Bihar Board Class 9 Hindi Solutions गद्य Chapter 3 ग्रीम-गीत का मर्म

Bihar Board Class 9 Hindi Book Solutions Godhuli Bhag 1 गद्य खण्ड Chapter 3 ग्रीम-गीत का मर्म Text Book Questions and Answers, Summary, Notes.

BSEB Bihar Board Class 9 Hindi Solutions गद्य Chapter 3 ग्रीम-गीत का मर्म

Bihar Board Class 9 Hindi ग्रीम-गीत का मर्म Text Book Questions and Answers

 

ग्राम गीत का मर्म Bihar Board Class 9 Hindi प्रश्न 1.
‘ग्राम-गीत का मर्म’ निबंध में व्यक्त सुधांशुजी के विचारों को सार रूप में प्रस्तुत करें।
उत्तर-
पाठ का सारांश देखें।

Gram Geet Ka Marm Bihar Board Class 9 Hindi प्रश्न 2.
जीवन का आरंभ जैसे शैशव है, वैसे ही कला-गीत का ग्राम-गीत है। लेखक के इस कथन का क्या आशय है।
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ लक्ष्मी नारायण सुधांशु द्वारा लिखित ‘ग्राम-गीत का मर्म’ – पाठ से उद्धृत हैं। इसमें लेखक ने कला-गीत .और ग्राम-गीत का संबंध जीवन से उद्घाटित किया है।

सुधांशु जी ने बताया है कि ग्राम-गीत संभवतः वह जातीय आशु कवित्व है, जो कर्म या क्रीड़ा के तल पर रचा गया है। गीत का उपयोग जीवन के महत्वपूर्ण समाधान के अतिरिक्त साधारण मनोरंजन भी है। इस तथ्य के माध्यम से सुधांशुजी ने दार्शनिक विचारों को हमारे सामने रखकर सत्य को उजागर किया है।

Gram Geet Ka Marm Question Answer Bihar Board Class 9 Hindi प्रश्न 3.
गार्हस्थ्य कर्म विधान में स्त्रियाँ किस तरह के गीत गाती हैं?
उत्तर-
चक्की पीसते समय, धान कूटते समय, चर्खा काटते समय, अपने शरीरी श्रम को हल्का करने के लिए स्त्रियाँ गीत गाती हैं।

Gram Git Ka Marm Bihar Board Class 9 Hindi प्रश्न 4.
मानव जीवन में ग्राम-गीतों का क्या महत्व है?
उत्तर-
मानव जीवन में ग्राम-गीतों का महत्व मुख्य रूप से पारिवारिक जीवन से है। ग्राम-गीतों का महत्व मानव जीवन में पुरुष और स्त्रियों में अलग-अलग है। पुरुष और स्त्रियों के गीतों के तुलनात्मक अध्ययन में ग्राम-गीतों की प्रकृति स्त्रैण ही रही. परुषत्व का आक्रमण उन पर नहीं किया जा सका। स्त्रियों ने जहाँ कोमल भावों की अभिव्यक्ति की वहाँ पुरुषों ने अवश्य ही अपने संस्कारवश प्रेम को प्राप्त करने के लिए युद्ध-घोषणा की। इस प्रकार मनुष्य की दो सनातन प्रवृत्तियों-प्रेम और युद्ध का वर्णन भी ग्राम-गीतों में मिलता है। तत्वतः ग्राम-गीत हृदय की वाणी है, मस्तिष्क की ध्वनि है। इसलिए मानव जीवन में ग्राम-गीतों का बहुत ही व्यापक महत्व है।

ग्राम गीत का मर्म निबंध Bihar Board Class 9 Hindi प्रश्न 5.
“ग्राम-गीत हृदय की वाणी है, मस्तिष्क की ध्वनि नहीं।” आशय । स्पष्ट करें।
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ लक्ष्मी नारायण सुधांशु लिखित “ग्राम-गीत का मर्म” पाठ से उद्धृत है। इसमें लेखक ने ग्रामगीत के उद्गम स्थान की खोज बड़े ही मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक ढंग से की है।

लेखक का कहना है कि ग्राम-गीत हृदय की वाणी है। जैसी परिस्थिति आई इसकी उद्भावना व्यक्तिगत जीवन के उल्लास-विषाद को लेकर हुई। मानव जातीयता में उसकी सारी वैयक्तिक विशेषता अंतर्निहित हो गई। वह व्यक्ति को साथ लेकर भी उसको, प्रधान न रख, उपलक्ष्य बनाकर भावों की स्वाभाविक मार्मिकता के साथ अग्रसर हुए।

Gram Geet Ki Prakriti Kya Bihar Board Class 9 Hindi प्रश्न 6.
ग्राम-गीत की प्रकृति क्या है?
उत्तर-
ग्राम-गीत में रचना की जो प्रकृति स्त्रैण थी भी वह कला-गीत में आकर पौरुषपूर्ण हो गई। लेकिन मुख्य रूप से ग्राम-गीत की पद्धति स्त्रैण ही रही।

प्रश्न 7.
कला-गीत और ग्राम-गीत में क्या अंतर है?
उत्तर-
ग्राम-गीत की रचना में जिस पद्धति और संकल्प का विधान था, कला-गीत में उसकी उपेक्षा करना समुचित न माना गया। अत्यधिक संस्कृत तथा परिष्कत होने के बाद भी कला-गीत अपने मल ग्राम-गीत से कला-गीत के परि
परिवर्तन में एक बात उल्लेखनीय है कि ग्राम-गीत में रचना की जो प्रकृति स्त्रैण थी, वह कला-गीत में आकर पौरुषपूर्ण हो गई। स्त्री और पुरुष रचयिता के दृष्टिकोण में जो सूक्ष्म और स्वाभाविक भेद हो सकता है, वह ग्राम-गीत और कला-गीत की अंतप्रकृति में बना रहा ग्राम-गीत में स्त्री की ओर से पुरुष के प्रति प्रेम की जो आसन्नता थी, वह कला-गीत में बहुधा पुरुष के उपक्रम के रूप में परिवर्तित होने लगी।

प्रश्न 8.
‘ग्राम-गीत का ही विकास कला-गीत में हुआ है।’ पठित निबंध को ध्यान में रखते हुए उसकी विकास-प्रक्रिया पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
कला-गीत के अंतर्गत मुक्तक और प्रबंध काव्य दोनों का समावेश है। इनके इतिहास का अनुसंधान करने पर ग्राम-गीतों पर ही आकर ठहरना पड़ता है। इसमें संन्देह नहीं कि ग्राम-गीतों से ही काल्पनिक तथा वैचित्र्यपूर्ण कविताओं का विकास हुआ है। यही ग्राम-गीत क्रमशः सभ्य जीवन के अनुक्रम से कला-गीत के रूप में विकसित हो गया है, जिसका संस्कार अब तक वर्तमान है। ग्राम-गीत भी प्रथमतः व्यक्तिगत उच्छवास और वेदना को लेकर उद्गीत किया गया; किन्तु इन भावनाओं ने समष्टि का इतना प्रतिनिधित्व किया कि उनकी सारी वैयक्तिक सत्ता समाविष्ट में ही तिरोहित हो गई और इस प्रकार उसे लोक-गीत की संज्ञा प्राप्त हुई। ग्राम-गीत को कला-गीत के रूप में आते-आते कुछ समय तो लगा ही, पर उसमें सबसे मुख्य बात यह रही कि कला-गीत अपनी रूढ़ियाँ बनाकर चले।।

प्रश्न 9.
ग्राम-गीतों में प्रेम-दशा की क्या स्थिति है? पठित निबंध के आधार पर उदाहरण देते हुए समझाइए।
उत्तर-
प्रेम-दशा जितनी व्यापकत्व विधायनी होती है, जीवन में उतनी और कोई स्थिति नहीं। प्रेम या विरह में समस्त प्रकृति के साथ जीवन की जो समरूपता देखी जाती है वह क्रोध, शोक, उत्साह, विस्मय, जुगप्सा में नहीं।

प्रश्न 10.
‘प्रेम या विरह में समस्त प्रकृति के साथ जीवन की जो समरूपता देखी जाती है, वह क्रोध, शोक, विस्मय, उत्साह, जुगुप्सा आदि में नहीं।” आशय स्पष्ट करें।
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ लक्ष्मी नारायण सुधांशु द्वारा लिखित ‘ग्राम-गीत का मर्म’ शीर्षक से उद्धृत की गई हैं। इसमें लेखक ने प्रेम की क्या-क्या दशा होती है उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण बड़े ही मार्मिक ढंग से किया है।

लेखक का कहना है कि विरहाकुल पुरुष पशु, पक्षी, लता-द्रुम सबसे अपनी वियुक्त प्रिय का पता पूछ सकता है, किन्तु क्रुद्ध, मनुष्य अपनी शत्रु का पता प्रकृति से नहीं पूछता पाया जाता। यही कारण है कि प्रेमिका या प्रेमी प्रकृति के साथ अपने जीवन का जैसा साहचर्य मानते हैं, वैसा और कोई नहीं। मनोविज्ञान का यह तथ्य काव्य में एक प्रणाली के रूप में समाविष्ट कर लिया गया है। प्रिय के अस्तित्व की सृष्टि-व्यापिनी भावना से जीवन और जगत की कोई वस्तु अलग नहीं कर सकती। यही लेखक का आशय है जो दार्शनिक आधार पर सत्य साबित होता है।

प्रश्न 11.
ग्राम-गीतों में मानव-जीवन के किन प्राथमिक चित्रों के दर्शन होते हैं?
उत्तर-
ग्राम-गीतों में मानव जीवन के उन प्राथमिक चित्रों के दर्शन होते हैं जिनमें मनुष्य साधारणतः अपनी लालसा, वासना, प्रेम, घृणा, उल्लास, विषाद को समाज की मान्य धारणाओं से ऊपर नहीं उठा-सका है और अपनी हृदयगत भावनाओं को प्रकट करने में उसने कृत्रिम शिष्टाचार का प्रतिबंध भी नहीं माना है।

प्रश्न 12.
गीत का उपयोग जीवन के महत्वपूर्ण समाधान के अतिरिक्त साधारण मनोरंजन भी है। निबंधकार ने ऐसा क्यों कहा है?
उत्तर-
मनोरंजन के विविध रूप और विधियाँ हैं। स्त्री प्रकृति में गार्हस्थ्य कर्म-विधान की जो स्वाभाविक प्रेरणा है, उससे गीतों की रचना का अटूट संबंध है। चक्की पिसते, समय, धान कूटते समय, चर्खा कातते समय अपने शरीरश्रम को हल्का करने के लिए स्त्रियाँ गीत गाती हैं जिसमें उसका अभिप्रायः यह रहता है कि परिश्रम के कारण जो थकावट आई है उससे ध्यान हटाकर अन्यथा मनोरंजन में चित्त संलग्न किया जा सके।

प्रश्न 14.
किसी विशिष्ट वर्ग के नायक को लेकर जो काव्य रचना की जाती थी। किन स्वाभाविक गुणों के कारण साधारण जनता के हृदय पर उनके महत्व की प्रतिष्ठा बनती थी?
उत्तर-
राजा-रानी, राजकुमार या राजकुमारी या ऐसे ही समाज के किसी विशिष्ट वर्ग के नायक को लेकर काव्य रचना की जो प्रणाली बहुत प्राचीन काल से चली आ रही थी और जिसका संस्कृत साहित्य में विशेष महत्व था। उसका प्रधान कारण यह था कि वैसे विशिष्ट व्यक्तियों के लिए साधारण जनता के हृदय पर उनके महत्व की प्रतिष्ठा बनी हुई थी। उनमें धीरोदात्त, दक्षता, तेजस्विता, रूढ़वंशता, वाग्मिता आदि गुण स्वभाविक माने जाते थे।

प्रश्न 15.
ग्राम-गीत की कौन-सी प्रवृत्ति अब काव्य गीत में चलने लगी है?
उत्तर-
बच्चे अब भी राजा, रानी, राक्षस, भूत, जानवर आदि की कहानियाँ सुनने को ज्यादा उत्कठित रहते हैं। साधारण तथा प्रत्यक्ष जीवन में जो घटनाएँ होती रहती हैं, उनके अतिरिक्त जो जीवन से दूर तथा अप्रत्यक्ष है, उनके संबंध में कुछ जानने की लालसा तथा उत्कंठा अधिक बनी रहती है। मानव जीवन का पारस्परिक संबंध सूत्र कुछ ऐसा विचित्र है कि जिस बात को हम एक काल और एक देश में बुरा समझते हैं उसी बात को दूसरे काल और दूसरे देश अच्छा मान लेते हैं। यही बात ग्राम-गीत की प्रकृति से काव्यगीत की है।

प्रश्न 16.
ग्राम-गीत के मेरूदण्ड क्या हैं?
उत्तर-
हमारी दरिद्रता के बीच में भी संपत्तिशालीनता का यह रूप हमारे भाव को उद्दीप्त करने के लिए ही उपस्थित किया गया है। ऐसे वर्णन कला-गीत में चाहे विशेष महत्व प्राप्त न करें, किन्तु ग्राम-गीत के वे मेरुदण्ड समझे जाते हैं।

प्रश्न 17.
‘प्रेम दशा जितनी व्यापक विधायिनी होती है, जीवन में उतनी और कोई स्थिति नहीं।’ प्रेम के इस स्वरूप पर विचार करें तथा आशय स्पष्ट करें।
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ लक्ष्मी नारायण सुधांशु द्वारा लिखित ‘ग्राम-गीत का मर्म’ शीर्षक से उद्धृत की गई हैं। इसमें लेखक ने प्रेम-दशा का जो रूप होता है उसका बड़ा ही सुन्दर रूप प्रस्तुत किया है।
लेखक ने बताया है कि प्रेम या विरह में समस्त प्रकृति के साथ जीवन की जो समरूपता देखी जाती है वह क्रोध, शोक, उत्साह, विस्मय, जुगुप्सा आदि में नहीं। विरहाकुल. पुरुष पशु, पक्षी, लता, द्रुम सबसे अपनी वियुक्त प्रिया का पता पूछ सकता है किन्तु क्रुध मनुष्य अपने शत्रु का पता प्रकृति से नहीं पूछ सकता। प्रेम के इस स्वरूप पर लेखक ने दार्शनिकता की छाप छोड़ी है।

प्रश्न 18.
‘कला-गीतों में पशु-पक्षी, लता-दुम आदि से जो प्रश्न पूछे गए हैं, उनके उत्तर में, वे प्राय मौन रहे हैं। विरही यक्ष मेघदूत भी मौन ही रहा है। लेखक के इस कथन से क्या आप सहमत हैं? यदि हैं तो अपने विचार दें।
उत्तर-
हाँ. मैं लेखक के मत से सहमत हूँ क्योंकि कला-गीतों में कलात्मकता की भावना ऐसी है कि बहुत से प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं लेकिन ग्राम-गीत मौन नहीं रहता। क्योंकि ग्राम-गीतों में ऐसे वर्णन बहुत हैं जहाँ नायिका अपने प्रेमी की खोज में बाघ, भालू, साँप आदि से उसका पता पूछती चलती है। आदिकवि वाल्मीकि ने विरह-विह्वल राम के मुख से सीता की खोज के लिए न जाने कितने पशु-पक्षी, लता-द्रुम आदि से पता पुछवाया है। इसके अतिरिक्त सीता के अनुसंधान तथा उनके पास राम का प्रणय संदेश पहुँचाने के लिए, जो हनुमान को दूत बनाकर तैयार किया, वह काव्य में इस परिपाटी का मार्ग-दर्शक ही हो गया।

प्रश्न 19.
‘ग्राम-गीत का मर्म’ निबंध के इस शीर्षक में लेखक ने ‘मर्म’ ‘ शब्द का प्रयोग क्यों किया है? विचार कीजिए।
उत्तर-
प्रस्तुत निबंध में लेखक ने ग्राम-गीत के मर्म का उद्घाटन करते हुए। काव्य और जीवन में उसके महत्व का निरूपण किया है। ग्राम-गीत का उद्भव और उसकी प्रवृत्ति का अनुसंधान करते हुए उन्होंने प्रतिपादित किया है कि जीवन की शुद्धता और गांवों की सरलता का जितना मार्मिक वर्णन ग्राम-गीतों में मिलता है उनका परवर्ती कला-गीतों में नहीं।

निम्नलिखित गद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

1. ग्राम-गीतों में मानव-जीवन के उन प्राथमिक चित्रों के दर्शन होते हैं, जिनमें मनुष्य साधारणतः अपनी लालसा, वासना, प्रेम, घृणा, उल्लास, विषाद को समाज की मान्य धारणाओं से ऊपर नहीं उठा सका है और अपनी हृदयगत भावनाओं को प्रकट करने में उसने कृत्रिम शिष्टाचार का प्रतिबंध भी नहीं माना है। उनमें सर्वत्र रूढ़िगत जीवन ही नहीं है, प्रत्युत्त कहीं-कहीं प्रेम, वीरता, क्रोध, कर्तव्य का भी बहुत रमणीय वाह्म तथा अंतर्विरोध दिखाया गया है। जीवन की शुद्धता और भावों की सरलता का जितना मार्मिक वर्णन ग्राम-गीतों में मिलता है, उतना परवर्ती कलागीतों में नहीं।
(क) इसके पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) ग्राम-गीतों में किन चित्रों के दर्शन होते हैं?
(ग) ग्राम-गीतों में आए चित्रों की क्या विशेषताएँ हैं?
(घ) “कृत्रिम शिष्टाचार के प्रतिबंध” और ‘रूढ़िगत जीवन’ का क्या अभिप्राय है?
(ङ) ग्राम-गीतों की मूल विशेषता का परिचय दें।
उत्तर-
(क) पाठ-ग्राम-गीत का मर्म, लेखक-लक्ष्मी नारायण सुधांशु।

(ख) ग्राम-गीत हमारे प्रारंभिक जीवन से जुड़े होते हैं। उन गीतों में मानव जीवन के विभिन्न प्रकार के वैसे प्राथमिक चित्रों का अंकन मिलता है जिनमें सामान्य और साधारण रूप से आम आदमी की सामाजिक मान्य धारणाओं में बँधी लालसाओं, वासनाओं, प्रेम-घृणा, उल्लास तथा विषाद की भावनाएँ प्रतिबिंबित रहती

(ग) ग्राम-गीतों में आए चित्र हमारे प्राथमिक जीवन से जुड़े होते हैं। उन चित्रों में आम आदमी की सामान्य दुःख-सुख, हर्ष-विषाद, क्रोध, घृणा आदि की वैसी सामान्य भावनाएँ अंकित रहती हैं जो सामान्य रूप से सामाजिक मान्य धारणाओं से नियंत्रित रहती हैं। ऐसी भावनाओं को प्रकट करने में ग्राम-गीतकार बनावटी शिष्टाचार के प्रतिबंध से अपने-आपको मुक्त रखते हैं। फलत: वे भावनाएँ स्वाभाविक रूप से अभिव्यंजित होती है।

(घ) ‘कृत्रिम शिष्टाचार के प्रति-ध’ का यहाँ यह मतलब है कि ग्राम-गीतों में आम आदमी की सामान्य भावनाओं को प्रकट करने का जो रूप है वह बिल्कुल स्वाभाविक और मनुष्य की सामान्य कृति के अनुरूप है। उसमें किसी प्रकार की शिष्टाचारगत अस्वाभाविकता और कृत्रिमता, अर्थात बनावटीपन नहीं मिलता। इसी तरह रूढ़िगत जीवन का यहाँ अर्थ है-परंपरागत जीवन की मान्यताओं, जीवन-शैलियों और जीवन-पद्धतियों से जुड़ा जीवन।

(ङ) ग्राम-गीतों की मूल विशेषता यह होती है कि उन गीतों में मानव-जीवन की सरलता और शुद्धता का बड़ा ही मार्मिक चित्रण मिलता है। ये गीत कृत्रिम जीवन-शैली की कलुषित छाया से बिल्कुल. मुक्त होते हैं। इसीलिए इन गीतों में सामान्य जीवन के स्वाभाविक और निष्कलुष सौंदर्य के अंकन अपने मौलिक रूप में मिलते हैं। ग्राम-गीतों की यह मौलिक और दुर्लभ विशेषता कलागीतों में भी नहीं मिलती, क्योंकि वहाँ किसी-न-किसी रूप में कृत्रिमता के प्रभाव की छाया विद्यमान रहती ही है।

2. जीवन का आरंभ जैसे शैशव है, वैसे ही कला-गीत का ग्राम-गीत है। ग्राम-गीत संभवतः वह जातीय आशु कवित्व है, जो कर्म या क्रीड़ा के ताल पर रचा गया है। गीत का उपयोग जीवन के महत्त्वपूर्ण समाधान के अतिरिक्त साधारण मनोरंजन भी है, ऐसा कहना अनुपयुक्त न होगा। मनोरंजन के विविध रूप और विधियाँ हैं। स्त्री प्रकृति में गार्हस्थ्य कर्म-विधान की जो स्वाभाविक प्रेरणा है, उससे गीतों की रचना का अटूट संबंध है। चक्की पीसते समय, धान कूटते समय, चर्खा कातते समय, अपने शरीर-श्रम को हल्का करने के लिए स्त्रियाँ गीत गाती हैं। उस समय उनका अभिप्राय साधारणतः यही रहता है कि परिश्रम के कारण जो थकावट आई रहती है, उससे ध्यान हटाकर अन्यथा मनोरंजन – में चित्त संलग्न किया जा मैके। इनके, अतिरिक्त कुछ ऐसे गीत भी हैं, जो भाव के उमंग में गाए जाते हैं। जन्म, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह, पर्व-त्योहार आदि के अवसर पर जो गीत गाए जाते हैं, उनमें उल्लास और उमंग की ही प्रधानता रहती है।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) कला-गीत और ग्राम-सीत में क्या संबंध है?
(ग) गीत का उपयोग किस रूप में और किस क्षेत्र में किया जाता
(घ) ग्राम-गीत गायन में स्त्रियों का साधारणतः अभिप्राय क्या रहता है?
(ङ) भाव की उमंग में किस प्रकार के गीत गाए जाते हैं?
उत्तर-
(क) पाठ-ग्राम-गीत का मर्म, लेखक-लक्ष्मी नारायण सुधांशु।

(ख) कला-गीत और ग्राम-गीत में वही संबंध है जो जीवन और शैशव के बीच का संबंध है। ग्राम-गीत, कला-गीत के प्रारंभिक स्वरूप होते हैं। ग्राम-गीत वस्तुतः काल क्रमशः सभ्य जीवन के अनुक्रम से कला-गीत के रूप में विकसित हो जाते हैं।

(ग) गीत का उपयोग एक ओर जीवन के महत्वपूर्ण समाधान के रूप में किया जाता है तो दसरी ओर साधारण मनोरंजन के क्षेत्र में भी वे उपयोगी प्रमाणित होते हैं। मनोरंजन के कई रूप और विधियाँ हैं। गार्हस्थ जीवन में स्त्रियाँ जो कर्म विधान करती हैं उससे गीतों की रचना का बड़ा निकट का संबंध है।

(घ) ग्राम-गीत गायन के ये कई अवसर होते हैं, जैसे-चक्की पीसते समय, धान. कूटते समय, चरखा काटते समय, स्त्रियाँ ग्राम-गीत गाती है। उस समय गीत गायन का उनका साधारणतः अभिप्राय यही रहता है कि उन कार्यों से उत्पन्न थकावट से आये ध्यान को हटाकर मन को मनोरंजन में लगा सके।

(ङ) कुछ ऐसे ग्राम-गीत होते हैं जो विशुद्ध रूप से भाव की उमंग के क्रम में गाए जाते हैं। इन गीतों के गायन में परिश्रम और थकावट की कोई बात ही नहीं उठती है। भाव की उमंग में गाए जानेवाले वे गीत हैं जो जन्म, मुंडन. यज्ञोपवीत, विवाह, पर्व-त्योहार आदि के अवसर पर गाए जाते हैं। इन गीतों में उल्लास और उमंग की ही प्रधानता होती है।

3. किंतु सब मिलाकर ग्राम-गीतों की प्रकृति स्त्रैणं ही रही, पुरुषत्व का ‘आक्रमण उनपर नहीं किया जा सका। स्त्रियों ने जहाँ कोमल भावों की ही अभिव्यक्ति की, वहाँ पुरुषों ने अवश्य ही अपने संस्कारवश प्रेम को प्राप्त करने के लिए युद्ध घोषणा की। इस प्रकार मनुष्य की दो सनातन प्रवृत्तियों-प्रेम और युद्ध-का वर्णन भी ग्राम-गीतों में मिलता है। तत्त्वतः ग्राम-गीत हृदय की वाणी है, मस्तिष्क की ध्वनि नहीं। इनकी उद्भावना व्यक्तिगत जीवन के उल्लास-विषाद को लेकर भले ही हुई हो, किंतु मानव-जातीयता में उसकी सारी वैयक्तिक विशेषता अंतर्निहित. हो गई है। उनकी अपूर्वता इसी बात में है कि वे व्यक्ति को साथ लेकर भी उसको, प्रधान न रख, उपलक्ष्य बनाकर भावों की स्वाभाविक मार्मिकता के साथ अग्रसर हुए हैं।
(क) इस गद्यांश के पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) सब मिलाकर ग्राम-गीतों की प्रकृति “स्त्रैण” ही रही। इस कथन का क्या मतलब है?
(ग) ग्राम-गीतों से पुरुषों का कैसा संबंध रहा है?
(घ) ग्राम-गीतों की क्या विशेषताएँ हैं और उनकी उद्भावना कैसे
(ङ) ग्राम-गीतों की अपूर्वता किस बात में है?
उत्तर-
(क) पाठ-ग्राम-गीत का मर्म, लेखक का नाम-लक्ष्मी नारायण सुधांशु।

(ख) इस कथन से लेखक का मतलब यह है कि ग्राम-गीतों से प्रायः स्त्रियों का स्वर ही जुड़ा रहता है और उन गीतों में स्त्री-प्रकृति की ही कार्यशीलता का प्राधान्य मिलता है। लेखक के अनुसार ग्राम-गीतों का मुख्य विषय पारिवारिक जीवन होता है और उसमें स्त्रियों की भूमिका अधिक होती है। दूसरी बात यह है कि ग्राम-गीतों में जो भी कोमल भावों की अभिव्यक्ति मिलती है वह स्त्रियों की ही देन है।

(ग) ग्राम-गीतों से कुछ हद तक पुरुषों का भी संबंध रहा है। यह बात सर्वविदित है कि ग्राम-गीतों में प्रेम ऐसे कोमल भाव के साथ-साथ न्यूनाधिक्य मात्रा में क्रोध और युद्ध के भी वर्णन मिलत हैं। ये कठोर भाव और दृश्य संस्कारवश पुरुषों से जुड़े होते हैं, क्योंकि प्रेम को पाने के लिए युद्ध की घोषणा पुरुष ही करता है।

(घ) ग्राम-गीतों की यह विशेषता है कि वे भाव-प्रधान होते हैं। भाव का प्रत्यक्ष संबंध हृदय से होता है। इसलिए ग्राम-गीतों को हृदय की वाणी कहा जाता है। वहाँ बुद्धि की प्रखरता, अर्थात् मस्तिष्क की ध्वनि के लिए कोई स्थान नहीं है। इन गीतों की उद्भावना जीवन के उल्लास, विषाद से प्रेरित होने के साथ-साथ मानव जातीयता में अंतर्निहित वैयक्तिक विशेषता के कारण होती है।

(ङ) इन गीतों की अपूर्वता इस बात में है कि ये गीत वैयक्तिक भावना को साथ लेकर भी उसको प्रधान स्थान नहीं देते। उनकी खासियत, भावों की स्वाभाविक मार्मिकता की अभिव्यंजना के साथ जुड़ी हुई है।

4. इसमें संदेह नहीं कि ग्राम-गीतों से ही काल्पनिक तथा वैचित्र्यपूर्ण
कविताओं का विकास हुआ है। यही ग्राम-गीत क्रमशः सभ्य जीवन के अनुक्रम से कला-गीत के रूप में विकसित हो गया है, जिसका संस्कार अब तक वर्तमान है। ग्राम-गीत भी प्रथमतः व्यक्तिगत उच्छ्वास और वेदना को लेकर उद्गीत किया गया, किंतु इन भावनाओं ने समष्टि का इतना प्रतिनिधित्व किया कि उनकी सारी वैयक्तिक सत्ता समष्टि में ही तिरोहित हो गई और इस प्रकार उसे लोक-गीत की संज्ञा प्राप्त हुई। ग्राम गीत को कला-गीत के रूप में आते-आते कुछ समय तो लगा ही, पर उसमें सबसे मुख्य बात यह रही कि कला-गीत अपनी रूढ़ियाँ बनकर चले।
(क) लेखक और पाठ के नाम लिखिए।
(ख) ग्राम-गीत कला-गीत के रूप में कैसे विकसित हो गए हैं?
(ग) ग्राम-गीत को लोकगीत की संज्ञा कैसे प्राप्त हुई?
(घ) कला-गीत की क्या विशेषताएँ होती हैं?
(ङ) प्रस्तुत गद्यांश का आशय अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
(क) पाठ-ग्राम-गीत का मर्म, लेखक का नाम-लक्ष्मी नारायण सुधांशु।

(ख) लेखक के अनुसार ग्राम. गीतों के द्वारा ही काल्पनिक एवं विचित्र कविताओं को विकास का आधार मिला है। ये ग्राम-गीत जब क्रमशः सभ्य जीवन का अनुक्रमन करते हैं तब उस अनुक्रम की प्रक्रिया से वे कला-गीत के रूप में विकसित होते हैं।

(ग) सामान्य रूप से ग्राम-गीतों में व्यक्तिगत उच्छ्वास और वेदनाओं का प्राधान्य होता है, लेकिन उन व्यक्त भावनाओं में समष्टि का बड़ा सबल प्रतिनिधित्व हो जाता है। जब इस प्रक्रिया में वैयक्तिक सत्ता की चेतना समष्टि में ही विलीन हो जाती है तब अपने इस नये स्वरूप में उन गीतों को लोक-गीतों की संज्ञा मिलती है।

(घ) ग्राम-गीतों को कला-गीतों के स्वरूप धारण में कुछ समय तो लग ही जाता है, लेकिन वहाँ प्रधान बात यह परिलक्षित होती है। कि कला-गीत अपनी रूढ़ियों, दूसरे शब्दों में परम्पराओं से मुक्त होकर नहीं चलते। रूढ़ियाँ उनके साथ जुड़ी ही रहती है।

(ङ) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक के कथन का आशय यह है कि ग्राम-गीतों द्वारा ही काल्पनिकता तथा विचित्र कथाओं का जन्म और विकास संभव है। आज के ये ग्राम-गीत ही जीवन के अनुक्रम को माध्यम के रूप में पाकर कल जाकर कला-गीत के रूप में विकिसित होते हैं। ग्राम-गीतों में व्यक्त वैयक्तिक चेतना या भावना ही समष्टि का प्रतिनिधित्व पाकर लोक-गीत की संज्ञा-प्राप्त करती है।

5. ग्राम-गीत की रचना में जिस प्रकृति और संकल्प का विधान था, कला-गीत में उसकी उपेक्षा करना समुचित न माना गया। अत्यधिक । संस्कृत तथा परिष्कृत होने के बाद भी कला-गीत अपने मूल ग्राम-गीत के संस्कार से कुछ बातों में मुक्ति पा सका और यह उस समय तक संभव नहीं; जब तक मानव-प्रकृति को ही विषय मानकर काव्य रचनाएँ की जाती रहेंगी। ग्राम गीत से कला-गीत के परिवर्तन में एक बात । उल्लेखनीय रही कि ग्राम-गीत में रचना की जो प्रकृति स्त्रैण थी, वह कला-गीत में आकर कुछ पौरुषपूर्ण हो गई। स्त्री और पुरुष-रचयिता के दृष्टिकोण में जो सूक्ष्म और स्वाभाविक भेद हो सकता है, वह ग्राम-गीत और कला-गीत की अंतः प्रकृति में बना रहा। ग्राम-गीत में स्त्री की ओर से पुरुष के प्रति प्रेम की जो आसन्नता थी, वह कला-गीत में बहुधा पुरुष के उपक्रम के रूप में परिवर्तित होने लगी।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) कला-गीत में किसकी उपेक्षा करना समुचित नहीं माना गया और क्यों?
(ग) ग्राम-गीत से कला-गीत के परिवर्तन में कौन-सी बात उल्लेखनीय
(घ) ग्राम-गीत तथा कला-गीत की अंतः प्रकृति में कौन-सी बात बनी रही?
(ङ) ग्राम-गीत और कला-गीत में व्यंजित प्रेम के स्वरूप का अंतर बतलाएँ।
उत्तर-
(क) पाठ-ग्राम-गीत का मर्म, लेखक-लक्ष्मी नारायण सुधांशु।

(ख) ग्राम-गीत की रचना की जो अपनी खास प्रकृति थी और संकल्प का जो विधान था, कला-गीत में उसकी उपेक्षा करना या उसे छोड़कर चलना समुचित नहीं माना गया। इसका कारण यह था कि वे कला-गीत के अपरिहार्य अंग थे।

(ग) ग्राम-गीत से कला-गीत के परिवर्तन में यह एक बात उल्लेखनीय रही कि ग्राम-गीत में रचना की जो प्रकृति स्त्रैण थी वहाँ कला-गीत में कुछ हद तक बदलकर पौरुषपूर्ण हो गई।

(घ) ग्राम-गीत और कला-गीत के रचयिता क्रमशः स्त्री और पुरुष थे। इन दोनों प्रकार के रचयिताओं के दृष्टिकोण में जो कुछ सूक्ष्म और स्वाभाविक भेद थे, वे कला-गीत और ग्राम-गीत की अंतः प्रकृति में बने रहे।

(ङ) ग्राम-गीत और कला-गीत के व्यंजित प्रेम में अंतर यह था कि ग्राम-गीतों में पुरुषोन्मुख स्त्री-प्रेम की निकटता की व्यंजना अधिक थी, और कला-गीतों में प्रेम की वह निकटता पुरुष के उपक्रम, अर्थात् प्रारंभिक प्रेमावस्था के रूप में बदलती चली गईं।

6. राजा-रांनी, राजकुमार या राजकुमारी या ऐसे समाज के किसी विशिष्ट वर्ग के नायक को लेकर काव्य रचना की जो प्रणाली बहुत प्राचीन काल से चली आ रही थी और जिसका संस्कृत-साहित्य में विशेष महत्त्व था, उसका प्रधान कारण यह था कि वैसे विशिष्ट व्यक्तियों के लिए साधारण जनता के हृदय पर उसके महत्त्व की प्रतिष्ठा बनी हुई थी। उनमें धीरोदात्तता, दक्षता, तेजस्विता, रूढ़वंशता, वाग्मिता आदि गुण स्वाभाविक माने जाते थे। मानव होते हुए भी उनकी महत्ता, विशिष्टता, प्रतिष्ठा आदि का प्रभावनोत्पादक संस्कार जनता के चित्त पर पड़ा था। ऐसे चरित्र को लेकर काव्य-रचना करने में रसोत्कर्ष का काम, बहुत-कुछ सामाजिक धारणा के बल पर ही चल जाता था, किंतु साधारण जीवन के चित्रण में कवि की प्रतिभा का बहुत-सा अंश, अपने चरित्र नायक में विशिष्टता प्राप्त कराने की चेष्टा में ही खर्च हो जाता है।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) काव्य-रचना की कौन-सी प्रणाली बहुत दिनों से चली आ रही
थी और कहाँ उसकी महत्ता बहुत ज्यादा थी?
(ग) उस महत्त्व के विशिष्ट कारण क्या थे?
(घ) विशिष्ट व्यक्तियों में कौन-से चारित्रिक गुण स्वाभाविक माने जाते थे?
(ङ) साधारण जीवन के चित्रण में कवि का क्या प्रयास रहता है?
उत्तर-
(क) पाठ-ग्राम-गीत का मर्म, लेखक-लक्ष्मी नारायण सुधांशु

(ख) हमारे समाज में बहुत दिनों से ऐसी काव्य-प्रणाली चली आ रही थी जिसमें राजा, रानी, राजकुमार ऐसे समाज के विशिष्ट वर्ग के लोगों को केंद्र में रखकर काव्य की रचना की जाती थी। संस्कृत साहित्य में इसी काव्य-प्रणाली का विशेष महत्त्व था।

(ग) उस काव्य-प्रणाली की महत्ता का कारण यह था कि वैसे तथाकथित विशिष्ट व्यक्तियों के लिए समाज के सभी वर्गों के लोगों के दिल-दिमाग में उनके महत्व की प्रतिष्ठा बनी हुई थी।

(घ) उन विशिष्ट व्यक्तियों के चरित्र में इन चारित्रिक गुणों को स्वाभाविक माना जाता था-उनकी धीरोदात्तता, दक्षता, तेजस्विता, रूढ़वंशता, वाग्मिता आदि। सामान्य लोगों के दिलों पर उन विशिष्ट व्यक्तियों की प्रतिष्ठा, महत्ता तथा विशिष्टता आदि का प्रभावपूर्ण संस्कार जमा हुआ था।

(ङ) साधारण जीवन के चित्रण में कवि का प्रयास यही रहता था कि वे अपनी प्रतिभा का ज्यादा उपयोग अपने चरित्र नायक को विशिष्टता प्रदान करने में ही करते थे। वे यही चाहते थे कि उनके चरित्र नायक की सामान्य लोगों के बीच विशेष स्थिति बनी रहे और वे विशेष सम्मान के पात्र बने रहें।

7. बच्चे अब भी राजा-रानी, राक्षस, भूत, जानवर आदि की कहानियाँ सुनने को ज्यादा उत्कंठित रहते हैं। नानी की कहानियाँ ऐसी ही हुआ करती हैं। साधारण तथा प्रत्यक्ष जीवन में जो घटनाएं होती रहती हैं, उनके अतिरिक्त जो जीवन से दूर तथा अप्रत्यक्ष हैं, उनके संबंध में कुछ जानने की लालसा तथा उत्कंठा अधिक बनी रहती हैं। बच्चों की भाँति उन मनुष्यों को भी, जिनका मानसिक विकास नहीं हुआ रहता, वैसी कहानियाँ ज्यादा रुचिकर मालूम होती हैं। ग्राम-गीतों की रचना में ऐसी प्रवृत्ति प्रायः सर्वत्र पाई जाती है। मानव-जीवन का पारस्परिक संबंध-सूत्र कुछ ऐसा विचित्र है कि जिस बात को हम एक काल और एक देश में बुरा समझते हैं, उसी बात को हम दूसरे काल और दूसरे देश में अच्छा मान लेते हैं।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) बच्चे अब भी क्या सुनने के लिए ज्यादा उत्कंठित रहते हैं?
(ग) ग्राम-गीतों में कैसी प्रवृत्ति प्रायः सर्वत्र पाई जाती है?
(घ) मानव-जीवन के संबंध-सूत्र की क्या विचित्रता होती है?
(ङ) इस गद्यांश का आशय लिखें।
उत्तर-
(क) पाठ-ग्राम-गीत का मर्म, लेखक-लक्ष्मी नारायण सुधांशु।

(ख) बच्चे अब भी राजा-रानी, राक्षस, भूत, जानवर आदि की कहानियाँ सुनने को ज्यादा उत्कठित रहते हैं। नानी की कहानियाँ इसीलिए उनके लिए ज्यादा प्रिय होती हैं क्योंकि इनमें ऐसे ही पात्रों की कहानियाँ ज्यादा होती हैं। वे पात्र जीवन से दूर के और अप्रत्यक्ष होते हैं।

(ग) ग्राम-गीतों में साधारण और प्रत्यक्ष जीवन की घटित घटनाओं तथा जीवन से दूर की और अप्रत्यक्ष बातों को जानने की प्रवृत्ति ज्यादा होती है।

(घ) मानव-जीवन के पारस्परिक संबंध-सूत्र की कुछ ऐसी विचित्रता होती है कि आज जो बात किसी देश और कालविशेष में ग्राह्य या अच्छी लगती है, कल वही बात दूसरे देश और समयांतर में अग्राह्य और बुरी लगने लग जाती है। मनुष्य की इस मानसिक वृत्ति की विचित्रता का परिचय ग्राम-गीतों में वर्णित देवी-देवताओं, भूत-प्रेतों तथा राजा-रानियों की कहानियों के संदर्भ में ज्यादा मिलता है।

(ङ) इस गद्यांश में लेखक ने ग्राम-गीतों की रचना की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है। इस क्रम में लेखक का यह कथन है कि बच्चे ग्राम-गीतों में आई राजा-रानी भत-प्रेत राजकमार-राजकमारी की कहानियों को सनने के लिए ज्यादा व्यग्र और उत्कठित रहते हैं। इसी कारण नानी की या दूर की कहानियाँ उनके लिए विशेष प्रिय होती हैं। मानसिक दृष्टि से अविकसित लोगों की भी यही बच्चों वाली मानसिकता होती है। हाँ, कालक्रम में समय और स्थान में परिवर्तन के साथ लोगों की यह प्रवृत्ति बदल भी जाती है।

8. उच्च वर्ग के लोगों के प्रति समाज में विशिष्टता की धारणा ज्यों-ज्यों कम होने लगी, त्यों-त्यों निम्न वर्ग के प्रति हमारे हृदय में आदर का भाव जमने लगा और इस प्रकार काव्य में ऐसे पात्रों को सामान्य स्थान प्राप्त होने लगा। हृदय की उच्चता-विशालता किसी में हो, चाहे वह राजा हो या भिखारी, उसका वर्णन करना ही कवि-कर्म है। ग्राम-गीत में दशरथ, राम, कौशल्या, सीता, लक्ष्मण, कृष्ण, यशोदा के नाम बहुत आए हैं और उनसे जन-समाज के बीच संबंध का प्रतिनिधित्व कराया गया है। श्वसुर के लिए दशरथ, पति के लिए राम या कृष्ण, सास के लिए कौशल्या या यशोदा, देवर के लिए लक्ष्मण आदि सर्वमान्य हैं। इसका कारण हमारा वह पिछला संस्कार भी है, जो धार्मिक महाकाव्यों ने हमारे चित्त पर डाला है।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) काव्य में कब और कैसे निम्न वर्ग के पात्रों को सामान्य स्थान प्राप्त होने लगा?
(ग) कवि-कर्म क्या है?
(घ) ग्राम-गीतों में दशरथ, राम, कौशल्या, कृष्ण और लक्ष्मण को समाज के बीच किन संबंधों का प्रतिनिधित्व कराया गया है?
(ङ) धार्मिक महाकाव्यों ने हमारे चित्त पर क्या प्रभाव डाला है?
उत्तर-
(क) पाठ-ग्राम-गीत का मर्म, लेखक-लक्ष्मी नारायण सुधांशु।

(ख) उच्च वर्ग के तथाकथित सम्मानित लोगों के प्रति समाज में जैसे-जैसे विशिष्टता की धारणा कमने लगी, वैसे-वैसे हमारे हृदय में निम्न वर्ग के लोगों के प्रति आदर और सम्मान का भाव पुष्ट होने लगा और इस रूप में काव्य में निम्न वर्ग के पात्रों को सामान्य स्थान प्राप्त होने लगा।

(ग) लेखक के अनुसार कवि-कर्म यह है कि वह (कवि) अपनी कविता में ऐसे लोगों के वर्णन को स्थान दे जिनका चरित्र उदात्त हो तथा जो हृदय की उदारता, उच्चता और विशालता के गुणों से भूषित हों। कवि इस कर्म के अनुष्ठान में यह नहीं देखता है कि उसके काव्य में वर्णित व्यक्ति उच्च वर्ग का है या निम्न वर्ग का दीन-हीन भिखारी। आर्थिक स्थिति और स्तर की बात का कवि-कर्म में कोई स्थान नहीं है।