व्यक्ति से यही अपेक्षा की जाती है कि उसका सब कुछ व्यवस्थित हो। अत: अनुशासन विद्या का एक अनिवार्य अंग है।
छात्र के लिए लाभकारी-विद्यार्थी के लिए अनुशासित होना परम आवश्यक है। अनुशासन से विद्यार्थी को सब प्रकार का लाभ ही होता है। अनुशासन अर्थात् निश्चित व्यवस्था से समय और धन की बचत होती है। जिस छात्र ने अपनी दिनचर्या निश्चित कर लो है, उसका समय व्यर्थ नहीं जाता। वह अपने एक-एक क्षण का समुचित उपयोग करता है। वह समय पर मनोरंजन भी कर लेता है तथा अध्ययन भी पूरा कर पाता है। इसके विपरीत अनुशासनहीन छात्र आज का काम कल पर और कल का काम परसों पर टालकर अपने लिए मुसोबत इकट्ठी कर लेता है।
सफलता का मंत्र-अनुशासन का गुण बचपन में ही ग्रहण किया जाना चाहिए। इसलिए इसका सम्बन्ध छात्रों से है। विद्यालय की सारी व्यवस्था में अनुशासन और नियमों को लागू करने के पीछे यही बात है। यही कारण है कि अच्छे अनुशासित विद्यालयों के छात्र जीवन में अच्छी सफलता प्राप्त करते हैं। अनुशासन हमारी हौचपौच जिन्दगो को साफ़-सुथरी तथा सुलझी हुई व्यवस्था देता है। इसके कारण हमारी । शक्तियाँ केन्द्रित होती हैं। हमारा जीवन उद्देश्यपूर्ण बनता है तथा हम थोड़े समय में हो । बहुत काम कर पाते हैं।
निष्कर्ष-अनुशासन का अर्थ बन्धन नहीं है। उसका अर्थ है-व्यवस्था! हाँ, उस व्यवस्था के लिए कछ अनुचित इच्छाओं से छटकारा पाना पडता है। उनसे छुटकारा पाने में ही लाभ है। छात्र यदि सभ्य बनने के लिए अपनी गलत आदतों पर रोक लगाते हैं तो वह लाभप्रद ही है। अत: अनुशासन जीवन के लिए परमावश्यक है तथा उसको प्रथम पाठशाला है–विद्यार्थी जीवन।।
14. जीवन में खेलों का महत्व
स्वामी विवेकानन्द का मत-स्वामी विवेकानन्द ने अपने देश के नवयुवकों को सम्बोधित करते हुए कहा था-‘सर्वप्रथम हमारे नवयुवकों को वलवान वनना चाहिए। धर्म पीछे आ जाएगा। मेरे नवयुवक मित्रो! वलवान वनो। तुमको मेरी यह सलाह है। गीता के अभ्यास की अपेक्षा फुटवाल खेलने के द्वारा तुम स्वर्ग के अधिक निकट पहुँच जाओगे। तुम्हारी कलाई और भुजाएँ अधिक मजबूत होने पर तुम गीता को अधिक अच्छी तरह समझ सकोगे।’ स्वामी विवेकानन्द के इस कथन से स्पष्ट है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास संभव है और शरीर को . स्वस्थ तथा हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए खेल अनिवार्य हैं।
खेल से लाभ-पाश्चात्य विद्वान पी० साइरन ने कहा है-‘अच्छा स्वास्थ्य एवं अच्छी समझ जीवन के दो सर्वोत्तम वरदान हैं।’ इन दोनों की प्राप्ति के लिए जीवन में : खिलाड़ी की भावना से खेल खेलना आवश्यक है। खेलने से शरीर पुष्ट होता है, माँसपेशियाँ उभरती हैं, भूख बढ़ती है, शरीर शुद्ध होता है तथा आलस्य दूर होता है। न । खलने की स्थिति में शरीर दुर्बल, रोगी तथा आलसी हो जाता है। इन सबका कुप्रभाव मन पर पड़ता है जिससे मनुष्य की सूझ-बूझ समाप्त हो जाती है। मनुष्य निस्तेज, उत्साहहीन एवं लक्ष्यहीन हो जाता है। शरीर तथा मन से दुर्बल एवं रोगी व्यक्ति जीवन के सच्चे सुख और आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकता। धन-सम्पदा, मान-सम्मान तथा ऊँची कुर्सी प्राप्त होने पर भी बिना अच्छे स्वास्थ्य के मनुष्य दुखी रहता है। बीमार होने की स्थिति में मनुष्य अपना तो अहित करता ही है, समाज का भी अहित करता है। रोगी व्यक्ति समाज पर बोझ बनकर जीता है। गाँधी जी तो बीमार होना पाप का चिह्न मानते थे।
खेल विजयी वनाते हैं-खेल खेलने से मनुष्य को संघर्ष करने की आदत लगती है। उसकी जुझारू शक्ति उसे नव-जीवन प्रदान करती है। उसे हार-जीत को सहर्ष झेलने की आदत लगती है। खेलों से मनुष्य का मन एकाग्रचित होता है। खेलते समय खिलाड़ी स्वयं को भूल जाता है। खेल हमें अनुशासन, संगठन, पारस्परिक सहयोग, आज्ञाकारिता साहस विश्वास और औचित्य को शिक्षा प्रदान करते हैं। इंग्लैंड वालों का कथन है-“विद्यार्थी जीवन में खेल की भावना में प्रशिक्षित होकर ही ‘एटन’ के मैदान में अंग्रेजों ने नेपोलियन को ‘वाटरलू’ के युद्ध में पराजित किया था।” इससे जीवन में खेलों की महत्ता स्पष्ट हो जाती है।
मनोरंजन-खेल हमारा भरपूर मनोरंजन करते हैं। खिलाड़ी हो अथवा खेलप्रेमी, दोनों को खेल के मैदान में एक अपूर्व आनन्द मिलता है। मनोरजन जीवन को सुमधुर बनाने के लिए आवश्यक है। इस दृष्टि से भी, जीवन में खेलों का अपना महत्व
15. परोपकार
भूमिका-परोपकार दो शब्दों के मेल से बना है- पर + उपकार। इसका अर्थ है-दूसरों की भलाई करना।
गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है- ‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई।’ अर्थात् परोपकार सबसे बड़ा धर्म है। मैथिलीशरण गुप्त जो भी यही कहते हैं–
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे,
यह पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे।
महत्व-प्रकृति हमें परोपकार की शिक्षा देती है। सूर्य हमें प्रकाश देता है, चंद्रमा अपनी चाँदनी छिटकाकर शीतलता प्रदान करता है, वायु निरन्तर गति से बहती हुई हमें जीवन देती है तथा वर्षा का जल धरती को हरा-भरा बनाकर हमारी खेती को लहलहा देता है। प्रकृति से परोपकार को शिक्षा ग्रहण कर हमें भी परोपकार की भावना को अपनाना चाहिए! पन्त जी ने कहा है-
हँसमुख प्रसून सिखलाते
पल भर है जो हँस पाओ।
अपने उर को सौरभ से
जग का आँगन भर जाओ!
भारत अपनी परोपकारी परम्परा के लिए जगत-प्रसिद्ध रहा है। भगवान शंकर ने समद्र-मंथन में मिले विष का पान करके धरती के कष्ट को स्वय उठा लिया महर्षि दधीचि ने राक्षसो के नाश के लिए अपने शरीर की हड्डियाँ तक दान कर दी थीं। आधुनिक काल में दयानन्द, तिलक, गाँधी, सुभाष आदि के उदाहरण हमें लोकहित की प्रेरणा देते हैं।
परोपकार करने से पहले आवश्यक है कि परोपकारी का जोवन प्रेम से, भरा हुआ हो। जो स्वयं समृद्ध होगा, वही कुछ दे सकेगा। दूसरे, जिसका हमें उपकार करना है, उसके प्रति आत्मीयता होनी चाहिए। पराया मानकर किया गया उपकार दम्भ को जन्म देता है।
निष्कर्ष-परोपकार करने से आत्मा को सच्चे आनन्द को प्राप्ति होती है। दूसरे का कल्याण करने से परोपकारी को आत्मा विस्तृत हो जाती है। उसे अलौकिक आनन्द मिलता है! उसक आनन्द को तुलना भौतिक सखा स नहीं की जा सकती। ईसा मसीह ने एक बार अपने शिष्यों को कहा था–‘स्वार्थी बाहरी रूप से भले ही सुखी दिखाई पड़ता है, परन्तु उसका मन दुःखी और चिन्तित रहता है। सच्चा आनन्द दो परोपकारियों को प्राप्त होता है।
16. मेरा प्रिय कवि
हिन्दी साहित्य अनेक श्रेष्ठ कवियों का भाण्डार है। मुझे गोस्वामी तुलसीदास का जीवन और काव्य विशेष रूप से पसन्द है। उनकी कविता का पढ़कर मुझे भरपूर रस और प्रेरणा मिलती है।
तुलसीदास का जन्म सम्वत् 1554 को बाँदा जिले के राजापुर गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम हलसी तथा पिता आत्माराम दुबे थे। इनका बचपन बहुत कष्टों में बीता। उन्हें अनाथों की भाँति दर-दर भटकना पडा। गरु नरहरि ने इन्हें राममन्त्र की दीक्षा दीसंवत् 1583 में रत्नावली नामक सुन्दरी से इनका विवाह हुआ! वं पत्नी पर बहुत आसक्त थे। एक दिन पत्नी की कटोक्ति सुनकर वे रामभक्ति की आर मुड़ गए। संवत् 1680 में उनका देहान्त हो गया।
तुलसीदास का जीवन राममय था। वे भगवान राम के परम भक्त थे। भक्तिभावना का जैसा सुन्दर रूप उनके काव्य में प्रकट हुआ है, वैसा अन्य किसो कवि की कविता में नहीं। वे प्रभु राम के सामने स्वयं को लघु मानते हुए कहते हैं-
राम सो बडो है कौन. मांसा कौन छोरा
राम सों खरो है कौन, मांसों कोन खोला?
तुलसीदास ने राम के चरित्र का उज्ज्वल बनाकर प्रस्तुत किया। उनके राम श्रेष्ठ पुत्र, योग्य पति, अच्छे भाई और कुशल राजा हैं। वे शोल, शक्ति और सौन्दर्य के अवतार हैं। तुलसीदास उन्हें जगत के कण-कण में व्याप्त देखते हैं
सियाराम मय सब जग जानी।
करहें प्रणाम जारि जुग पानी।।
तुलसीदास ने शिव-भक्तों और विष्णु-भक्तों के वैर-भाव को दूर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने भक्ति, ज्ञान और कर्म के तालमेल पर बल दिया। वे लोकमंगल को महत्व देते थे। वे उसी कविता को श्रेष्ठ मानते थे जो जन-कल्याण करे-
कीरति भनति भूति भल सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हितु होई।।
तुलसीदास की कविता रस का भाण्डार है। उनकी चौपाइयाँ और दोहे तो जन-जन के गले का हार बने हए हैं। उन्हें गाकर आज भी गायक धन्य होते हैं। उनकी भाषा इतनी सरल, सरस और मधुर है कि प्रत्येक श्रोता उसके आनन्द में गोते लगाने लगता है।
17. श्रम का महत्व
अथवा, परिश्रम का महत्व
अथवा, अपना हाथ जगन्नाथ
अथवा, भाग्य और पुरुषार्थ
अथवा, परिश्रम सफलता का मूल है
भूमिका-संस्कृत का एक सुप्रसिद्ध श्लोक है-
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।
अर्थात् परिश्रम से ही कार्य होते हैं, इच्छा से नहीं। सोते हुए सिंह के मुँह में पशु स्वयं नहीं आ गिरते। कार्य-सिद्धि के लिए परिश्रम बहुत आवश्यक है।
प्रकृति परिश्रम का पाठ पढ़ाती है-सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक मनुष्य ने जो भी विकास किया है, वह सब परिश्रम की ही देन है। जब मानव जंगलो अवस्था में था तग वह घोर परिश्रमी था। उसे खाने-पीने, सोने, पहनने आदि के लिए जी-तोड मेहनत करनी पड़ती थी। आज, जबकि युग बहुत विकसित हो चुका है, परिश्रम की महिमा कम नहीं हुई है। बड़ी-बड़ी बाँधों का निर्माण देखिए, अनेक मंजिले भवन देखिए, खदानों की खुदाई, पहाड़ों की कटाई, समुद्र की गोताखोरी या आकाशमण्डल की यात्रा का अध्ययन कोजिए। सब जगह मानव के परिश्रम की गाथा सुनाई पड़ेगीः एक कहावत है—-‘स्वर्ग क्या है, अपनी मेहनत से रची गई सृष्टि। नरक क्या है? अपने आप बन गई दुरवस्था।’ आशय यह है कि स्वर्गीय सुखो को पाने के लिए तथा विकास करने के लिए मेहनत अनिवार्य है। इसीलिए मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है-
पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो,
सफलता वर-तुल्य वरो, उठो।
अपुरुषार्थ भयकर पाप है,
न उसमें यश है, न प्रताप है।
‘केवल शारीरिक परिश्रम ही परिश्रम नहीं है। कार्यालय में बैठे हुए प्राचार्य, लिपिक या मैनेजर केवल लखनी चलाकर या परामर्श देकर भी जी-तोड़ मेहनत करते है। जिस क्रिया में कुछ काम करना पड़े, जोर लगाना पड़े, तनाव मोल लेना पड़े, वह मेहनत कहलाती है। महात्मा गाँधी दिन-भर सलाह-मशविर में लगे रहते थे, परन्तु वे घोर परिश्रमी थे।
भाग्य और पुरुषार्थ-पुरुषार्थ का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे सफलता मिलती है। परिश्रम ही सफलता की ओर जाने वाली सड़क है। परिश्रम से आत्मविश्वास पैदा होता है। मेहनती आदमी को व्यर्थ में किसी को जी-हजूरी नहीं करनी पड़ती, बल्कि लोग उसकी जी-हजूरी करते हैं। तीसरे, मेहनती व्यक्ति का स्वास्थ्य सदा ठीक रहता है। चौथे मेहनत करने से गहरा आनन्द मिलता है। उससे मन में यह शान्ति होती है कि मै निठल्ला नहीं बैठा। किसी विद्वान का कथन है-जब तुम्हारे जीवन में घोर आपत्ति और दुःख आ जाएं तो व्याकुल और निराश मत बनो; अपितु तुरन्त काम में जुट जाओ। स्वयं को कार्य में तल्लीन कर दो तो तुम्हें वास्तविक शान्ति और नवीन प्रकाश की प्राप्ति होगी।
उपसंहार-राबर्ट कोलियार कहते हैं-‘मनुष्य का सर्वोत्तम मित्र उसकी दस अगुलियाँ हैं।’ ‘अतः हमें जीवन का एक-एक क्षण परिश्रम करने में बिताना चाहिए। श्रम मानव-जीवन का सच्चा सौन्दर्य है। हरिवंशराय बच्चन भी इसी भाव को इन शब्दों में कहते है-
यह महान दृश्य है
चल रहा मनुष्य है
अश्रु-स्वंद रक्त से
लथपथ-लथपध-लथपथ।
18. भारत का किसान
अथवा, भारतीय कृषक
भूमिका-भारत की आत्मा गाँवों के खेत-खलिहानों, पोखर तथा वृक्षाच्छादित रम्य बाग-बगीचों में बसती है। हमारे किसान ही वस्तुतः हमारे अन्नदाता और राष्ट्र-निर्माता हैं। गाँवों में ही त्याग, परिश्रम और राष्ट्रसेवा की मूर्ति किसान निवास करते हैं।
सरलता की मूर्ति-भारतीय किसान बहुत सहज तथा सरल जीवन जीते हैं। कृत्रिमता से वे दूर रहते हैं। उनके जीवन की आवश्यकताएँ अत्यन्त सीमित होती हैं। उनका संबंध प्रकृति से निकट का होने के कारण वे हृष्ट-पुष्ट तथा स्वस्थ रहते हैं। सात्विक जीवन व्यतीत करते हुए वे संवेदनशील, दयालु और सुख-दुख के सच्चे-साथी हैं।
परिश्रमी-स्वभाव सं भारतीय किसान अत्यन्त परिश्रमी होता है। जाड़ों की बर्फीली ठंड, ग्रीष्म ऋतु की प्रचंड गर्मी तथा वर्षा ऋतु की मूसलाधार वृष्टि को सहन करते हुए निरंतर अपने कर्तव्य-पालन में व्यस्त रहता है और कप्टपूर्ण जीवन व्यतीत करता है।
अभावपूर्ण जीवन-भारतीय-कृषक अन्नदाता होकर भी स्वयं पेटभर भोजन तथा पर्याप्त वस्त्र नहीं जुटा पाता है, और इस वेदनापूर्ण स्थिति में ही वह जीवन की अंतिम साँस लेता है, यद्यपि वह दिन-रात अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कठोर श्रम करता है।
वर्तमान स्थिति-भारतीय-कृषक शोषण का शिकार है। वह अभाव और कप्ट की स्थिति में जीवन गुजार देता है, अपर्याप्त भोजन तथा वस्त्र उसकी नियति बन गई है। कर्ज के भार से पीड़ित रहता है। शिक्षा का अभाव, रूढ़ियाँ और अंधविश्वास उसके जीवन के अभिन्न अंग बन गए हैं।
विकास योजनाएँ- भारतीय कृषकों की समस्याओं के निराकरण और जीवन-स्तर को उन्नत बनाने के लिए यद्यपि सरकार द्वारा अनेक योजनाएँ बनी हैं, किन्तु उनका समुचित कार्यान्वयन नहीं हो रहा है। किसान आज भी उपेक्षित और शोषण का शिकार हैं।
उपसंहार-उपरोक्त वर्णित तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि देश तभी उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है जब किसानों की दशा में सधार हो और उनकी समस्याओं का समाधान हो। भारतीय-किसान अभाव और कप्ट की स्थिति झेलने को अभिशप्त हैं। श्री लालबहादुर शास्त्री का नारा-“जय जवान जय-किसान” में यह वास्तविकता प्रतिबिम्बित होती है।
अतः उनके उत्थान के लिए हमें हर संभव प्रयास करना चाहिए।
19. मित्रता
अथवा, मित्रता वड़ा अनमोल रत्न
अथवा, विपत्ति कसौटी जे कसे सोई साँचे मीत
भूमिका-मनुष्य स्वयं में अधूरा है। उस अपने सुख-दुःख बॉटने के लिए तथा अपने मन की बात कहने के लिए भागीदार की आवश्यकता पड़ती है। सच्चा मित्र ही इस कार्य को कर सकता है। सच्चा मित्र एक प्रकार से हमारा ही विस्तार होता है। जीवन को सरसता और आसानी से जीने के लिए मित्रता आवश्यक है।
पंचतंत्र में कहा गया है-“जो व्यक्ति न्यायालय, श्मशान और विपत्ति के समय साथ देता है उसको सच्चा मित्र समझना चाहिए।” गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं –
जे न मित्र दुख होहि दुखारी।
तिन्हहिं विलोकत पातक भारी।।
एक सच्चा मित्र दो शरीर में एक आत्मा के समान है।’
सच्चा मित्र कौन-मित्र का चुनाव बाहरी चमक-दमक, चटक-मटक या वाकपटुता देखकर नहीं कर लेना चाहिए। उसके लिए कुछ बातें देखनी चाहिए। मित्रता समानता के आधार पर होनी चाहिए। दानों क आर्थिक स्तर में अधिक अन्तर नहीं होना चाहिए। मित्र अपने से बहुत अधिक शक्तिशाली भी नहीं होना चाहिए। वह केवल अपने स्वार्थ सिद्ध करने वाला न होकर हमारी भावनाओं को समझने वाला होना चाहिए। वह सच्चरित्र, परदुःखकातर तथा विनम्र होना चाहिए। विश्वासपात्र मित्र को पा लेना बहुत बड़ी सफलता है।
लाभ-सच्चा मित्र जीवन को अनुपम निधि है। वह हमें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है, दोषों से हमारी रक्षा करता है, निराश होने पर उत्साह देता है, महान कार्यों में सहायता देता है। मित्रता कवच के समान हमारी रक्षा करती है। श्रीकृष्ण की मित्रता पाकर पाण्डवों ने कौरवों को मार डाला। राम का सहयोग पाकर सग्रीव ने अत्याचारी बाली को मार डाला। मित्रता का सबसे बड़ा लाभ यह है कि हम उस अपना भरोसे का साथी मानकर अपने सुख-दुख उसके सामने निर्भीक होकर कह सकते हैं।
समानता-मित्रता के लिए समान स्वभाव अच्छा रहता है। परन्तु यह नितान्त आवश्यक नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में भी मैत्री सभव है। नीति-निपुण अकबर तथा हास्य-व्यंग्य की साकार प्रतिमा बीरबल मे घनिष्ठ मित्रता थी। दानवीर कर्ण और लोभी दुर्योधन की खूब पटतो थो।।
निष्कर्ष-सच्चा मित्र जीवन में सफलता की कुंजी है। मित्रता वास्तव में एक नई शक्ति को योजना है। मित्र के सुख और सौभाग्य को चिन्ता करने वाला सच्चा मित्र बड़े भाग्य से मिलता है। किसी ने ठीक ही कहा है- ‘सच्चा प्रेम दुर्लभ है, सच्चो मित्रता उससे भो दुर्लभा’
20. दूरदर्शन
अथवा, टेलीविजन : विज्ञान का वरदान
अथवा, युवा पीढ़ी पर दूरदर्शन का प्रभाव
अथवा, दूरदर्शन : विकास या विनाश
भूमिका-आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों में सबसे अधिक आकर्षक यन्त्र है– दूरदर्शन। इसके माध्यम से दूर के स्थान से प्रसारित ध्वनि चित्र सहित दर्शकों के पास पहुंच जाती है। दूरदर्शन का प्रभाव रेडियो से अधिक स्थायो है। पिछले दो दशकों में दूरदर्शन ने भारत में बहुत लोकप्रियता प्राप्त की है।
लाभ-भारत जैसे विशाल देश में दूरदर्शन की महत्ता असंदिग्ध है। आज हमारे देश के सामने अनेक समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं। दूरदर्शन के माध्यम से उन समस्याओं की और लोगों का ध्यान आकृष्ट कर उनके समाधान की दिशा में प्रयत्न किया जा सकता है। ज्ञान-विज्ञान समाज-शिक्षा तथा खेती-बाडी सम्बन्धी विषयों के सम्बन्ध में जानकारी द्वारा लोगों का ज्ञानवर्द्धन किया जा सकता है। देश में मद्यपान के कप्रभावों परिवार नियोजन की आवश्यकता, भारतीय जीवन में विविधता होते हुए भी एकता इत्यादि विषयों पर विभिन्न कार्यक्रम दिखाकर लोगों को अधिक जागरूक बनाया जा सकता है। इस दिशा में हमारा दरदर्शन अब रुचि लेने लगा है प्रसन्नता का विषय है।
दरदर्शन के द्वारा जनसामान्य को शिक्षित बनाया जा सकता है तथा अपेक्षित कार्यक्रमों के द्वारा जहाँ लोगों का मनोरंजन किया जा सकता है, वहीं उनके दृष्टिकोण को वैज्ञानिक तथा स्वस्थ बनाया जा सकता है।
हानियाँ-दूरदर्शन की हानियाँ जितनी पाश्चात्य देशों में प्रकट होकर सामने आई हैं, उतनी अभी भारत में नहीं आई हैं। वहाँ दूरदर्शन के कारण सामाजिक जीवन जड़ हो गया है। लोग दूरदर्शन के कार्यक्रमों के बारे में तो जानते हैं, परन्तु अपने पड़ोसी के बारे में नहीं जानते। वहाँ आत्म-सीमितता और अकेलेपन का दोष बढ़ता जा रहा है।
दूरदर्शन से एक हानि यह भी है कि यह देखने वाले व्यक्ति को पंगु-सा बना देता है। सब कुछ चलचित्रों के माध्यम से उसके पास घर में ही पहुँच जाता है और वह चुपचाप कुर्सी पर बैठा अथवा बिस्तर पर लेटा उसका दर्शक मात्र रह जाता है। घटनाएँ उस तक पहुँच जाती हैं परन्तु स्वयं वह उन्हें देखने का वास्तविक अनुभव प्राप्त नहीं कर सकता। वह देखता है कि किन्हीं दूर देशों में युद्ध में बम-बर्षा हो रही है अथवा गोलियाँ चल रही हैं। या दो देशों के खिलाड़ी खेल रहे हैं, रन या गोल बन रहे हैं, मैदान में उपस्थित दर्शक तालियाँ बजा रहे हैं, परन्तु इस प्रक्रिया को वह मात्र देख सकता है, स्वयं उसमें भागीदार नहीं बन सकता! ।
निष्कर्ष-दूरदर्शन से आत्मसीमितता, जड़ता, पंगुता, अकेलापन आदि दोष बढ़े हैं। कई देशों में दूरदर्शन के कारण अपराध भी बढ़े हैं। परन्तु इसमें दोष दूरदर्शन का नहीं, कार्यक्रम प्रसारण-समिति का है। दूरदर्शन तो हमारे हाथ में एक सशक्त साधन है जिसके समुचित उपयोग से हम जीवन को और अधिक सुखद, स्वस्थ और सुन्दर बना सकते हैं।
21. मेरी प्रिय पुस्तक
भूमिका-मुझे श्रेष्ठ पुस्तकों से अत्यधिक प्रेम है। पुस्तके मेरे जीवन की सच्ची संगनी है। यों मुझे अनेक पुस्तकें पसन्द है, लेकिन जिसने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, वह है तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’! यह वह पुस्तक है, जिसको छाप मेरे जीवन के प्रत्येक व्यवहार पर अकित है।
विषय-वस्तु-‘रामचरितमानस’ में दशरथ-पुत्र राम की जीवन-कथा का वर्णन है। इसमें राम के जन्म, शिक्षण, विवाह, वनवास, सीता-हरण, रावण-संहार और राजतिलक का अत्यन्त सजीव, स्वाभाविक और सुन्दर वर्णन हुआ है। श्रीराम के जीवन कि प्रत्येक लीला मन को भाने वाली है। उन्होंने किशोर अवस्था में ही राक्षसों का वध और यज्ञ-रक्षा का कार्य जिस कुशलता से किया है, वह मेरे लिए अत्यन्त प्रेरणादायक है। उनकी वीरता और कोमलता के सामने मरा हृदय श्रद्धा से झुक जाता है। सीता-स्वयंवर के दृश्य में रावण, अन्य राजा गण तथा परशुराम का व्यवहार अत्यन्त रोचक है।
उपयोगिता-रामचरितमान में मार्मिक स्थलों का वर्णन तल्लीनता से हुआ है। राम-वनवास, दशरथ-मरण, सीता-हरण, लक्ष्मण- मूर्छा, भरत-मिलन आदि के प्रसंग दिल को छूने वाले हैं। इन अवसरों पर मेरे नयनों में आँसुओं की धार उमड़ आती है। विशेष रूप से राम और भरत का मिलन दृश्य हृदय का छूने वाला है।
इस पुस्तक में तुलसीदास ने मानव के आदर्श व्यवहार को अपने पात्रों के जीवन में साकार होते दिखाया है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वे आदर्श राजा, आदर्श पुत्र, आदर्श पति और आदर्श भाई हैं। भरत और लक्ष्मण आदर्श भाई हैं। उनमें एकदूसरे के लिए सर्वस्व त्याग की भावना प्रबल है। सीता आदर्श पत्नी है। हनुमान आदर्श सेवक हैं। पारिवारिक जीवन की मधुरता का जैसा सरस वर्णन इस पुस्तक में है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।
उपसंहार-यह पुस्तक केवल धार्मिक महत्व को नहीं है। इसमें मानव को प्रेरणा देने की असीम शक्ति है। इसमें राजा, प्रजा, स्वामी, दास, मित्र, पति, नारी; स्त्री, पुरुष सभी को अपना जीवन उज्ज्वल बनाने की शिक्षा दी गई है। राजा के बारे में उनका वचन हैं
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवस नरक अधिकारी।
इसी भाँति श्रेष्ठ मित्र के गणों का वर्णन करते हए वे कहते हैं
म रज करि जाना। मित्रक दुख-रज मेरु समाना।
जें न मित्र दुख होहि दुखारी। तिहि विलोकित पातक भारी।।
तुलसीदास ने प्रायः जीवन के सभी पक्षों पर सूक्तियाँ लिखी हैं। उनके इन अनमोल वचनों के कारण यह पुस्तक अमरता को प्राप्त हो गई है।
रामचरितमानस की भाषा अवधी है। इसे दोहा-चौपाई शैली में लिखा गया है। इसका एक-एक छन्द रस और संगीत से परिपूर्ण है। इसकी रचना को लगभग 500 वर्ष हो चुके हैं। फिर भी आज इसके अंश मधुर कंठ में गाए जाते हैं। यही इसकी महिमा और मधुरिमा का प्रमाण है।
22. महँगाई की समस्या
अथवा, महँगाई एक समस्या
भूमिका-आज विश्व के विकासशील देशों के सामने दो समस्याएँ प्रमुख हैं-मुद्रा-स्फीति तथा महँगाई। जनता अपनी सरकार से माँग करती है कि उसे कम दामों पर दैनिक उपभोग की वस्तएँ उपलब्ध करवाए लेकिन ऐसा नहीं हो पाता तब लोग _आय में वृद्धि की भी माँग करते हैं। देश के पास उतना धन है नहीं। फलस्वरूप मुद्रा का फैलाव बढ़ता है, सिक्के की कीमत घटती है और महँगाई बढ़ती जाती है।
महँगाई के कारण-सरकार ने आवश्यक वस्तुओं की कीमतें कम करने के आश्वासन दिये, किन्तु कीमतें बढ़ती ही चली गईं। इस कमरतोड़ महँगाई के अनेक कारण हैं। महँगाई का सबसे बड़ा कारण होता है-उपज में कमी, सूखा, बाढ, सुरसा के मँह की भाँति बढ़ती आबादी और टिपर्ण वितरण-व्यवस्था। हरित-क्रान्ति के अन्तर्गत बहुत-से कार्यक्रम चलाए गए, अधिक उपज वाले बीजों का आविष्कार तथा प्रयोग बढ़ा, रासायनिक खाद के प्रयोग से उपज भी बढ़ी, किन्तु हमारी आबादी भी बढ़ती चली गई और हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति न हो सकी।
जमाखोरी भी इसका एक प्रमुख कारण है। उपज जब मण्डियों में आती है, अमीर व्यापारी भारी मात्रा में अनाज एवं अन्य वस्तुएँ खरीद कर अपना गोदाम भर लेता है और इस प्रकार बाजार में वस्तओं की कमी आ जाती है। व्यापारी 3 गोदामों की वस्तएँ तभी निकालता है जब कई गना अधिक उसे कीमत प्राप्त होती है। केन्द्रीय सरकार में होने वाले निरन्तर परिवर्तन तथा मध्यावधि चुनावों और युद्धों ने भी महँगाई में वृद्धि की है। स्थायी सरकार हो महँगाई पर अंकुश लगाने में समर्थ हो सकती है।
दोष-हमारी वितरण–प्रणाली में भी ऐसा दोष है जो उपभोक्ताओं की कठिनाइयाँ बढ़ा देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि भ्रष्टाचार का सर्वग्रासी अजगर यहाँ भी अपना काम करता हैं वस्तुओं की खरीद और वितरण की निगरानी करने वाले विभागों के कर्मचारी ईमानदारी से कार्य करें तो क़ीमतों की बढ़ोत्तरी को रोका जा सकता है।
उपसंहार-बढ़ती महँगाई पर अंकुश रखने के लिए एक सक्रिय राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता है। यदि निम्न तथा मध्य वर्ग के लोगों को उचित दाम पर आवश्यक वस्तुएँ नहीं मिलेंगी तो असन्तोष बढ़ेगा और अराजक स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। अतः महँगाई पर लगाम जरूरी है।
23. रेल की एक यात्रा
अथवा, एक अविस्मरणीय रेल-यात्रा
भूमिका-यह बात सन् 2006 की है। मुझे दिल्ली से चण्डीगढ़ जाना था। मैं पिनाजी के साथ था। मै पाँचवी कक्षा में पढ़ता था। पिताजी ने बतलाया था कि दोपहर 12.30 पर नई दिल्ली से चलने वाली फ्लाईंग मेल से हमें चण्डीगढ़ के लिए चलना है। यह मेरी प्रथम रेल-यात्रा थी। अत: मैं प्रात: से बहुत उत्साहित था। इससे पूर्व मैंने गाड़ी देखी अवश्य थो, लेकिन उस पर यात्रा नहीं की थी।
स्टेशन का दृश्य-हमारे टिकट पहले ही खरीदे जा चुके थे। उस दिन मेरे जल्दी हम कारण 12.00 बजे ही नई दिल्ली स्टेशन पर पहुँच गए। साफ-सुथरा चहलपहल से भरा रेलवे स्टेशन था। कोई कुली के साथ अटैौचयाँ लिए आ रहा था, कोई अपना बैग सम्हाले गाड़ियों की ओर लपका जा रहा था। 12.05 पर हमने अपनी जगह ढूँढ़ निकाली। मुझे खिड़की के पास बैठने का मौका मिला, इसलिए मै खुश था। गाड़ी पर बैठकर मुझे बहुत अच्छा लगा।
गाड़ी का दृश्य-ठीक 12.30 पर गाड़ी चली। लगभग सभी सोटे यात्रियों से भर गई थीं। लोग अपने-अपने सगे-सम्बन्धियों के साथ किसी-न-किसी क्रिया में व्यस्त थे। अधिकांश लोग पत्र-पत्रिका, समाचार-पत्र या पुस्तक आदि पढ़ रहे थे। एकाध जगह ताश का खेल चल रहा था। बुजुर्ग लगने वाले यात्री देश-विदेश की चर्चा में व्यस्त थे। कहीं से हँसी के फव्वारे और मजाक के स्वर आ रहे थे। शायद यह किसी कॉलेज के छात्र छात्राओं का समूह था जो मीठी-मीठी बातों में आनन्द ले रहा था।
वाहर का दृश्य-गाड़ी के चलते ही मेरा ध्यान बाहर के दृश्यों की तरफ खिंच गया। मेरे लिए तो यह सजीव चलचित्र था। मैं दिल्ली से चण्डीगढ़ के सारे दृश्यों को पी लेना चाहता था। मेरा ध्यान पटरी के काँटे बदलती गाड़ी की ओर गया। मैं समझ नहीं पाया कि गाड़ी कैसे उन आड़ी-तिरछी पटरियों में से अपना रास्ता ढूँढ़ पा रही है। यह मैं समझ पाऊ कि गाड़ी रुक गई। यह सब्जी मण्डी स्टेशन था। यात्रियों का हुजूम स्टेशन पर खड़ा था। मैंने अपनी सीट सम्हाल ली। सब्जी मण्डी स्टेशन पर इतने अधिक यात्री चढ़े कि बोसियों यात्रियों को खड़ा रहना पड़ा। कई यात्री दो की सीट पर तीनतीन करके बैठे जा रहे थे
चहल-पहल-गाड़ी में खाने-पीने का सामान बेचने वाले, जूते-पालिश करने वाले, भीख माँगने वाले, खिलौने बेचने वाले आ-जा रहे थे! जहाँ जिस स्टेशन पर गाड़ी रुकती थी, वहीं चहल-पहल शुरू हो जाती थी। चाय, बोतल, पुस्तकें, पकौड़े आदि बेचने वाले अधीर हो उठते थे। इस सारी चहल-पहल में कब पानीपत, करनाल, कुरुक्षेत्र, अम्बाला आकर चला गया, मुझे पता ही न चला। मेरा ध्यान तो तब टूटा, जब पिताजी ने कहा-बेटा पुरु। चलो जूते पहनो, स्टेशन आ गया है। मेरी वह प्रथम रेल-यात्रा आज भी मुझे स्मरण है। वह यात्रा अत्यन्त सुखद थी।
24. साम्प्रदायिकता : एक अभिशाप
अर्थ-किसी एक मत या पूजा-पद्धति को मानने वाले मानव-समुदाय को ‘सम्प्रदाय’ कहते हैं। जब कोई सम्प्रदाय और उसके अनुयायी स्वयं का बहुत श्रेष्ठ और अन्य सम्प्रदायों को घृणित मान लेते हैं तो साम्प्रदायिकता का जन्म होता है। दूसरे शब्दों में, सम्प्रदाय का असहनशील हो उठना ही साम्प्रदायिकता है।
साम्प्रदायिकता की समस्या पूरे विश्व में व्याप्त है। इंग्लैंड में रोमन कैथोलिकों और प्रोटेस्टेन्टों के मध्य संघर्ष छिड़ा रहता है। इस्लामी देशों में शिया-सुन्नी के झगड़े हैं। भारत की स्थिति और अधिक विचित्र है।
भारत में साम्प्रदायिक तनाव-भारत में अनेक सम्प्रदाय हैं। इस कारण यहाँ साम्प्रदायिकता की समस्या अधिक जटिल है। भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा है–हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य। इन दोनों का इतिहास ही आक्रान्त और आक्रान्ता का इतिहास है। मुसलमान आक्रमणकारी के रूप में हिन्दुस्तान आए। उन्होने यहाँ के मन्दिरों को तोड़ा धन-सम्पत्ति को लूटा, बहू-बेटियों को अपमानित किया। दुर्भाग्य से आज भी उनके आक्रमणों के चिह्न भारतभर में विद्यमान हैं। परिणामस्वरूप ये दोनों जातियाँ कभी सहज नहीं हो पाती। जब भी कोई बहाना पाकर आग भड़कती है तो देशभर में खून की नदियाँ बह जाती है।
धार्मिक उन्माद संघर्ष के कारण-वर्तमान काल में भी इन दोनों सम्प्रदायों को आपस में लड़ाने के कारण’ बने हुए हैं। मुख्य कारण है-कुटिल राजनीति। राजनीति इन दोनों सम्प्रदायों को अपना हथियार बनाकर खेलती है। जब से भारत आजाद हुआ है, यहाँ सबको समान अधिकार नहीं दिए गए हैं। मुसलमानों और हिन्दुओं पर अलगअलग कानून लागू होते हैं। संविधान की धारा 370 के कारण काश्मीर को विशेष अधिकार प्राप्त हैं। ये विशेष अधिकार शेष समाज की आँखों में चुभने हैं। इसलिए कुछ लोग सविधाप्राप्त सम्प्रदाया के विरद्ध उग्र रूप धारण कर लेते हैं। दर्भाग्य से भारत में सत्ताधारियों ने अल्पसंख्याको को सामान्य नागरिक न मानकर अपना वोट बैंक’ ही माना है।
साम्प्रदायिकता की समस्या उत्पन्न होने का दूसरा कारण है–विदेशी षड्यंत्र। पाकिस्तान निरन्तर भारत में अलगाववाद को भावना को पोत्साहन दे रहा है। तीसरे, धर्मों का उन्माद भी दोषों है।
भारत में हिन्दू-ईसाई संधर्ष भी जटिल रूप धारण करता रहा है। जहाँ-जहाँ ईसाई संख्या में अधिक है, वहाँ-वहाँ अलगाववाद और भारत विरोध के स्वर उठते रहे हैं। इसलिए आज ईसाइयों पर भी प्रतिक्रियावादी हमले होने लगे हैं।
हानियाँ-साम्प्रदायिकता के कारण देश को भीषण अशान्ति, लूट पाट और जन-हानि का सामना करना पड़ता है। कुछ वर्ष पहले पंजाब का हरा-भरा प्रदेश हिंसा, बमकाड और गोलियों की आवाज से आतंकित रहा है। वहाँ का जन-जन भयकंपित रहा है। जम्मू-कश्मीर तो मानो भारत के मस्तक का फोड़ा साबित हुआ है। साम्प्रदायिक आतंक के कारण वहाँ से तीन लाख हिन्दू घर-बार छोड़कर शेष भारत में शरणार्थी बने हुए हैं। अभी-अभी रामजन्म भूमि तथा बाबरी मस्जिद को लेकर भारत में जो नर-संहार हुआ, उससे हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य के घाव फिर से हरे हो गए हैं। सारा देश मानो जल रहा है।
समाधान-साम्प्रदायिकता का समाधान बहुत जटिल काम है। कारण यह है कि इस समस्या को हवा देने वाले स्वयं देश के राजनीतिक नेता हैं। वे जानबूझकर लड़ाई भड़काकर सत्ता में जमा रहना चाहते हैं। उन्हें बोट बैंक चाहिए। उनके लिए साम्प्रदायिक विभाजन बहुत आसान रास्ता है। अतः जब देश के आम नागरिक उनकी इस चाल को समझ जाएंगे और उनके विरुद्ध खड़े हो जाएग, तभी यह आग बुझगी। वर्तमान परिस्थितियों को देखकर ऐसा लगता है कि यह समस्या अभी और जटिल रूप धारण करेगी। लकड़ियाँ जलने को तैयार हैं, सत्ताधारी घी बने हुए हैं, विरोधी दल हवा दे रहे । हैं। अत: देश का जलना निश्चित है। बस समाधान के नाम पर हम ईश्वर से प्रार्थना ही कर सकते हैं कि वह इस अग्नि को शान्त करे।
25. राष्ट्रीय एकता
अथवा, हम भारतवासी एक हैं।
अर्थ-राष्ट्रीय एकता का तात्पर्य है— राष्ट्र के सब घटकों में भिन्न विचारो और भिन्न आस्थाओं के होते हुए भी आपसी प्रेम, एकता और भाईचारे का बना रहना। ‘एकता’ शब्द ‘अविरोध’ को प्रकट करता है। अर्थात् देश में भिन्नताएँ हो, फिर भी सभी नागरिक राष्ट्र-प्रेम से ओतप्रोत हो। देश के नागरिक पहले ‘भारतीय’ हो, फिर हिन्दू या मुसलमान। राष्ट्रीय एकता का भाव दंश रूपी भवन में सीमेंट का काम करता है। जैसे भवन में ईंट, लोहा, बजरी आदि भिन्न-भिन्न पदार्थ होते हैं, और सीमेंट उन्हें जोड़े रहता है! उसी प्रकार राष्ट्रीय एकता का भाव समूचे राष्ट्र को शक्तिशाली, शान्त और समृद्ध बनाता है!
अनेकता में एकता-भारत में विभिन्नता होते हए भी एकता या अविराध विद्यमान है। यहाँ सभी जातियाँ घुल-मिलकर रहती रही हैं। यहाँ प्रायः लोग एक-दूसरे के धर्म का आदर करते हैं। आदर न भी करें तो दूसरे के प्रति सहनशील हैं। भारत की यह दृढ़ मान्यता है कि ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।’ अर्थात सत्य एक है। उस तक पहुँचने के मार्ग भिन्न-भिन्न है। गीता में उसी दृष्टि को श्रेष्ठ कहा गया है जो अनेकता में एकता को पहचानती है।
राष्ट्रीय एकता के वाधक तत्व-भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए अनेक खतरे हैं। सबसे बड़ा खतरा है—कुटिल राजनीति। यहाँ के राजनेता ‘वोट-बैक’ बनाने के लिए कभी अल्पसंख्यकों में अलगाव के बीज बोते हैं, कभी आरक्षण के नाम पर पिछड़े वर्गों को देश की मुख्य धारा से अलग करते हैं। कभी किसी विशेष जाति, प्रान्त या भाषा के हिमायती बनकर देश को तोड़ते हैं। जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा हो, खालिस्तान की माँग हो, असम या गोरखालैंड की पृथकता का आन्दोलन हो, सबके ऊपर वोट के प्रेत मँडराते नजर आते है। इस देश के हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी परस्पर प्रेम में रहना चाहते हैं, लेकिन भ्रष्ट राजनता उन्हें बाँटकर रखना चाहते हैं। राष्ट्रीय एकता में अन्य बाधक तत्व है–विभिन्न धार्मिक नेता, जातिगत असमानता, आर्थिक असमानता आदि।
परस्पर संघर्ष के दुष्परिणाम-जब देश में कोई भी दो राष्ट्रीय घटक संघर्ष करते हैं तो उसका दुष्परिणाम पूरे देश का भुगतान पड़ता है। मामला आरक्षण का हो या अयोध्या के राम-मन्दिर का, उसकी गूंज पूरे देश के जनजीवन को कुप्रभावित करती है। इतिहास प्रमाण है। आरक्षण के नाम पर देशभर में युवक जले सड़के रुको, सम्पत्तियाँ नष्ट हुई। अयोध्या का प्रकरण देश की सीमाओं को पार करके विदेशों में रह-रहे लोगो को भी कँपा गया।
समाधान-प्रश्न यह है कि राष्ट्रीय एकता को बल कैसे मिल? राघर्ष का शमन कैसे हो? इसका एकमात्र उत्तर यही है कि –
शान्ति नही तब तक जब तक
सुख- भाग न सबका राम हा
नही विसी को बहुत अधिक हो
नही किसी को कम हो।। ( क्षेत्र से)
अर्थात् देश में सभी असमानता लाने वाले कानूनों को समाप्त किया जाए। मुस्लिम पर्सनल लॉ, हिन्दू कानून आदि अलगाववादी कानूनों को लिलाजलि दी जाए। उसकी जगह एक राष्ट्रीय कानून लागू किया जाए। मर नागरकों को एक-समान अधिकार प्राप्त हों। किसो को किसी नाम पर भी विशेष गविधा या विशेष दर्जा न दिया जाए। भारत में तुष्टिकरण की नीति बन्द हो!
राष्ट्रीय एकता को बनाने का दूसरा उपाय यह है कि लागों के हृदयों में परस्पर आदर का भाव जगाया जाए। यह काम साहित्यकार, कलाकार, विचारक और पत्रकार कर सकते हैं। वे अपनी लेखनी और कला से देशवासियों को एकता का मन्त्र पढ़ा सकते हैं।
26. कम्प्यूटर : आज की जरूरत
अथवा, कम्प्यूटर-विज्ञान का अद्भुत वरदान
अथवा, जीवन में कम्प्यूटर का महत्व
भूमिका-वर्तमान युग कम्प्यूटर-युग है। यदि भारतवर्ष पर नजर दौडाकर देखें तो हम पाएँगे कि आज जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में कम्प्यूटर का प्रवेश हो गया है। बैंक, रेलवे-स्टेशन, हवाई अड्डे, डाकखाने, बड़े-बड़े उद्योग, कारखाने, व्यवसाय, हिसाब-किताब, रुपये गिनने की मशीने तक कम्प्यूटरीकृत हो गई हैं। अब भी यह कम्प्यूटर का प्रारंभिक प्रयोग है। आने वाला समय इसके विस्तृत फैलाव का संकेत दे रहा है।
आधुनिक उपकरण कम्प्यूटर-इस ‘पागल गति’ को सुव्यवस्था देने की समस्या आज को प्रमुख समस्या है। कहते हैं, आवश्यकता आविष्कार की जननी है। इस आवश्यकता ने अपने अनुसार निदान ढूँढ़ लिया है। कम्प्यूटर एक ऐसी स्वचालित प्रणाली है, जो कैसी भी अव्यवस्था को व्यवस्था में बदल सकता है। हड़बड़ी में होने वाली मानवीय भूलों के लिए कम्प्यूटर रामबाण-औषधि है। क्रिकेट के मैदान में अम्पायर को निर्णायक- भूमिका हो, या लाखों-करोड़ों-अरबों की लम्बी-लम्बी गणनाएँ, कम्प्यूटर पलक झपकते ही आपकी समस्या हल कर सकता है। पहले इन कामों के करने वाले कर्मचारी हड़बड़ाकर काम करते थे; एक भूल से घबड़ाकर और अधिक गड़बड़ी करते थे। परिणामस्वरूप काम कम, तनाव अधिक होता था। अब कम्प्यूटर की सहायता से काफी सुविधा हो गई है।
निर्दोष गणक-कम्यूटर ने फाइलों की आवश्यकता कम कर दी है। कार्यालय की सारी गतिविधियाँ फ्लॉपी में बन्द हो जाती है। इसलिए फाइलों के स्टोरों की जरूरत अब नहीं रही। अब समाचार-पत्र भी इन्टरनेट के माध्यम से पढ़ने की व्यवस्था हो गई है। विश्व के किसी कोने में छपी पुस्तक, फिल्म, घटना की जानकारी इंटरनेट । पर ही उपलब्ध है। एक समय था, जब कहते थे कि विज्ञान ने संसार को कुटुम्ब बना दिया है। कम्प्यूटर ने तो मानो उस कुटुम्ब को आपके कमरे में उपलब्ध करा दिया है। संभव है कम्प्यूटर की सहायता से आप मनचाहं सवाल का जवाब दूरदर्शन या इंटरनेट से ले पाएँ। शारीरिक रूप से न सही, काल्पनिक रूप से जिस मौसम का, जिस प्रदेश का आनन्द उठाना चाहें, उठा सके।
संचार-व्यवस्था-आज टेलीफोन, रेल, फ्रिज, वाशिंग मशीन आदि उपकरणों के बिना नागरिक जीवन जीना कठिन हो गया है। इन सबके निर्माण या क्रियान्वयन में कम्प्यूटर का योगदान महत्वपूर्ण है। रक्षा-उपकरणों, हजारों मील की दूरी पर सटीक निशाना बाँधने, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म वस्तुओं को खोजने में कम्प्यूटर का अपना महत्व है।
आज कम्प्यूटर ने मानव-जीवन को सुविधा, सरलता, सुव्यवस्था और सटीकता प्रदान की है। अत: इसका महत्व बहुत अधिक है।
27. कैसा शासन विन अनुशासन
अनुशासन
भूमिका-शासन और अनुशासन दोनों में घनिष्ठ संबंध है। शासन के बिना अनुशासन की कल्पना नहीं की जा सकती और अनुशासन के बिना शासन नहीं हो सकता। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। वास्तव में शासन ही देश में नियम-कानून बनाता है, ताकि अनुशासन फल-फूल सके। इस प्रकार शासन अनुशासन का निर्माता है, उसका मूल स्रोत है।
समस्या-दुर्भाग्य से आज भारतवर्ष में एक विचित्र स्थिति उपस्थित हो गई है। यहाँ के शासक ही अनुशासनहीन हो गए हैं। संसद का दृश्य देखे। सांसदों का व्यवहार देखकर ऐसा लगता है मानों उन पर किसी प्रकार का कोई अंकुश नहीं रहा। वे भरी संसद में कुछ भी बोलते हैं, कुछ भी करते हैं। उन्हें किसी नियम की परवाह नहीं है। अनेक विधानसभाएं ऐसी हैं जिनमें सत्ताधारी दल और विरोधी दल के सदस्य आपस में गुत्थमगुत्थ हो जाते हैं। कई बार कुर्सियाँ और माइक एक-दूसरे पर फेंके जाते हैं। ऐसा दंगल देखकर देशवासियों का माथा शर्म से झुक जाता है।
संसद से बाहर भी शासकों का व्यवहार अनुशासित नहीं दिखाई देता। शायद ही कोई नेता, मंत्री या पदाधिकारी ठीक समय पर कार्यक्रम पर पहुँचता हो। जहाँ तक वित्तीय अनुशासन की बात है, कितने हो शासकों पर आयकर, दूरभाष-बिल या अन्य व्ययों क भुगतान बकाया है। कोई मंत्री आसानी से सरकारी आवास को खाली नहीं करता, चाहे मंत्री पद छिने कितने समय बीत गया हो। ऐसा मंत्री भला क्या किसी से झुग्गी-झोंपड़ी या अवैध कब्जा खाली कराएगा? जिसे खुद किसी सरकारी कार्यालय का बकाया पैसा देना हो वह कैसे जनता से उगाही करेगा? जो मख्यमंत्री स्वयं अनेक घोटालों में लिप्त हो, आय से अधिक धन-सम्पत्ति रखता हो, वह कैसे जनता में अनुशासन ला सकता है। अनेक प्रान्तों के मुख्यमंत्री स्वयं अनेक भ्रष्टाचारों के सूत्रधार है।
उपसंहार-अनुशासन का अर्थ ही शासन-व्यवस्था के अनुसार चलना है। अत: देशभर को अनुशासन में रखने के लिए शासन का अनुशासित होना अनिवार्य है। जनता सरकार को देखकर आचरण करती है। यदि सरकारी पदाधिकारी ईमानदार सम्मान करते हो तो प्रजा उनका उल्लंघन नहीं कर सकती। अतः अनुशासन लाने का अधिक दायित्व स्वय शासन पर है।
28. वन-संरक्षण
भूमिका-हमारे जीवन में वन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। प्रकृति जीवनदायिनी है। उसी के द्वारा बनाए गए स्वस्थ-वातावरण में साँस लेकर हम. जीवित हैं। वृक्षों और वनों का प्रकृति की जीवन्तता में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। वन मानव-जीवन को अनेक रूपों में उसके अस्तित्व की रक्षा में अद्वितीय योगदान करते हैं।
वृक्ष प्रकृति का सुन्दर उपहार-वृक्ष वस्तुतः हमारे लिए प्रकृति का सुन्दर उपहार है। वृक्षों से हमें लकड़ी प्राप्त होती है जिसपर हमारे अनेकों कारोबार आश्रित हैं। वनों में वृक्षों की सघनता से पर्याप्त वर्षा होती है। बाढ़ नियंत्रण और वातावरण को शुद्ध करना भी इसी पर निर्भर है। वैज्ञानिक-परीक्षणों का निष्कर्ष है कि विगत कुछ वर्षों से मौसम में आई अनियमितता का कारण वनों की निरंतर कटाई है। देश में आवश्यक 33 प्रतिशत भू-भाग के स्थान पर मात्र 23 प्रतिशत क्षेत्र में ही वन हैं। परिणाम अनावृष्टि और अकाल के रूप में हमारे सामने है।।
वृक्षारोपण का महत्व-वृक्षारोपण का महत्व-वृक्षारोपण का महत्व इस तथ्य से समझा जा सकता है कि वह हमें अनेक प्रकार, से हमारे अस्तित्व की रक्षा में, सहायक होते हैं, जिसे निम्नांकित यथार्थपूर्ण कथन द्वारा समझा जा सकता है।
(i) वृक्षों से आच्छादित वन हमें वर्षा देते हैं।
(ii) लकड़ी, कोयला, कागज, गोंद आदि हमें वृक्षों से प्राप्त होते हैं।
(iii) वृक्षों द्वारा धरती का कटाव रूकता है। ये बाढ़ नियन्त्रण में भी सहायक होते हैं।
(iv) वर्षा तथा अन्य स्रोतों से प्राप्त जल को सोखकर धरती की निचली परत तक नमी पहुँचाकर भूमि की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखते हैं तथा मरूस्थल बनने से रोकते हैं।
(v) हमें जीवनदायिनी ऊर्जा और प्राणवायु अत्यधिक मात्रा में ऑक्सीजन छोडकर प्रदान करते हैं। जीवन रक्षा तथा रोगों से मक्ति हेत बहमल्य जडी बटियाँ वनों में वक्ष द्वारा हमें उपलब्ध होती हैं। शक्तिदायक फल भी प्राप्त होते हैं।
(vi) घनी आबादी वाले क्षेत्रों विशेषकर नगरों को प्रदूषण मुक्त करने में सहायक होते हैं।
वृक्ष पूजा-वृक्षों के महत्व को समझते हुए उनकी आराधना वन महोत्सव एवं अन्य आयोजनों द्वारा उन्हें समुचित श्रेष्ठता प्रदान करनी चाहिए। ये देते बहुत कुछ हैं, लेते कुछ नहीं।
मानव मूल्यों के प्रतीक-वन मानव मूल्यों के प्रतीक हैं। ये मानव एवं अन्य प्राणियों का संरक्षण करते हैं। विभिन्न जीवों के जीने से यह संसार अधिक सुन्दर तथा समृद्ध बनता है। अनेक जीवों की जातियाँ समाप्त हो जाती यदि ये वन नहीं होते।
अमूल्य औषधियों के भाडार-ये वन अनेक औषधीय जड़ी-बूटियों के भाडार को अपने अन्तर में समेटे हुए हैं। इन बहूमूल्य जड़ी-बूटियों द्वारा अनेक असाध्य और संक्रामक बीमारियों के लिए औषधियाँ प्रचुर मात्रा में बनाई जाती हैं, जिससे इन रोगों से मुक्ति संभव है।
उपसंहार-वन हमारी अमूल्य निधि हैं। वस्तुतः निष्काम देवता के रूप में प्राणियों की अस्तित्व रक्षा कर रहे हैं। अत: पूजनीय हैं। ये हमारी प्राण-वायु तथा उद्धारक हैं। हमें वृक्षों की कटाई रोककर और अधिकाधिक वृक्ष रोपण द्वारा इनका संरक्षण करना चाहिए।
29. आतंकवाद
संसार भर की समस्या-आतंकवाद अपराध का आधुनिकतम रूप है जिससे विश्व के अनेक देश भयाक्रांत हैं। अब किसी क्षेत्र-विशेप की समस्या न रहकर, सम्पूर्ण-विश्व आतंकवाद की चपेट में आ गया है तथा अन्तर्राष्ट्रीय-स्तर पर निरीह-जनमानस भयातुर है। अमेरिका की गगनचुम्बी वर्ल्ड-ट्रेड-सेन्टर-टावर, भारतीय संसद तथा अयोध्या की राम-जन्मभूमि पर हमला, इन्दिरा गाँधी एवं अनेकों-राष्ट्राध्यक्षों सहित विश्व की महान-हस्तियों की हत्या इस आसुरी-संस्कृति के घिनौने तथा नृशंस उदाहरण हैं। कश्मीर में अबतक असंख्य-व्यक्ति आतंकवाद के शिकार हो चुके हैं।
आतंकवाद के फैलने के कारण- संसार के समस्त-राष्ट्रों का शासन-संचालन या तो लोकतान्त्रिक ढाँचे के अन्तर्गत अथवा राजतंत्रीय-व्यवस्था द्वारा होता है। लोगों की रक्षा, खुशहाली तथा आवश्यकताओं की पूर्ति संवैधानिक-नियमों तथा विधि-व्यवस्था द्वारा की जाती है किन्तु व्यवस्था से असहमत कुछ सिरफिरे-लोग स्वीकृत संवैधानिक-व्यवस्था से इतर अनुचित-हिंसात्मक-गतिविधियों द्वारा अपनी बातें मनवाना चाहते हैं। विश्व के विभिन्न देशों के ऐसे आतंकवादी-समूह आपस में संगठित होते हैं तथा बंकार-युवकों को अनेक प्रलोभन, धन तथा सब्जबाग दिखा एवं दिक्भ्रमित कर अपने आतंकवादी-संगठन में सम्मिलित कर लेते हैं। संवैधानिक जनतांत्रिक-व्यवस्था का पंगु बनाकर संविधानंतर-निरंकुश-तत्र स्थापित करना ही उनका मूल उद्देश्य होता है।
हानियाँ-आतंकवाद की पृष्ठभूमि में विश्व के अधिसंख्य-राष्ट्रों के आतंकवादियों का संगठित योगदान है। अत: अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इससे व्यापक-क्षति हो रही है। भारत, अमेरिका, श्रीलंका, अफगानिस्तान, इराक इत्यादि अनेक-देशों में आतंकवाद की जड़ें गहराई तक जा पहुँची हैं। अतः धन-जन तथा राष्ट्रीय सुरक्षा की अभूतपूर्व-क्षति हो रही है।
समाधान-आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय-स्तर पर संगठित-प्रयास आवश्यक है। विश्व-संस्था “सयुंक्त-राष्ट्रसंघ” द्वारा आतंकवाद के खिलाफ चरणबद्ध-अभियान द्वारा उसकी जड को कमजोर करने की दिशा में सार्थक-पहल युद्ध-स्तर पर अपेक्षित है। विश्व-जनमत को आतंकवाद की बुराइयों, खतरों तथा संभावित-क्षति के प्रति जागरूक करना न केवल आवश्यक वरन् महत्वपूर्ण विकल्प है।
30. भारतीय नारी, अथवा, नारी शिक्षा अथवा स्त्री-शिक्षा
‘विद्या हमारी भी ना तब तक काम में कुछ आएगी-
अगिनियों को भी सुरक्षित दो ना जब तक जाएगी;
सर्वाग के बदले हुई यदि व्याधि पक्षाघात की-
तो भी ना क्या दुर्बल तथा व्याकुल रहेगा वाम भी?”
“मुक्त करो नारी को मानव, चिर वंदिनी नारी को
युग-युग की परतंत्रता से, जननी, सखी, प्यारी को !”
स्त्री एवं पुरुष समाजरूपी रथ के दो पहिए हैं। जिस तरह रथ के चलने में दोनों पहियों का समान हाथ होता है, उसी प्रकार समाज को ससंचरणशीलता में स्त्री और पुरुष का समान हाथ होता है। इन दोनों में एक की भी निर्बलता समाजरूपी रथ की गति को बाधित कर देती है। अत:, समाज की सुव्यवस्थित प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि इसके सभी स्त्री-पुरुष साक्षर और शिक्षित हों। केवल पुरुषवर्ग के शिक्षित होने से समाज और देश का कल्याण नहीं हो सकता। जिस देश की स्त्रियाँ अशिक्षित होती हैं, उस देश की प्रगति की कल्पना नहीं की जा सकती।
प्राचीन भारत में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे। परुषों की तरह स्त्रियाँ भी सुशिक्षित होती थी। पर, मध्यकाल में (मुगलों के शासनकाल में) स्त्रियों को शिक्षा से अलग रखा गया। स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष में स्त्रियों की शिक्षा को अनिवार्यता महसूस की गई। राजा राममोहन राय तथा ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने आधुनिक भारत के निर्माण में स्त्रियों का सहयोग अनिवार्य माना। इसलिए इन्होंने स्त्रियों की शिक्षा पर जोर दिया। महात्मा गाँधी ने भी स्त्री-शिक्षा को समाज और देश के उत्थान के लिए आवश्यक माना।
आज भारत ने स्त्री-शिक्षा के महत्त्व को पहचान लिया है। इसीलिए तो अब यह प्रश्न नहीं उठाया जाता कि स्त्री-शिक्षा आवश्यक है या नहीं। हाँ, इस संदर्भ में यह प्रश्न उठाया जाता है कि क्या स्त्रियों और पुरुषों की शिक्षा प्रणाली एक होनी चाहिए या उनकी प्रकृति के अनुसार भिन्न-भिन्न? मेरी दृष्टि में शिक्षा की विधि दोनों के लिए एक ही होनी चाहिए।
आधुनिक भारत में नारियाँ शिक्षित होकर जीवन के विविध क्षेत्रों में सक्रिय हैं। पर, आज भी पुरुष-मनोविज्ञान स्त्री-मनोविज्ञान पर हावी है, जिसके चलते स्त्रियों के अपेक्षित विकास में अनेक कठिनाइयाँ आ रही हैं। भारतीय समाज में आज भी अंधविश्वास जड़ से दूर नहीं हुए हैं, अत: स्त्री-शिक्षा पर हमारा जितना ध्यान केंद्रित होना चाहिए था, उतना नहीं हो पा रहा है। आर्थिक विपन्नता (गरीबी) भी स्त्रिी-शिक्षा में बाधक बन रही है। यह प्रसन्नता की बात है कि भारत सरकार ने स्नातक स्तर पर लड़कियों को नि:शुल्क शिक्षा देने की योजना बनाई है। इस योजना के कार्यान्वयन से भारत में स्त्री-शिक्षा का अपेक्षित विस्तार होगा।
31. दैव-दैव आलसी पकारा
भूमिका-केवल आलसी लोग ही हमेशा दैव-दैव पुकारा करते है। आलसी व्यक्तियों का गुरूमन्त्र है-“अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। दास मलूका कह गए, सबके दाता रामा” अकर्मण्य व्यक्ति ही भाग्य के भरोसे बैठता है। कर्मवीर व्यक्ति तो ब्राधाओं को परास्त करते हुए अपने बाहुबल पर विश्वास रखते हैं।
आलस्य मनुष्य का महान शत्रु :-आलसी व्यक्ति परिवार, समाज और देश के लिए कलंक होता है। संस्कृत में कहा गया है-आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।” आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। इससे जीवन का पतन हो जाता है। अकर्मण्य व्यक्ति सदा दूसरों का मुंह ताका करता है। वह पराधीन हो जाता है। आलसी मनुष्य ही देव या प्रारब्ध का सहारा लेते हैं।
आलस्य से हानि :-जो व्यक्ति हर बात के लिए दूसरों का मुँह जोहता है, उसे अनेक बार निराशा का सामना करना पड़ता है। आलसी व्यक्ति न व्यापार कर सकता है, न शिक्षा ग्रहण कर सकता है। वह तो कायर बन जाता है। संसार की समस्त बुराइयाँ उसे बुरी तरह घेर लेती हैं। उसका जीवन निरर्थक हो जाता है।
मेहनत से जी चुराने वाले दास मलूका के स्वर में स्वर-मिलाकर भाग्य की दुहाई के गीत गा सकते हैं, लेकिन वे नहीं सोचते कि जो चाहता है, वही आगे बढ़ता है और मंजिल को प्राप्त करता है। परिश्रम से जी चुराना, आलस्य और प्रमोद में जीवन बिताना इसके समान कोई बड़ा पाप नहीं है।
आलस्य त्यागने से लाभ :-हमें अपने हाथों की शक्ति पर भरोसा करना चाहिए। जिस व्यक्ति में आत्मविश्वास है, वह व्यक्ति जीवन में कभी असफल नहीं हो सकता। जीवन में सफलता केवल पुरुषार्थ से ही पाई जा सकती है। स्वावलम्बी व्यक्ति अपने भरोसे रहता है। विश्व का इतिहास ऐसे महापुरुषों से भरा पड़ा है जिन्होंने कर्म में रत रहकर सफलता की उच्चतम् सीमा छू लिया। जो पुरुप उद्यमी एवं स्वावलम्बी होते हैं, वे निश्चय ही सफल हात हैं।
उपसंहार :-पुरुषों में सिंह के समान उद्योगी पुरुष को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है। ‘दैव देगा’ ऐसा कायर पुरुष कहा करते हैं। हमें भगवान भरोसे न रह कर अपनी भरपूर शक्ति से पुरुषार्थ करना चाहिये और यदि फिर भी कार्य सिद्ध न हो तो सोचना चाहिये कि कहाँ और क्या कमी रह गई है। सबसे बड़ा देवत्व है- मनुष्य का पुरुषार्थ। अतः परिश्रमी व्यक्ति राष्ट्र की बहुमूल्य पूँजी है। हमें परिश्रमी होना चाहिए।
32. पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं
अथवा, पराधीन को सुख नहीं
भूमिका-तुलसीदास की यह काव्य-पक्ति बहुत गहरा अर्थ रखती है। इसका , अर्थ है कि पराधीन व्यक्ति स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। मानव जन्म से लेकर मृत्यु तक स्वतन्त्र रहना चाहता है। वह स्वयं को सभी प्रकार की दासताओं से मुक्त करने के लिए बड़े-से-बड़े बलिदान करने को तैयार रहता है। वह किसी भी मूल्य पर अपनी स्वाधीनता बेचना नहीं चाहता। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इसीलिए कहा था कि ‘स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’
एक अभिशाप-हितोपदेश में लिखा है-‘पराधीन को यदि जीवित कह तो मृत कौन है।’ पराधीनता जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। क्या सोने के पिंजरे में पड़ा पक्षी सच्चे सुख और आनन्द की अनुभूति कर सकता है? नहीं। अग्रेजो में एक सूक्ति है-‘स्वर्ग में दास बनकर रहने की अपेक्षा नरक में स्वाधीन शासन करना अधिक अच्छा है।’
द्वानियाँ-पराधीन व्यक्ति कभी चैन की साँस नहीं ले सकता। उसके माथे पर सदा अपने मालिक की तलवार लटकी रहती है। उसे मालिक की इच्छा का दास बने रहना पड़ता है। स्वामी के अत्याचारों को गूंगे बनकर सहना पड़ता है। अधीन रहतेरहते उसकी आत्मा तक गुलाम हो जाती है। उसे तलवे चाटने की आदत पड़ जाती है जो मानवीय गरिमा के विपरीत है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को तच्छ, हीन और कलंकित मानने लगता है। उसके व्यक्तित्व का विकास रुक जाता है। उसके जीवन का आनन्द मारा जाता है। उसकी हँसी और मुस्कान गायब हो जाती है। उसमे और पूँछ हिलाने वाले पशु में कोई अन्तर नहीं रहता।
प्रकार-पराधीनता केवल राजनीतिक ही नहीं होती, वह मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक या अन्य प्रकार की भी हो सकती है। यदि कोई व्यक्ति दूसरे के विचारो से इतना अधिक प्रभावित है कि अपना मौलिक विचार ही नहीं कर सकता तो उसे हम बौद्धिक रूप से गुलाम कहेंगे। यदि कोई जाति दूसरी जाति को श्रेष्ठ मानकर उसका अन्धानुकरण करती है तो हम उसे मानसिक गुलाम कहंगे। जैसे भारतीय मानसिकता अभी भी अंग्रेजो की गुलाम है। यदि कोई व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से दूसरे पर निर्भर है और इस कारण आज़ाद होकर नहीं जी जा सकता तो वह भी एक प्रकार का पराधीन है।
निष्कर्ष-पराधीनता चाहे किसी प्रकार की हो, वह मानव को सच्चे आनन्द से वंचित कर देती है। पराधीन व्यक्ति अथवा देश सम्मानपूर्वक नहीं जी सकता। पराधीनता से बचने का एक ही उपाय है-संघर्ष और बलिदान। आजादी मिलती नहीं, छीनी जाती है। उसके लिए सिर हथेली में लिए हुए युवक चाहिए। अत: जिसे स्वतन्त्रता से जीना हो, उसे बलिदान के लिए तैयार रहना चाहिए।
33. जो तोको काँटा वुवै ताहि बोई तू फूल
हिन्दी का एक प्रसिद्ध दोहा है-
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोई तू फूल।
तोहे फूल को फूल है ताको है तिरसूल।
यह दोहा मनुष्य के मनोविज्ञान की गहरी व्याख्या करता है। इसमें यह प्रश्न उठाया गया है कि बुरे कर्म का विरोध बुरे कर्म से किया जाए या अच्छे कर्म से। कीचड़ को कीचड़ से धोया जाए या निर्मल जल से। घृणा को प्रेम से जीता जाए या महाघृणा से? जो हमारे लिए संकट पैदा कर रहा हो, उसके साथ मित्र जैसा आचरण करें या शत्रु जैसा? प्रश्न वास्तव में जटिल है।
साधारणतया देखने में आता है कि लोग ईंट का जवाब पत्थर से देने की वकालत करते हैं। ‘जैसे को तैसा’, ‘सेर के साथ सवा सेर’, ‘तुम बाँके तो हम महाबाँके’ जैसे वाक्य बड़े लोकप्रिय बनते जा रहे हैं। एक दोहा भी प्रचलित हो चला है-
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोई तू भाला।
वो पट्ठा क्या याद करे, था पड़ा किसी से पाला।।
यह दोहा क्रोध के विरुद्ध प्रतिक्रोध और प्रतिशोध की वकालत करता है। शायद सरल और स्वाभाविक भी यही है कि आँख उठाकर देखने वालों की दोनों आँखें फोड़ दी जाएँ। जब कोई हमारे विरुद्ध षड्यन्त्र करता है तो हम स्वाभाविक रूप से क्रोध में लाल-पीले हो जाते है। कई बार हमारा क्रोध देखकर षड्यन्त्रकारी डर भी जाता है। तब हमारे मन में यह धारणा पक्की हो जाती है कि ‘डंडे के बल बन्दर नाचे’। परन्तु यह धारणा पूरी तरह सत्य नहीं है।
मनोविज्ञान यह कहता है कि क्रोध चाण्डाल है तो प्रतिक्रोध महाचाण्डाल। क्रोध को शान्ति से जीता जा सकता है, घृणा को प्रेम से जीता जा सकता है, कीचड़ को निर्मल जल से धोया जा सकता है। यहाँ प्रश्न है कि ‘प्रतिक्रोध’ बड़ा हथियार है या ‘क्षमा’। हमारा विश्वास है कि ‘क्षमा’ बड़ा हथियार है। क्षमा करने से शत्रु मन से लज्जित होता है। प्रतिक्रोध से उसके हृदय में संघर्ष की अग्नि उठती है या भय की भावना जन्म लेती है। दोनों ही भावनाएँ अहितकर हैं। यदि शत्रु ने संघर्ष किया तो परिणाम होता है–अशान्तिा यदि वह भयभीत हो गया, तो फिर अवसर की तलाश में रहेगा और मौका पाते ही आक्रमण करेगा। अत: यह तो काँटे से मुक्ति का अस्थायी प्रबन्ध हुआ। स्थायी प्रबन्ध के लिए शत्रु का हृदय-परिवर्तन होना चाहिए।
मानव का स्वभाव है कि वह अच्छाई के सामने झुकता है। वह मन-ही-मन अच्छाई की इज्जत करता है। यदि शत्रु हमारी भलाई कर दे तो हम डूब मरने को हो जाते हैं। फिर हमारी आँखों में उससे लड़ने की शक्ति नहीं रहती। हम किसी के शत्रु तभी तक रहते हैं, जब तक कि हम उसका बुरा करते है। एक बार भी हमने उसका भला कर दिया या पीठ पीछे उसकी प्रशंसा कर दी तो वह शत्रुता भूलकर हमारे प्रति विनम्र होना शुरू कर देता है। यदि हम शत्रु के दुख में उसकी सहायता के लिए तत्पर हो जाएँ तो वह सारी शत्रुता भूल जाता है। अत: भलाई में न केवल शक्ति है, अपित हृदय को बदल डालने की अद्भुत क्षमता है।
इस दोहे में एक मनोवैज्ञानिक सत्य यह भी बताया गया है कि फूल तो हमेशा ‘फूल’ कहलाएगा किन्तु काँटा ‘त्रिशूल’ बनके चुभेगा। शत्रुता का समय बीत जाने पर अच्छे कर्म करने वाले का सर सदा गौरव से ऊँचा रहेगा। वह सबको बड़े गर्व से अपनी गाथा सुनाएगा, जबकि काँटे बोने वाले का माथा झुका रहेगा। उसे उसके बुरे कर्म सताएँगे। उसके बुरे कर्म ही उसके लिए त्रिशूल जैसी चुभन पैदा करके हृदय छलनी कर देंगे। अतः बुरा करने वाले का भी भला करो। भला आदमी कभी-कभी हार जरूर जाता है किन्तु अन्तिम और स्थायी जीत उसकी ही होती है, आत्मा उसी की प्रसन्न होती है। गहरी नींद उसी को आती है।
34. मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
मन की शक्ति-मन बहुत बलवान है। शरीर की सब क्रियाएँ मन पर भी निर्भर करती हैं। यदि मन में शक्ति, उत्साह और उमंग हो तो शरीर भी तेजी से कार्य करता है। अत: व्यक्ति की हार-जीत उसके मन की दुर्बलता-सबलता पर निर्भर है।
दृढ़ संकल्प-यदि मन में दृढ़ संकल्प हो तो दुनिया का कोई संकट व्यक्ति को रोक नहीं सकता। एक कहावत है-‘जाने वाले को किसने रोका है?’ अर्थात् जिसके मन में जाने का संकल्प हो तो कोई भी परिस्थिति उसे जाने से रोक नहीं सकती। विषम परिस्थितियों में से भी संकल्पवान व्यक्ति रास्ता निकाल लेता है।
संघर्ष की क्षमता-किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति का दृढ़-संकल्प होना जरूरी है। गुलामी और आतंक के वातावरण में क्रान्तिकारी किस प्रकार विद्रोह का बिगुल बजा लेते हैं? सूखी रोटियाँ खाकर और कठोर धरती को शय्या बनाकर भी देश को आजाद कराने का कार्य कैसे कर पाए महाराणा प्रताप? वह कौन-सा बल था, जिसके आधार पर मुट्ठीभर हड्डियों वालं महात्मा गाँधी विश्वविजयी अंग्रेजों को देश से बाहर कर सके। निश्चय ही यह थी-मन की सबलता।
विजय के लिए धैर्य आवश्यक-मन की सबलता के लिए सत्य, न्याय और कल्याण के भाव का होना जरूरी है। जिसके मन में सत्य की शक्ति नहीं है, जो न्याय के पक्ष में नहीं है, उसके मन में तेज नहीं आ पाता। अनुचित कार्य करने वाला व्यक्ति आधा मन यूँ ही हार बैठता है। उसके मन में एक छिपा हुआ चोर होता है, जो उसे कभी सफल नहीं होने देता।
मन की स्थिरता, दृढ़ता और धीरता ऐसे गुण हैं जो व्यक्ति को विजय की ओर अग्रसर करते हैं। संकटों की बाढ़ में जो बह जाते हैं, रोने-चिल्लाने लगते हैं, वे कायरों-सा जीवन जीते हुए नष्ट हो जाते हैं। संकटों की उत्ताल तरंगों को सहर्ष झेलकर जो युवक कर्तव्य-मार्ग पर चलते रहते हैं वे ही विजयी होते हैं। कर्मवान युवक का धर्म तो कवि के शब्दों में ऐसा होना चाहिए-
जब नाव जल में छोड़ दी
तूफान ही में मोड़ दी
दे दी चुनौती सिन्धु को
फिर धार क्या मंझधार क्या?
कार्य करने से पूर्व ही यदि व्यक्ति का मन शिथिल हो तो फिर विजय प्राप्त हो ही नहीं सकती। बीमार और पराजित मन को हर बाधा अपना शिकार बनाती है। अत: यह बात पूरी तरह सच है कि जीत या हार मन की स्थिति पर निर्भर है।
35. समय अमूल्य धन है
अथवा, समय का सदुपयोग
भूमिका-फ्रैंकलिन का कथन है-‘तुम्हें अपने जीवन से प्रेम है, तो समय को व्यर्थ मत गँवाओ क्योंकि जीक्म इसी से बना है।’ समय को नष्ट करना जीवन को नष्ट करना है। समय ही तो जीवन है। ईश्वर एक बार एक ही क्षण देता है और दूसरा क्षण देने से पहले उसको छीन लेता है। समय ही एक ऐसी वस्तु है जिसे खोकर पुन: प्राप्त नहीं किया जा सकता। समय का कोई मोल नहीं हो सकता। श्रीमन्नारायण ने लिखा
‘समय धन से कहीं अधिक महत्त्वपर्ण है। हम रुपया-पैसा तो कमाते ही हैं और जितना अधिक परिश्रम करे उतना ही अधिक धन कमा सकते हैं। परन्त क्या हजार परिश्रम करने पर भी चौबीस घण्टों में एक भी मिनट बढ़ा सकते हैं? इतनी मल्यवान वस्तु का धन से फिर क्या मुकाबला!’ इससे समय की महत्ता पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है।
समय के सदुपयोग का अर्थ है-उचित अवसर पर उचित कार्य पूरा कर लेना। जो लोग आज का काम कल पर और कल का काम परसों पर टालते रहते हैं, वे एक प्रकार से अपने लिए जंजाल खड़ा करते चले जाते हैं। मरण को टालते-टालते एक दिन सचमुच मरण आ हो जाता है। जो व्यक्ति उपयुक्त समय पर कार्य नही करता, वह समय को नष्ट करता है। एक दिन ऐसा आता है, जबकि समय उसको नष्ट __ कर देता है। जो छात्र पढ़ने के समय नहीं पढ़ते, वे परिणाम आने पर रोते हैं।
समय रुकता नहीं। जिसे उसका उपयोग करना है, उसे तैयार होकर उसके आने का अग्रिम इन्तजार करना चाहिए। जो समय के निकल जाने पर उसके पीछे दौड़ते हैं, वे ज़िन्दगी मे सदा घिसटते-पिटते रहते हैं। समय सम्मान माँगता है। इसलिए कबीर ने कहा है-
काल करे सो आज कर आज करे सो अब।
पल में परलय होगा, बहुरि करेगा कब।।
जो जाति समय का सम्मान करना जानती है, वह अपनी शक्ति को कई गुना । बढ़ा लेती है। यदि सभी गाड़ियाँ अपने निश्चित समय से चलने लगें तो देश में कितनी कार्यकुशलता बढ़ जाएगी। यदि कार्यालय के कार्य ठीक समय पर सम्पन्न हो जाएँ, कर्मचारी समय के पाबन्द हों तो सब कार्य सुविधा से हो सकेंगे। यदि रोगी को ठीक समय पर दवाई न मिले तो उसकी मौत भी हो सकती है। अत: हमें समय की गम्भीरता को समझना चाहिए। गाँधी जी एक मिनट देरी से आने वाले व्यक्ति को क्षमा नहीं करते थे। आप ही सोचिए, सष्टि का यह चक्र कितना नियमित है, कितना समय का पाबन्द है? यदि एक भी दिन धरती अपनी धुरी पर घूमने में देरी कर जाए तो परिणाम क्या होगा? _ विनाश और महाविनाश। अत: हमें समय की महत्ता को समझना चाहिए।